मुंगेर के चंडिका शक्तिपीठ की कहानी अनंत काल से जुड़ी है। मान्यता है कि माता सती की बाईं आंख इसी जगह गिरी थी। इसलिए मंदिर में माता की आंख की पूजा होती है। मंदिर के प्रधान पुजारी नंदन बाबा और पवन बाबा बताते हैं कि ‘यहां के काजल, पानी और फूल का बड़ा महत्
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काजल से आंख की रोशनी बढ़ती है। पानी शरीर में लगाने से चेचक जैसी बीमारियां ठीक हो जाती हैं। साथ ही मंदिर में चढ़ने वाले अड़हुल के फूल से निसंतान दंपतियों को संतान प्राप्ति होती है।’
महाभारत काल से भी इस शक्तिपीठ की कहानी जुड़ी है। राजा कर्ण ने सिद्धि प्राप्त करने के लिए जिस कड़ाही का इस्तेमाल किया था, वह कड़ाही आज भी गर्भगृह में है। इसी कड़ाही के नीचे मां के बाएं नेत्र के मौजूद होने की मान्यता है। पढ़िए मुंगेर की इस चंडिका शक्तिपीठ की कहानी और इसका महत्व। यह नवरात्र पर हमारी स्पेशल स्टोरी का पार्ट- 4 है।
सबसे पहले जानिए क्या है कर्ण के कड़ाही की कहानी
प्रधान पुजारी नंदन बाबा बताते हैं कि ‘मंदिर की स्थापना अनंत काल से है। कहा जाता है कि इस मंदिर में दानवीर कर्ण माता के परम भक्त थे। मां को प्रसन्न करने के लिए कर्ण कड़ाही में खौलते घी में कूद जाते थे। फिर उससे बाहर निकल जाते थे।
कर्ण की इस भक्ति से प्रसन्न होकर माता उन्हें रोजाना सवा मन सोना देती थी, जो राजा कर्ण गरीबों के बीच रोजाना दान करते थे। कुछ सालों तक इसी तरह सिलसिला चलता रहा।
इसी युग में राजा विक्रमादित्य भी बड़े दानवीर बनना चाह रहे थे, लेकिन दानवीर कर्ण के सवा मन सोना दान करने के कारण उनकी प्रसिद्धि नहीं हो पा रही थी। विक्रमादित्य भेष बदलकर राजा कर्ण के पास सेवक बनकर रहने लगे।
कर्ण की हर गतिविधि पर नजर रखने लगे। उन्होंने देखा कि राजा कर्ण सुबह तीन बजे जागकर मुंगेर के वर्तमान उत्तरवाहिनी गंगा घाट कष्टहरणी घाट में स्नान कर चंडिका स्थान पैदल जाते थे। वहां माता की पूजा अर्चना करते थे।’

गर्भगृह पहाड़ों की चट्टान के नीचे है जिसमें माता विराजमान हैं।
विक्रमादित्य ने कर्ण की विद्या जान ली
देवी के सामने दानवीर कर्ण एक बड़ी घी से खौलती कड़ाही में प्रवेश कर जाते हैं। माता उन्हें वरदान स्वरूप रोजाना सवा मन सोना दे देती। इसी सोने को राजा कर्ण प्रजा के बीच वितरण करते थे। यह सिलसिला प्रतिदिन चलता था। यह विद्या विक्रमादित्य ने जान ली।
नंदन बाबा के अनुसार, एक दिन राजा कर्ण के जागने से पहले विक्रमादित्य ने कष्टहरणी घाट में जाकर स्नान किया। खौलती हुई कड़ाही में कूद गए। जब देवी ने प्रकट होकर विक्रमादित्य से वरदान मांगने की बात कही तो उन्होंने कहा कि मुझे वह पोटली दे दें, जिससे आप सवा मन सोना रोज उत्पन्न करती हैं।
वरदान देकर क्रोधित हो गई देवी
देवी वरदान देने के बाद क्रोधित होकर बोली कि जब तुमने मुझसे सारी शक्तियां ले ली तो यह कड़ाही क्यों रहेगी? देवी ने अपने बाएं पैर से कड़ाही उलट दी। कहा जाता है कि वह कड़ाही अब भी शक्ति चंडिका स्थान के गर्भगृह में है, जो उल्टे रूप में है।
उसी के अंदर माता सती की बाईं आंख मौजूद है। अभी का गर्भगृह पहाड़नुमा कड़ाही के अंदर है। इसे प्राचीन कड़ाही के तौर पर जाना जाता है।
नवरात्रि में लाखों भक्त आते
शक्तिपीठ चंडिका स्थान मुंगेर में गंगा तट किनारे बसा है। देश की 52 शक्तिपीठ में एक है। नवरात्र में पहली पूजा से लेकर नवमी तक इस मंदिर में लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते। पहली और अष्टमी पूजा के दिन मां के नेत्र के दर्शन करते हैं।
देर रात 12 बजे से ही भक्तों का तांता लगा रहता है। दूसरे दिन देर शाम तक मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है। आम दिनों में भी यहां 3 हजार लोग रोज आते हैं। नवरात्रि में सप्तमी से लेकर नवमी तक यह संख्या एक लाख प्रतिदिन से ऊपर हो जाती है।

