एम्स भोपाल के डॉक्टरों ने एक एनीमिया पीड़ित गर्भवती महिला को रेयर ब्लड ग्रुप उपलब्ध कराकर उसकी जान बचाई है। गर्भवती महिला की जान बचाने के लिए न सिर्फ डॉक्टरों और अस्पताल प्रशासन ने तत्परता दिखाई, बल्कि एक रक्तदाता ने 700 किलोमीटर की दूरी तय कर अपना दु
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जब संकट बना दुर्लभ रक्त समूह
एम्स भोपाल में भर्ती गर्भवती महिला की हालत गंभीर थी। डॉक्टरों ने तत्काल रक्त चढ़ाने की जरूरत बताई, लेकिन चुनौती यह थी कि महिला का रक्त समूह “बॉम्बे ब्लड ग्रुप” था, जो अत्यंत दुर्लभ होता है। अस्पताल के ब्लड बैंक में यह उपलब्ध नहीं था। महिला का जीवन संकट में था। डॉक्टरों के पास समय कम था और अगर जल्द ही रक्त नहीं मिलता, तो जच्चा और बच्चा दोनों की जान को खतरा हो सकता था।
मिशन ‘जीवन रक्षा’ की शुरुआत एम्स भोपाल के निदेशक प्रो. (डॉ.) अजय सिंह को जब यह जानकारी मिली, तो उन्होंने तुरंत चिकित्सकों और ब्लड बैंक टीम को सक्रिय कर दिया। वरिष्ठ डॉक्टर डॉ. संजय वर्मा, डॉ. सीमा अग्रवाल और ब्लड बैंक प्रभारी आदित्य शुक्ला ने मिलकर एक आपातकालीन योजना बनाई। ब्लड बैंक में खोजबीन के बाद जब रक्त नहीं मिला, तो समाजसेवी संगठन “जीवन संजीवनी” से संपर्क किया गया, जो दुर्लभ रक्त समूहों के रक्तदाताओं की सूची तैयार करने में मदद करता है।
इस संगठन के प्रमुख अशोक नायर, जो वर्षों से रक्तदान जागरूकता के लिए काम कर रहे हैं, ने मामले को प्राथमिकता से लिया और संभावित रक्तदाताओं की खोज शुरू की। उसी दौरान जानकारी मिली कि शिर्डी में रहने वाले रवींद्र, जो स्वयं बॉम्बे ब्लड ग्रुप के दुर्लभ रक्तदाता हैं, मदद के लिए आगे आ सकते हैं।
रात भर में शिर्डी से भोपाल पहुंचे विवेक।
700 किलोमीटर का सफर, जीवन बचाने का संकल्प समस्या यह थी कि रवींद्र उस समय शिर्डी में थे, जबकि महिला भोपाल में भर्ती थी और उसे तुरंत रक्त की आवश्यकता थी। बिना समय गंवाए, अशोक नायर और एम्स भोपाल प्रशासन की मदद से एक विशेष वाहन की व्यवस्था की गई। रवींद्र ने तत्काल 700 किलोमीटर की यात्रा शुरू की और समय से पहले भोपाल पहुंचने के लिए पूरा प्रयास किया। इस दौरान अस्पताल प्रशासन लगातार स्थिति पर नजर बनाए हुए था और डॉक्टर मरीज की हालत को नियंत्रित करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे थे।
दूसरी तरफ, रवींद्र भी अपनी यात्रा के दौरान हर घंटे अपनी स्थिति साझा कर रहे थे, ताकि डॉक्टरों को अनुमान रहे कि रक्तदान कब तक संभव होगा। जैसे ही रवींद्र भोपाल पहुंचे, तुरंत मेडिकल जांच के बाद उनका रक्त निकाला गया। फिलहाल महिला अभी स्थिर हालत में है।
तीन-चार महीने से लगातार चेकअप के एम्स आ रही थी डॉक्टर रोमेश जैन ने बताया कि, एसोसिएट प्रोफेसर एक प्रेग्नेंट महिला करीब चार महीने से लगाता आ रहीं थीं, हमें इस दौरान पता चला कि महिला का बॉम्बे ब्लड ग्रुप है, जिसके बाद हम पिछले तीन महीने से डिलीवरी के लिए उस ब्लड की तलाश कर रहे थे। वह ब्लड हमें भोपाल में कहीं से भी उपलब्ध नहीं हो पाया। इस दौरान हमें पता चला कि अशोक नायर जो कि ब्लड डोनेशन सेक्टर में लंबे समय से काम कर रहे हैं। उन्होंने हमारा संपर्क रवींद्र जो कि शिर्डी में रहते हैं उनसे करवाया। वह रात भर में भोपाल पहुंचे। जिसके बाद उन्होंने ब्लड डोनेट किया। जिसके बाद महिला की सुरक्षित डिलीवरी करवा पाए।
एम्स भोपाल के प्रो. (डॉ.) अजय सिंह ने कहा कि

यह घटना हमें याद दिलाती है कि रक्तदान सिर्फ जरूरतमंद के लिए नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक जिम्मेदारी भी है। खासतौर पर दुर्लभ रक्त समूह वालों को अपनी जानकारी ब्लड बैंकों में दर्ज करानी चाहिए, ताकि भविष्य में किसी और की जान बचाई जा सके।
महिला के पति बोले हम तीन महीने से परेशान
महिला के पति कपिल ने बताया कि हम तीन महीने से परेशान हो रहे थे, हमें नहीं लग रहा था कि यह ब्लड कहीं मिलेगा। कई जगहों पर पता करने के बाद निराश ही मिली। मैं रवींद्र जी का आभारी हूं। जो ऐसे समय में वह भोपाल आए। वहीं शिर्डी से आए रवींद्र ने कहा कि बाई कार आया हूं। मैं लोगों से यही कहूंगा कि रक्त दान हम तीन महीने में करना चाहिए, इससे किसी की जिंदगी बचाई जा सकती है।
देश भर में 180 लोगों में यह ब्लड ग्रुप अशोक नायर ने बताया कि हम 16 सालों से लगातार लोगों के लिए ब्लड डोनेशन करवा रहे हैं। इस ब्लड ग्रुप की डिमांड पांच बार आई है। अभी तक हमने पांच बार अरेंज करवाया है। जैसे भाई साहब शिर्डी से आए हैं यह देश में कुल 180 लोगों में पाया गया है। यह दुनिया का सबसे रेयर ब्लड ग्रुप है।
बॉम्बे ब्लड ग्रुप – क्यों है यह इतना दुर्लभ और महत्वपूर्ण?
सामान्यतः लोग ए, बी, एबी और ओ ब्लड ग्रुप से परिचित होते हैं, लेकिन बॉम्बे ब्लड ग्रुप इन सबसे अलग है। इसे “ह-एच ब्लड ग्रुप” भी कहा जाता है, और यह लाखों में किसी एक व्यक्ति में ही पाया जाता है। इस रक्त समूह की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि यह न तो ओ ग्रुप से मैच करता है और न ही किसी अन्य रक्त समूह से।
इसका मतलब यह है कि यदि किसी मरीज को बॉम्बे ब्लड ग्रुप की जरूरत हो, तो उसे सिर्फ इसी ग्रुप का रक्त चढ़ाया जा सकता है। यही कारण था कि इस गर्भवती महिला की जान बचाना इतना कठिन हो गया था। डॉक्टर्स के अनुसार यह 10 हजार से 1 लाख व्यक्तियों के बीच पाया जाता है। इसकी खोज सबसे पहले साल 1952 में डॉक्टर वाईएम भेंडे ने मुंबई में की थी