Monday, June 9, 2025
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क्या बंद कमरे में पकड़े गए थे नेहरू और एडविना: नेहरू के जन्मदिन पर जानिए, उनके बारे में फैली 10 बातों की पूरी सच्चाई


भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू मौजूदा राजनीति के पंचिंग बैग बन चुके हैं। कश्मीर समस्या से लेकर UN में भारत को स्थायी सदस्यता न मिलने तक के लिए बीजेपी नेता नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हैं। कभी उनके पूर्वजों के मुसलमान होने के दावे किए जाते ह

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नेहरू की 135वीं जयंती पर उनके बारे में फैली 10 सबसे चर्चित बातों की पूरी सच्चाई जानेंगे…

सवाल 1: क्या जवाहरलाल नेहरू के पूर्वज मुसलमान थे? जवाब: नहीं। जवाहरलाल नेहरू के पूर्वज मुसलमान नहीं, बल्कि कश्मीरी पंडित थे।

इतिहासकार बीआर नंदा अपनी किताब ‘द नेहरूज’ में लिखते हैं,

साल 1719… मुगल बादशाह फर्रुख सियार ने कश्मीर के एक पंडित परिवार को दिल्ली में आकर बसने का न्योता दिया। यह राजनारायण कौल का परिवार था, जो जवाहरलाल नेहरू के पूर्वज थे।

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दरअसल, राजनारायण ने 1710 ईस्वी में कश्मीर के इतिहास पर एक किताब ‘तारीखी कश्मीर’ लिखी। इस किताब की तारीफ दिल्ली सल्तनत तक पहुंची और फर्रुख सियार ने राजनारायण को दिल्ली बुला लिया।

बादशाह फर्रुख सियार ने राजनारायण को चांदनी चौक में एक हवेली और कुछ जागीर दे दी। इस हवेली के पास एक नहर बहती थी। इस वजह से वहां के लोग कौल परिवार को ‘कौल नेहरू’ बुलाने लगे। हालांकि इतिहासकारों की इस पर अलग-अलग राय है।

17वीं सदी के आखिर में अंग्रेजों के आने के बाद जैसे-जैसे मुगलों की बादशाहत फीकी पड़ रही थी, वैसे-वैसे राज कौल को मिली जागीर भी घटती गई। इस जमींदारी का फायदा पाने वाले आखिरी दो लोग मौसाराम कौल और साहिब राम कौल थे। ये दोनों राजनारायण के पोते थे। इन्हीं मौसाराम कौल के बेटे थे लक्ष्मीनारायण नेहरू। लक्ष्मीनारायण को ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगल दरबार में अपना वकील बनाया।

लक्ष्मीनारायण के बेटे थे गंगाधर नेहरू, जो 1857 के गदर के समय दिल्ली के कोतवाल थे। 1857 के बाद अंग्रेजों ने कोतवाल का पद खत्म कर दिया और गंगाधर का परिवार आगरा में जाकर बस गया। यहां जन्म हुआ लक्ष्मीनारायण के बेटे मोतीलाल नेहरू का।

मोतीलाल नेहरू अपने दोनों बड़े भाइयों की तरह वकील बनना चाहते थे। इसलिए उन्हें वकालत की पढ़ाई के लिए लंदन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी भेजा गया। 1883 में मोतीलाल कानून की पढ़ाई पूरी कर के भारत लौटे और इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करने लगे। इस दौरान मोतीलाल अपने परिवार के साथ इलाहाबाद में आकर बस गए।

14 नवंबर 1889 को मोतीलाल के घर एक बेटा हुआ, जिसका नाम रखा गया जवाहरलाल नेहरू।

1 जनवरी 1899 की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू अपने पिता मोतीलाल नेहरू और माता स्वरूप रानी नेहरू के साथ।

1 जनवरी 1899 की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू अपने पिता मोतीलाल नेहरू और माता स्वरूप रानी नेहरू के साथ।