मां के काजल का बहुत है महत्व
मंदिर के प्रधान पुजारी नंदन बाबा ने बताया कि इस मंदिर में श्रद्धालु जो मन्नत मांगते हैं, माता रानी पूरी करती है। शक्ति पीठ चंडिका स्थान के काजल, फूल और नीर का काफी महत्व है।
पुजारी के मुताबिक जिस इंसान की आंखों की रोशनी कम हो गई या देखने में दिक्कत है तो वे मां के काजल का उपयोग करें तो उनकी कृपा से रोशनी वापस हो जाती है।
एक साल के अंदर मनोकामना पूरी होती है-पुजारी
पुजारी के मुताबिक, जिनको संतान नहीं है, वो अपनी मनोकामना को पूरी करने के लिए माता को पांच अड़हुल के फूल का संकल्प लेकर चढ़ाते हैं। एक साल के अंदर सारी मनोकामना पूर्ण होती है। श्रद्धालु यहां आते और माता को चुनरी चढ़ाते हैं।
कैसे होती है पूजा-अर्चना
पूजा के दौरान सुबह में देवी को पंचामृत से स्नान किया जाता है। गंगाजल से स्नान किया जाता है। फिर चमेली का तेल लगाया जाता। सिंदूर, रोड़ी, चंदन से मांग को सजाया जाता है।
माता के नौ रूप का पान के पत्ते पर भोग लगाया जाता है, जिसमें नौ पान, नौ सुपारी के अलावा माता को पेड़ा, हलवा, फल, खीर, मिठाई, नारियल चढ़ाया जाता।

इसके अलावा रोजाना आरती और धूप, घी, बाती जलाई जाती है। रोजाना माता को नई चुनरी चढ़ाई जाती। 151 या 108 अड़हुल फुल की माला चढ़ाई जाती है। इत्र और लगा हुआ पान अर्पित किया जाता है।
नवरात्र में रोजाना करते माता का श्रृंगार
नवरात्र के दौरान रोजाना शाम की पूजा में मां को नियम से वैदिक मन्त्रोच्चार के साथ गंगा स्नान कराने के बाद फूल से श्रृंगार किया जाता है। माता की पूजा-अर्चना के बाद उन्हें नवैध के रूप में विभिन्न प्रकार के फल सहित अन्य चीजें चढ़ाई जाती। विश्राम के लिए गद्दी और तकिया लगते है।
चंडिका स्थान के पुजारी चंदन बाबा ने बताया कि मां के सामने 365 दिन ज्योति जलती है। उसकी निकली स्याही, राख से काजल तैयार होता है। ये काजल शुद्ध गाय की घी से निकाला जाता है। श्रद्धालु उसी काजल को आंख में नियम पूर्वक लगाते हैं, जिससे उनकी नेत्र की सारी समस्या दूर हो जाती है।

पटना से चंडिका स्थान की दूरी 170 किलोमीटर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए ट्रेन से भी श्रद्धालु आ सकते हैं। ट्रेन से आने पर मुंगेर या जमालपुर स्टेशन उतरेंगे। इसके बाद ई-रिक्शा से मंदिर तक पहुंच सकते हैं।
पटना से श्रद्धालु सड़क मार्ग से आएंगे तो इसके लिए पटना से मोकामा, लखीसराय, सूर्यगढ़ा, मेदनीचौकी होकर मुंगेर आएंगे। श्रद्धालु यात्री बस और निजी वाहन से भी आ सकते हैं। सड़क मार्ग से पटना से बेगूसराय होकर भी मुंगेर आ सकते हैं।
भागलपुर से चंडिका स्थान की दूरी 50KM है। सड़क मार्ग से आएंगे तो सवारी वाहन या निजी वाहन से सीधा मंदिर तक आ सकते हैं। इसके अलावा ट्रेन से जमालपुर या मुंगेर स्टेशन पर उतरकर लोकल वाहन से मंदिर तक जा सकते हैं।
आगे पढ़िए नवरात्र पर हमारी स्पेशल स्टोरी का पार्ट-1, 2 और 3
पटजिरवा मंदिर, जहां गिरे मां सती के पैर के हिस्से:ससुराल जाते वक्त यहां रुकी थी मां सीता की डोली, जानिए नर-मादा पीपल का रहस्य

