मधुबनी जिले के बेनीपट्टी अनुमंडल के उच्चैठ गांव में मां दुर्गा प्राचीन काल से विराजमान हैं। शारदीय नवरात्र में उच्चैठ भगवती दरबार में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। सालों भर जिला व राज्य सहित पड़ोसी देश नेपाल से भारी संख्या में भक्तों का आना-जाना ल
.
यहां सिंह पर सवार गदा-चक्र एवं कमल फूल से सुशोभित ढाई फीट की काले ग्रेनाइट पत्थर से बनी मूर्ति कल्याणमयी मुद्रा में अवस्थित है। इस प्रतिमा की किसने व कब स्थापना की, इसका विवरण उपलब्ध नहीं है। इनकी पूजा कर कालिदास महा विद्वान बने, इसकी जनश्रुति प्रचलित है। मंदिर के बगल में कालिदास चौपाड़ी नामक एक डीह आज भी मौजूद है। वन देवी व छिन्नमस्तिका के नाम से प्रसिद्ध उच्चैठ भगवती का उल्लेख धर्मग्रंथों में है।
महाकवि कालिदास को ज्ञान यहीं से प्राप्त हुआ। ग्रंथों की मानें तो शिव जब सती का शव लेकर चले थे तब विष्णु के सुदर्शन चक्र से काटे गए सती का हृदय इसी स्थान पर गिरा था। जनकपुर धाम यात्रा के समय श्रीराम समेत चारों भाई ने यहीं रुक कर माता की पूजा कर शक्ति प्राप्त की थी। ऋषि याज्ञवल्क्य, गौतम मुनि आदि द्वारा साधना किए जाने की चर्चाएं ग्रंथों में उल्लेखित है।
मंदिर में स्थापित माता की प्राचीन प्रतिमा।
मंदिर का निर्माण चौथी शताब्दी में हुआ
जानकारी के अनुसार वर्तमान मंदिर का निर्माण चौथी शताब्दी में हुआ था। मंदिर का गुंबद ऊपर की ओर चौकोर है। गर्भ गृह में प्रवेश व निकास एक ही द्वार से होता है। प्रवेश द्वार से पहले बरामदा है। चारों ओर भी बरामदा है। मंदिर का रंग लाल है।
पंडित कन्हैया पंडा से पूछने पर उन्होंने बताया कि हजारों साल पुराना मंदिर है। मंदिर जितना भव्य होना चाहिए, उतना नहीं है। उन्होंने बताया कि मंदिर के विकास के लिए अभी तक सरकार कुछ नहीं किया है।

मंदिर के बाहर और अंदर का रंग लाल है।

जानिए, क्या है कालिदास की कहानी
कन्हैया पंडा के अनुसार महाकवि कालीदास को भगवती ने वरदान दिया था। कहते हैं कि दुर्गा मंदिर से पूर्व दिशा की ओर एक संस्कृत पाठशाला थी। संस्कृत पाठशाला और मंदिर के बीच एक नदी बहती थी। कालीदास पहले महामूर्ख व्यक्ति थे। लेकिन उनका विवाह छलपूर्वक राजकुमारी विद्द्योतमा से करा दिया गया था।
विद्द्योतमा परम विदुषी महिला थी। वह यह नहीं जानती थी कि कालीदास महामूर्ख है। जब उसे यह बात मालूम हो गई तो उसने कालीदास का तिरस्कार किया। यह भी कह दिया कि जब तक उन्हें संस्कृत का ज्ञान नहीं हो जाता, वापस घर ना आए।
कालीदास अपनी पत्नी से अपमानित होकर उच्चैठ भगवती स्थान आ गए और वहां के आवासीय संस्कृत पाठशाला में रसोईया का कार्य करने लगे| समय बीतने लगा। कुछ दिनों के बाद वर्षा ऋतु शुरू हो गई। एक बार रात-दिन वर्षा होने के कारण नदी में बाढ़ आ गई। पानी की धारा भी तेज गति से बहने लगी। मंदिर की साफ़ सफाई , पूजा पाठ , धूप-दीप , आरती सारी व्यवस्था पाठशाला के छात्र ही करते थे।
शाम हो गई थी। मंदिर में दिया भी जलाना था, लेकिन भयंकर वर्षा और नदी में पानी की तेज धारा के कारण वे लोग मंदिर जाने में असमर्थ हो गए थे। सभी छात्रों ने मुर्ख कालीदास को ही मंदिर में दीया जलाने को कहा। कालीदास मंदिर जाने के लिए तैयार हो गए।
छात्रों ने कालीदास से यह भी कहा कि मंदिर में दीया बाती दिखाने के बाद कोई निशान लगाना नहीं भूलना। कालीदास मंदिर जाने के लिए बिना कुछ सोचे नदी में कूद गए। किसी तरह तैरते डूबते मंदिर पहुंच गए। मंदिर के भीतर गए और दीप जलाए। उन्होंने मन में सोचा कि निशान लगाने के लिए तो कुछ लाए नहीं। सोच ही रहे थे कि उनकी नजर दीप जलाने वाले स्थान पर पड़ी। वहां काली स्याही उभर गईं थी। उन्होंने सोचा इसी से ही निशान लगाउंगा। फिर अपनी दाहिने हथेली को स्याही पर रगड़ा| अब वह निशान देने के लिए जगह खोजने लगे।
मंदिर के चारों ओर सभी जगह काली स्याही का निशान पहले से ही लगा हुआ था। निशान लगाने के लिए कोई स्थान नहीं देख उन्होंने सोचा, क्यों न भगवती के मुखमंडल पर ही निशान लगा दिया जाए, क्योंकि वहां पहले से कोई निशान नहीं लगा हुआ है। यह सोचकर जैसे ही अपना स्याही लगा दाहिना हाथ भगवती के मुखमंडल की ओर निशान लगाने के लिए बढ़ाया तो भगवती प्रकट हो गईं।
कालीदास का हाथ पकड़ कर कहने लगीं, ‘अरे महामुर्ख तुझे निशान लगाने के लिए मंदिर के अंदर और कोई स्थान नहीं मिला। हम तुम पर बहुत प्रसन्न हैं। तुम इस विकराल समय में नदी तैर कर मंदिर में दीया जलाने के लिए आए हो। कोई वर मांगो।
कालीदास भगवती के वचन को सुन सोचने लगे कि मूर्ख होने के कारण ही अपनी पत्नी से तिरस्कृत हूं। अतः उसने भगवती से विद्या की याचना की। मां ने कहा कि आज रात भर में जितने भी पुस्तक को तुम छू सकते हो छू लो, सभी पुस्तकें तुम्हें याद हो जाएगी। यह कहते हुए मां अंतर्ध्यान हो गईं।
अब कालिदास वापस पाठशाला आए। खाना बना कर सभी छात्रों को खिलाया। फिर सभी वर्ग की पुस्तकें लेकर रात भर में स्पर्श कर लिया। स्पर्श करते ही सभी पुस्तकें उन्हें कंठस्थ हो गईं। बाद में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। जैसे-कुमार संभव, रघुवंश और मेघदूत आदि।