सवाल 2: क्या नेहरू की प्रधानंत्री बनने की ख्वाहिश की वजह से भारत-पाकिस्तान बंटवारा हुआ? जवाब: नहीं। ये बात सच नहीं है। जवाहरलाल नेहरू बंटवारे को रोकने के लिए जिन्ना के हाथों में देश की कमान सौंपना नहीं चाहते थे। जब महात्मा गांधी ने नेहरू और सरदार पटेल से जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने का सवाल किया तो दोनों ने इनकार कर दिया।

पद्म भूषण से सम्मानित फ्रांसिसी लेखक डोमिनीक लापियरे और अमेरिकी लेखक जॉन लॉरेंस कॉलिन्स की किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के मुताबिक,

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16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ मनाने का ऐलान किया। मुस्लिम लीग के लीडर मुहम्मद अली जिन्ना की मांग थी कि मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बनाया जाए। ऐलान के बाद पूरे देश में दंगे भड़कने लगे। 2 दिनों के अंदर ही कोलकाता में करीब 4 हजार लोग मारे जा चुके थे। पूरा देश सांप्रदायिकता की आग में जल रहा था।

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अप्रैल 1947 में महात्मा गांधी ने विभाजन से बचने के लिए एक उपाय सुझाया। उन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन और कांग्रेस नेताओं के सामने जिन्ना को देश का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव पेश किया, लेकिन जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल ने इस बात से साफ इनकार कर दिया। गांधी ने कहा-

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अगर आप लोग इस योजना पर अपनी सहमति नहीं देंगे, तो वायसराय को देश के टुकड़े करने पर मजबूर होना पड़ेगा। टुकड़े होते ही देश में खून की नदियां बह जाएंगी। अगर भारत को एकता की डोर में बांध कर रखना है, तो इसी योजना को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री का पद जिन्ना को दे देना चाहिए।

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लेकिन नेहरू और पटेल दोनों ने कहा कि एकता के लिए भी त्याग एक सीमा तक किया जा सकता है। प्रधानमंत्री का पद जिन्ना को देना उस सीमा का अतिक्रमण करना होगा। तब महात्मा गांधी ने निराश होकर कहा था कि अब कांग्रेस में मेरी कोई नहीं सुनता।

31 दिसंबर 1943 की तस्वीर। महात्मा गांधी के साथ मुहम्मद अली जिन्ना।

31 दिसंबर 1943 की तस्वीर। महात्मा गांधी के साथ मुहम्मद अली जिन्ना।

सवाल 3: अगर नेहरू जंग न रोकते तो क्या PoK भारत में होता? जवाब: 6 दिसंबर 2023 को लोकसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय उनके लिए निर्णयों से 2 बड़ी गलतियां हुईं। पहला- जब हमारी सेना जीत रही थी, तब युद्धविराम की घोषणा करना। अगर 3 दिन बाद सीजफायर होता तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर आज भारत का हिस्सा होता। दूसरा- अपने आंतरिक मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना।’

गृहमंत्री की बात आंशिक रूप से सच है, लेकिन उस वक्त की परिस्थिति को भी समझना जरूरी है। 22 अक्टूबर 1947 को हजारों कबायली पठानों ने कश्मीर में घुसपैठ कर दी। 26 अक्टूबर को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन्स पर महाराजा हरि सिंह ने दस्तखत किए। इस तरह कश्मीर का भारत में विलय हुआ और भारत ने तुरंत सैन्य सहायता कश्मीर भेजी।

मई 1948 की तस्वीर। श्रीनगर में जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला।

मई 1948 की तस्वीर। श्रीनगर में जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला।

साल 1948 आते-आते जंग बहुत बढ़ चुकी थी। ‘कश्मीरनामा’ के लेखक और इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय सरदार पटेल के एक खत का हवाला देते हैं। ये खत 4 जून 1948 को कश्मीर मामलों को देख रहे मंत्री गोपाल स्वामी अयंगर को लिखा गया था।

सरदार ने लिखा-

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सेना की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। हम संसाधनों का पूरा दोहन कर चुके हैं। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर हम कितने दिन तक इस युद्ध को खींच पाने में कामयाब हो पाएंगे।