बेतिया के पटजिरवा सिद्धपीठ का महत्व गुवाहाटी के कामाख्या और बिहार के बड़ी पटन देवी, थावे, तारापीठ जैसे प्रसिद्ध सिद्धपीठों की तरह ही है। इसका इतिहास सतयुग और त्रेता युग से जुड़ा है। मान्यता है कि सतयुग में माता सती ने जलते कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए थे। इसके बाद भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से मां सती के शरीर के 51 खंड किए। जहां-जहां ये अंग गिरे सभी जगहें शक्तिपीठ के रूप में जानी जाती हैं। कहा जाता है कि यहां माता सती के पैर के कुछ हिस्से गिरे थे। बाद में वहां नर-मादा दो पीपल के पेड़ उपजे, जो शिव और शक्ति के अर्धनारीश्वर स्वरूप के रूप में यहां विराजमान हैं। इसके बाद इस जगह का नाम पैरगिरवा पड़ा। पूरी रिपोर्ट पढ़िए
माता के दर्शन पर अड़ा था राजा; भक्त रहषु के बुलावे पर कामाख्या से आईं; सिर चीरकर निकलीं और साम्राज्य खत्म

गोपालगंज की थावे भवानी मंदिर की कहानी 500 साल से भी ज्यादा पुरानी है। कहा जाता है कि बाघ को बांधकर खेती कराने वाले भक्त रहषु के बुलावे पर माता कामाख्या से खुद चलकर आई थीं। आने के दौरान मां 3 जगह रुकीं। उन जगहों पर आज प्रसिद्ध मंदिर बने हुए हैं। इनमें कोलकाता की दक्षिणेश्वर काली, पटना की बड़ी पटन देवी और सारण का आमी मंदिर शामिल है।
मान्यता है कि रहषु भक्त को माता के दर्शन कराने के लिए राजा मनन सेन ने मजबूर किया था। रहषु ने कहा कि वो आईं तो आपका साम्राज्य खत्म हो जाएगा, लेकिन मनन सेन नहीं माने। आखिरकार रहषु भक्त के बुलावे पर माता आईं और मनन सेन को दर्शन दी। राजा को तो मोक्ष मिला, लेकिन उसका साम्राज्य खत्म हो गया। पढ़िए भक्ति की अनोखी कहानियों को अपने में समेटे थावे मंदिर की पूरी कहानी।
बड़ी पटन देवी मंदिर में है योनी कुंड:मान्यता- नवमी पर 4 फीट बढ़ जाती है हवन कुंड की ऊंचाई; सीधे पाताल पहुंचती है आहुति

पटना के बड़ी पटन देवी मंदिर के योनी कुंड हवन कुंड का वर्णन इतिहास के पन्ने में है। मंदिर के महंत विजय शंकर गिरी बताते हैं कि ‘इस हवन कुंड का निर्माण सतयुग में ही हो गया था। ऐसी मान्यता है कि यह हवन कुंड माता सती के पाताल लोक से सीधा संबंध स्थापित करता है। यही कारण है कि इस हवन कुंड में डाली गई सामग्री सीधे पाताल लोक में चली जाती है। मां का पाताल लोक से सीधा जुड़ाव है और माता पार्वती की महिमा अपरंपार है।
नवरात्र पूजा के नवमी के दिन यहां हवन कुंड में हवन करने वाले श्रद्धालुओं की काफी लंबा तांता लगा रहता है। मान्यता है कि नवमी के दिन हवन के दौरान हवन करने आए लोगों से हवन कुंड की ऊंचाई लगभग 4 फीट ऊंची हो जाती है और फिर यह सामग्री स्वत भूगर्भ में चली जाती है। पढ़िए जिस मंदिर के नाम पर राजधानी का नाम पटना पड़ा उसकी पूरी कहानी। ये हमारी नवरात्र की स्पेशल स्टोरी का पार्ट-1 है।