व्यक्ति के जन्म के साथ पांच ज्ञानेंद्रियां साथ में आती हैं, क्योंकि ये ज्ञानेंद्रियां पांच तत्वों की तन्मात्रा है, जिनसे शरीर बना है। पृथ्वी की तन्मात्रा है गंध, आकाश की तन्मात्रा आवाज, जल की तन्मात्रा है रस, अग्नि का तन्मात्रा है रूप और वायु की तन्म
.
एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर नैनोद स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में मंगलवार को यह बात कही। महाराजश्री ने कहा कि जिसके पास स्वभाव नहीं होता, वह कितनी भी शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर ले वह निरर्थक हो जाती है। भले ही व्यक्ति शिक्षित न हो पर यदि उसके पास स्वभाव है तो वह अपनी जिंदगी में उन्नति ही करता है। जिसे स्वभाव की समझ नहीं है उसका जीवन निरर्थक है।
कृति देखना चाहिए, आकृति नहीं
डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने कहा कि हमें कृति को देखना चाहिए, आकृति को नहीं। कुछ लोग नासमझी के कारण व्यक्ति के ज्ञान और त्याग को नहीं देखते। वे वेशभूषा देखकर ही साधु या ज्ञानी समझते हैं। जिसके कारण उनके जीवन में शिक्षित होते हुए भी अशिक्षित जैसा व्यवहार होता है। यदि व्यवहारिकता की समझ नहीं हो तो व्यक्ति का जीवन अंधकारमय हो जाता है। महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक बार जनकजी की राजसभा में महाज्ञानी अष्टावक्रजी पहुंचे। उन्हें देखकर सभी दरबारी हंसने लगे, क्योंकि उनका शरीर आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा था। अष्टावक्रजी कुछ नहीं बोले और वे भी जोर-जोर से हंसने लगे। राजा जनक ने पूछा- महाराज आप क्यों हंसने लगे। उन्होंने कहा इसलिए कि राजा तुमने अपने दरबार में चमड़े के अच्छे पारखी एकत्र कर लिए हैं, जो मुझे देखकर हंसने लगे। इसलिए मैं भी इन्हें देखकर हंसने लगा। इन्होंने मेरी आकृति देखी, पर कृति नहीं देखी। जिनके पास सहज स्वभाव नहीं होता, वे आधुनिक शिक्षा तो प्राप्त कर लेते हैं पर व्यवहारिकता के अभाव में किसी भी साधु का ज्ञान नहीं वरन उसकी वेशभूषा देखते हैं। इसी कारण आज धूर्त और चालाक लोग, साधुओं की वेशभूषा पहनकर उन्हें ठग लेते हैं।