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उस वक्त भारत के आर्मी चीफ जनरल बुचर और प्रधानमंत्री नेहरू के बीच भी लगातार हो रहे पत्राचार से तब के हालात का सही अंदाजा लगाया जा सकता है। युद्ध शुरू होने के 13 महीने बाद 22 नवंबर 1948 को बुचर ने नेहरू को सैनिकों की थकान, जूनियर अधिकारियों की कम ट्रेनिंग के बारे में जानकारी दी थी। उन्होंने हथियारों की कमी के बारे में भी इस खत में लिखा।

29 दिसंबर को नेहरू ने बुचर को लिखा- ‘सिर्फ 2 विकल्प हैं। यूनाइटेड नेशंस के कहने पर युद्धविराम या पाक सेनाओं के खिलाफ सशक्त सैन्य कदम उठाना। किसी भी स्थिति में हमें बाद के लिए तैयार रहना चाहिए।’

बुचर को आक्रामक युद्ध का विकल्प अवास्तविक लगा। उन्होंने 31 दिसंबर 1948 को पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल ग्रेसी के साथ सीजफायर पर सहमति व्यक्त की। 1 जनवरी 1949 से ये लागू हो गया।

‘नेहरूः मिथक और सत्य’ किताब के लेखक पीयूष बबेले का मानना है कि यूएन में जाना नेहरू की एक रणनीति थी। वो एक पत्र का जिक्र करते हैं। नेहरू ने 23 दिसंबर 1947 को ये पत्र कश्मीर के महाराज हरिसिंह को लिखा था।

नेहरू ने हरिसिंह को लिखा- ‘हमारा मंत्रिमंडल इस निर्णय पर पहुंचा है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपनाया जाने वाला उत्तम मार्ग यह होगा कि हम संयुक्त राष्ट्रसंघ का ध्यान उस आक्रमण की तरफ खींचे जो पाकिस्तान सरकार की मदद और प्रोत्साहन से कबायली लोगों ने भारत पर किया है।

अलबत्ता, इस बीच हम आज की तरह अपनी सैनिक कार्रवाई को जारी रखेंगे। बेशक, इन कार्रवाइयों को हम अधिक जोरों से चलाने की आशा रखते हैं। इस अवसर पर इस बात को पूरी तरह गुप्त रखना होगा।’

सवाल 4: क्या 1949 में नेहरू ने बाबरी मस्जिद से रामलला की मूर्ति हटाने के आदेश दिए थे? जवाब: हां। जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद से रामलला की मूर्ति हटाने के आदेश दिए थे, क्योंकि उस समय भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर भारी तनाव में थे। नेहरू को लगता था कि अगर अयोध्या के मामले ने तूल पकड़ा तो देशभर में सांप्रदायिक दंगे भड़क जाएंगे।

वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण झा और धीरेंद्र कुमार झा अपनी किताब ‘अयोध्या: द डार्क नाइट’ में लिखते हैं, 22-23 दिसंबर 1949 की सर्द रात का समय था। अयोध्या की बाबरी मस्जिद में भगवान राम और अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां प्रकट होने की खबर फैली। घटना के तुरंत बाद नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को तार भेजकर हालात की जानकारी ली। नेहरू को तभी भविष्य की तस्वीर साफ दिखाई दे रही थी।

1950 के दशक की तस्वीर। बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति का दृश्य।

1950 के दशक की तस्वीर। बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति का दृश्य।

नेहरू ने कहा था कि हम गलत नजीर पेश कर रहे हैं। इसका सीधा असर पूरे भारत और खासकर कश्मीर पर पड़ेगा। नेहरू वहां से मूर्तियों को फौरन हटाना चाहते थे। लेकिन सरकारी आदेश के बावजूद फैजाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के.के. नायर ने मूर्तियां हटाने से इनकार कर दिया।

26 दिसंबर 1949 को नेहरू ने पंत को टेलीग्राम किया-

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मैं अयोध्या के घटनाक्रम से चिंतित हूं। मैं उम्मीद करता हूं कि आप जल्दी से जल्दी इस मामले में खुद दखल देंगे। वहां खतरनाक उदाहरण पेश किए जा रहे हैं, जिनके बुरे परिणाम होंगे।

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इसके बाद अयोध्या मामले में 16 जनवरी 1950 को फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में मुकदमा दायर किया गया। रामलला की मूर्ति को पहली बार 1949 में बाबरी मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के नीचे रखा गया था। फिर मूर्ति को सैन्य बलों के साथ दूसरी जगह पर शिफ्ट किया गया। अदालत ने मूर्तियों को हटाने पर रोक लगा दी और पूजा जारी रखने की अनुमति दे दी।

मुसलमानों ने दावा किया कि मूर्तियां प्रकट नहीं हुईं, बल्कि हिंदुओं ने मूर्तियों को वहां रखा था। मुसलमानों ने इसका विरोध किया और दोनों पक्षों ने दीवानी मुकदमा दायर कर दिया। इसके बाद सरकार ने परिसर को विवादित क्षेत्र घोषित कर दिया और गेट बंद कर दिए गए।

16 अप्रैल 1950 को जवाहरलाल नेहरू ने पूर्व केंद्रीय मंत्री गोविंद वल्लभ पंत को एक खत में लिखा-

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मैं देखता हूं कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे, आज सांप्रदायिकता ने उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है। यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं चलता कि वह लकवाग्रस्त है। मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ, वह बहुत बुरा है। लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुईं और हमारे अपने लोगों की मंजूरी से हुईं और वे लगातार यह काम कर रहे हैं।’

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सवाल 5: क्या नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर के उद्धाटन में जाने से रोका था? जवाब: हां। जवाहरलाल नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के सोमनाथ मंदिर के उद्धाटन में जाने पर एतराज जताया था। नेहरू का मानना था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। यहां कई धर्मों के लोग रहते हैं। ऐसे में राष्ट्रपति के किसी मंदिर के कार्यक्रम में जाने से लोगों में गलत संदेश जाएगा।

साल 1024 में महमूद गजनवी ने गुजरात के जूनागढ़ में बने सोमनाथ मंदिर में तोड़फोड़ की। वहां से हीरे-जवाहरात को लूट कर अपने देश गजनी लेकर चला गया था। वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास की किताब ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू’ के मुताबिक, आजादी के बाद 12 नवंबर 1947 को भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल जूनागढ़ पहुंचे। यहां उन्होंने सोमनाथ मंदिर को दोबारा बनाने का आदेश दिया।

12 नवंबर 1947 की तस्वीर। तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल सोमनाथ मंदिर में जनता के साथ।

12 नवंबर 1947 की तस्वीर। तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल सोमनाथ मंदिर में जनता के साथ।

पटेल और कांग्रेस के दूसरे नेता इस प्रस्ताव के साथ महात्मा गांधी के पास गए। गांधी ने इस फैसले का स्वागत किया। उन्होंने सुझाव दिया कि निर्माण में लगने वाला पैसा आम जनता से चंदे के रूप में लिया जाए, लेकिन इसके कुछ वक्त बाद ही महात्मा गांधी की हत्या हो गई और सरदार पटेल का भी निधन हो गया। अब मंदिर की जिम्मेदारी के. एम मुंशी पर आ गई। मुंशी नेहरू सरकार में खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री थे। उन्होंने मंदिर निर्माण का काम पूरा करवाया।

मई 1950 को मुंशी ने राजेंद्र प्रसाद को मंदिर के उद्धाटन समारोह में आने का न्योता दिया। जब नेहरू को इसकी खबर मिली तो उन्होंने प्रसाद के वहां जाने पर ऐतराज जताया, लेकिन प्रसाद नेहरू की इच्छा से सहमत नहीं हुए।

नेहरू के एतराज का जवाब देते हुए प्रसाद ने कहा था, ‘मैं अपने धर्म में विश्वास करता हूं और अपने आप को इससे अलग नहीं कर सकता। मैंने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के उद्धाटन समारोह को सरदार पटेल और नवानगर के जामसाहेब की उपस्थिति में देखा है।’

मई 1950 की तस्वीर। तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उद्धाटन समारोह में पूजा करते हुए।

मई 1950 की तस्वीर। तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उद्धाटन समारोह में पूजा करते हुए।

राजेंद्र प्रसाद के इस जवाब से नेहरू बेहद नाराज हुए थे। नेहरू ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को निर्देश दिए थे कि इस मौके पर राजेंद्र प्रसाद के दिए गए भाषण को सरकारी माध्यमों में कवर न किया जाए।

सवाल 6: क्या नेहरू ने भारत को ऑफर हुई UN के स्थायी सदस्य की कुर्सी चीन को दे दी? जवाब:भारत को दो बार UN का सदस्य बनने का ऑफर मिला था, लेकिन यह ऑफर UN की तरफ से नहीं था। भारत को यह ऑफर अमेरिका और USSR (रूस) ने दिया था।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद शशि थरूर अपनी किताब ‘नेहरू द इन्वेंशन ऑफ इंडिया’ में लिखते हैं कि 2 अगस्त 1950 को अमेरिका ने जवाहरलाल नेहरू को एक इन्फॉर्मल ऑफर दिया। यह ऑफर UN में स्थायी सदस्य बनने के लिए था।

उस समय चीन में सिविल वॉर चल रही थी। ऐसे में अमेरिका चाहता था कि चीन को हटाकर भारत को UN का स्थायी सदस्य बना दिया जाए, लेकिन भारत ने इनकार कर दिया, क्योंकि नेहरू का मानना था कि भारत UN का सदस्य बन जाता तो चीन के साथ रिश्तों में दरार आ जाती। नेहरू ने चीन की वकालत करते हुए उसको सदस्य बनाने का सुझाव दिया था।

अप्रैल 1954 की तस्वीर। UN में जवाहरलाल नेहरू और USSR के स्थायी प्रतिनिधि आंद्रेई वाई विशिंस्की चर्चा करते हुए।

अप्रैल 1954 की तस्वीर। UN में जवाहरलाल नेहरू और USSR के स्थायी प्रतिनिधि आंद्रेई वाई विशिंस्की चर्चा करते हुए।

इसके बाद 1955 में USSR ने भारत को UN का स्थायी सदस्य बनने का दूसरा ऑफर दिया, लेकिन नेहरू ने दूसरी बार भी UN का सदस्य बनने से इनकार कर दिया, क्योंकि दूसरा ऑफर भी इन्फॉर्मल था। 27 सितंबर 1955 को नेहरू ने संसद में UN का ऑफर मिलने की बात को ही खारिज कर दिया था, क्योंकि यह ऑफर अमेरिका और USSR की तरफ से मिला था।

सवाल 7: क्या नेहरू ने नेपाल के भारत में विलय के ऑफर को ठुकरा दिया था? जवाब: 1951 में नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवन वीर विक्रम शाह ने नेहरू को एक ऑफर दिया। यह ऑफर नेपाल को भारत का हिस्सा बनाने का था, लेकिन नेहरू ने इसे ठुकरा दिया।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपनी किताब ‘द प्रेसिडेंशियल इयर्स’ में लिखते हैं कि ‘अगर तब जवाहरलाल नेहरू की जगह पर इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होतीं, तो वो इस मौके को नहीं छोड़तीं और इसे लपक लेतीं।’

नेपाल में राजाओं के शासन को राजतंत्र से बदला गया। नेहरू चाहते थे कि वहां पर लोकतंत्र हो। नेहरू का कहना था कि नेपाल एक आजाद देश है और उसे ऐसे ही बने रहना चाहिए। इसीलिए उन्होंने नेपाल के राजा का ऑफर ठुकरा दिया और नेपाल भारत का हिस्सा नहीं बन पाया, लेकिन नेहरू ने ऐसा किया क्यों?

1950 के दशक की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू, नेपाल के राजा त्रिभुवन वीर विक्रम शाह (बाएं से तीसरे) के साथ।

1950 के दशक की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू, नेपाल के राजा त्रिभुवन वीर विक्रम शाह (बाएं से तीसरे) के साथ।

1950 में भारत और नेपाल के बीच एक संधि हुई थी। तब नेपाल में राणा राजवंश था, जिसे हराकर राजा त्रिभुवन सत्ता में लौटे थे। 1950 में भारत के प्रतिनिधि चंद्रशेखर प्रसाद नारायण सिंह और तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री मोहन शमशेर जंगबहादुर रामा के बीच शांति और मैत्री संधि पर दस्तखत किए गए थे। इस वजह से नेहरू ने नेपाल का विलय करने से इनकार कर दिया था।

सवाल 8: क्या नेहरू की गलती से भारत चीन से युद्ध हार गया? जवाब: भारत और चीन का युद्ध चीनी राष्ट्रपति की सोची-समझी साजिश थी। चीन अरुणाचल प्रदेश और अक्साई चिन पर कब्जा करना चाहता था। इस पर नेहरू ने फॉरवर्ड पॉलिसी की शुरुआत की, लेकिन चीन ने जंग छेड़ दी और भारत पहली जंग हार गया।

‘नेहरू मिथक और सत्य’ के मुताबिक, भारत-चीन युद्ध की शुरुआत 1959 को ही हो गई थी। जब तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा चीन के हमले से बचकर भारत आए थे। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दलाई लामा को पनाह दे दी। इस पर चीनी राष्ट्रपति माउ जिडोंग भड़क गए।

उन्होंने भारत को भी अपना दुश्मन समझ लिया। इससे पहले भारत और चीन के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी। नेहरू को चीन पर इतना भरोसा था कि उन्होंने ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ का नारा बुलंद किया। दूसरी तरफ चीन ने भारत की जमीन पर कब्जा करने की साजिश रचनी शुरू कर दी।

1959 में दलाई लामा के भारत आने के बाद चीन ने अरुणाचल प्रदेश वाले एरिया पर क्लेम करना शुरू कर दिया। अब अगर भारत को अपनी जमीन बचानी थी तो चीन को पीछे धकेलना था। यहां से शुरू हुई नेहरू की ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’।

‘नेहरू मिथक और सत्य’ के मुताबिक, 1962 में फॉरवर्ड पॉलिसी के मुताबिक बॉर्डर वाले इलाकों में भारतीय सेना ने पेट्रोलिंग शुरू कर दी। भारतीय सैनिक अपने हिस्से की जमीन को नापकर बॉर्डर बनाने लगे। यहां पर नेहरू को लगा था कि चीन इसका विरोध नहीं करेगा और जंग की नौबत नहीं आएगी, लेकिन चीन ने भी इसका जवाब बॉ़र्डर पर पेट्रोलिंग के साथ दिया।

10 जुलाई 1962। चीन के करीब 350 जवानों ने भारत के चुसुल पोस्ट को घेर लिया। वहां मौजूद गांव वालों को भारत के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया। इसके जवाब में भारत ने 22 जुलाई 1962 को अपनी फॉरवर्ड पॉलिसी का विस्तार कर दिया। भारतीय सैनिकों ने चीन के सैनिकों को वापस धकेलना शुरू कर दिया। सेना को खतरा होने पर फायर करने के भी आदेश मिल गए। भारत ने चुसुल पोस्ट से चीनी सैनिकों को खदेड़ दिया।

1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों की तस्वीर।

1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों की तस्वीर।

10 अक्टूबर 1962 सुबह के 8 बजे भारतीय सैनिक रोजमर्रा के काम कर रहे थे। तभी 600 चीनी सैनिकों ने 56 भारतीय सैनिकों पर हमला बोल दिया। पहले हमले से तो भारतीय सैनिक बच गए, लेकिन करीब डेढ़ घंटे बाद यानी 9.30 बजे दूसरा हमला हो गया। भारतीय सैनिक जंग के लिए तैयार नहीं थे। न तो हथियार थे और ना गोला-बारूद।

लगभग 1 महीने चले इस युद्ध में भारत के 1,383 सैनिक शहीद हो गए। 1047 सैनिक घायल हुए और 1,696 सैनिक लापता हो गए। 3,968 सैनिकों को चीन ने कैदी बना लिया। जबकि चीन ने इस युद्ध में 722 सैनिक खोए।

सवाल 9: क्या नेहरू ने खुद को ‘भारत रत्न’ दिलवाया था? जवाब: नहीं। जवाहरलाल नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से खुद को भारत रत्न दिलवाने की सिफारिश नहीं की थी। राजेंद्र प्रसाद ने खुद ‘भारत रत्न’ देने की परम्परा को तोड़कर नेहरू को पुरस्कार दिया था।

13 जुलाई 1955। जवाहरलाल नेहरू विदेश यात्रा से भारत लौटे। दिल्ली एयरपोर्ट पर सभी लोग हाथों में गुलदस्ता लेकर नेहरू का स्वागत कर रहे थे। तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद प्रोटोकॉल तोड़कर नेहरू को रिसीव करने पहुंचे थे।

‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू’ के मुताबिक, दो दिन बाद यानी 15 जुलाई 1955 को राष्ट्रपति ने एक विशेष राजकीय भोज रखवाया। डिनर टेबल पर उपराष्ट्रपति और बाकी लोग भी मौजूद थे। अचानक राष्ट्रपति डिनर टेबल पर खड़े हुए और घोषणा शुरू की ‘मैंने नेहरू को भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला ले लिया है।’

प्रसाद नेहरू के लिए कहते हैं, ‘अ ग्रेट आर्किटेक्ट ऑफ पीस इन आवर टाइम’ यानी हमारे समय में शांति का एक महान वास्तुकार। नेहरू चौंक जाते हैं और कहते हैं कि ‘मैं अभी इस सम्मान के लायक नहीं हूं।’

1955 की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू को भारत रत्न से सम्मानित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद।

1955 की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू को भारत रत्न से सम्मानित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद।

इसके बाद राष्ट्रपति ने बताया कि यह फैसला उनका अपना था। राष्ट्रपति ने स्वीकार भी किया कि उन्होंने असंवैधानिक रूप से काम किया क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री या कैबिनेट की सिफारिश के बिना भारत रत्न देने का फैसला ले लिया। भारत सरकार ने 2 जनवरी 1954 को गजट नोटिफिकेशन जारी किया था, जिसमें पुरस्कार चुनने की प्रक्रिया के बारे में कुछ नहीं लिखा था।

परम्परा के अनुसार, भारत रत्न के लिए प्रधानमंत्री नामों का चुनाव करते हैं। इसके बाद यह नाम राष्ट्रपति के पास भेजे जाते हैं। राष्ट्रपति ऑफिशियली इन नामों पर मुहर लगाते हैं। यहां पर यह गौर करना चाहिए कि ये परम्परा है, कोई लिखित कानून नहीं है। इसलिए राष्ट्रपति द्वारा खुद नाम का चुनाव करना परम्परा के विरुद्ध था, कानून के विरुद्ध नहीं।

सवाल 10: क्या नेहरू के एडविना माउंटबेटन के साथ रोमांटिक संबंध थे? जवाब: सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन की इस तस्वीर को देखिए। इस तस्वीर में नेहरू और एडविना एक कार्यक्रम के दौरान मंच साझा कर रहे हैं। नेहरू और एडविना की बढ़ती नजदीकियों से हर कोई वाकिफ था।

1950 के दशक की तस्वीर। एक कार्यक्रम के दौरान मंच साझा करते हुए जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन।

1950 के दशक की तस्वीर। एक कार्यक्रम के दौरान मंच साझा करते हुए जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन।

1946 में माउंटबेटन दंपती के भारत में कदम रखते ही सबसे पहले नेहरू ने उनसे मुलाकात की थी। माउंटबेटन्स के भारत पहुंचने के 10 दिनों के अंदर ही नेहरू और एडविना की नजदीकियों को नोटिस किया जाने लगा था।

वरिष्ठ पत्रकार एम. जे. अकबर अपनी किताब ‘नेहरू द मेकिंग ऑफ इंडिया’ में लिखते हैं, वैसे तो नेहरू पहले भी गवर्नमेंट हाउस के स्विमिंग पूल में तैरने जाते थे, तब कोई इस बारे में बात नहीं करता था, लेकिन जब एडविना भी इस स्विमिंग पूल में नेहरू के साथ तैरती हुईं दिखीं, तो लोगों ने दोनों के संबंधों के बारे में बातें करना शुरू कर दिया।

यह सच था कि एडविना और लॉर्ड माउंटबेटन दोनों की लव मैरिज हुई थी, लेकिन दोनों के बीच लव खत्म हो चुका था, क्योंकि शादी के बाद एडविना के कई सारे हाई प्रोफाइल बॉयफ्रेंड्स बने थे। ऐसे में भारत आने के बाद एडविना की मुलाकात नेहरू से हुई तो एक नए रिश्ते की शुरुआत होने लगी। नेहरू की आकर्षक शख्सियत का असर न सिर्फ एडविना पर पड़ा, बल्कि उनकी बेटी पामेला हैक्स भी नेहरू से बहुत प्रभावित हुईं।

1950 के दशक की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन मजाक करते हुए। साथ में लॉर्ड माउंटबेटन।

1950 के दशक की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन मजाक करते हुए। साथ में लॉर्ड माउंटबेटन।

BBC को दिए एक इंटरव्यू में पामेला ने कहा-

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‘मेरी मां और पंडित जी एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे। एक पुराना मुहावरा ‘सॉलमेट’ उन पर पूरी तरह से लागू होता था। मेरे पिता और मेरी मां बहुत लम्बे समय तक शादी के बंधन में बंधे रहे। इसके बावजूद मेरी मां अकेलेपन की शिकार थीं। तभी उनकी मुलाकात पंडित जी से हुई। जो बहुत ही संवेदनशील, आकर्षक और बेहद मनमोहक थे। शायद यही वजह थी कि मेरी मां उनके प्यार में डूब गईं।’

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‘नेहरू: द मेकिंग ऑफ इंडिया’ के मुताबिक, 1949 से 1952 के बीच सर होमी मोदी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल हुआ करते थे। नेहरू छुट्टियां बिताने नैनीताल आए हुए थे और राज्यपाल मोदी के साथ ठहरे थे। रात के 8 बजे डाइनिंग टेबल पर डिनर लग चुका था।

सर मोदी ने अपने बेटे रूसी मोदी से कहा कि वे नेहरू के कमरे में जाएं और उन्हें कहें कि मेज पर खाना लग चुका है। सब आपका इंतजार कर रहे हैं। जब रूसी नेहरू के कमरे में पहुंचे तो एक अलग ही नजारा था। नेहरू ने एडविना माउंटबेटन को अपनी बांहों में भरा हुआ था। दोनों एक-दूसरे के प्यार में डूबे हुए थे।

जैसे ही नेहरू की आंखें रूसी से मिलीं तो उन्होंने अजीब सा मुंह बनाया। मोदी ने झटपट दरवाजा बंद किया और नीचे आ गए। थोड़ी देर बाद नेहरू कमरे से निकले और डाइनिंग टेबल पर आकर बैठ गए। कुछ देर बाद उनके पीछे एडविना भी बाहर निकल आईं।

1950 के दशक की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन।

1950 के दशक की तस्वीर। जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन।

जब एडविना को नेहरू के लिखे खत मिलते थे, तो लॉर्ड माउंटबेटन कहते थे कि नेहरू ने एडविना को लव लेटर लिखे हैं। कहते हैं इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता। इसलिए नेहरू के न चाहते हुए भी उनके और एडविना के प्यार के चर्चे भारत से लेकर इंग्लैंड तक आम हो गए थे।

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