Thursday, June 12, 2025
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जहां नक्सली बसवाराजू मारा, उस कलेकोट पहाड़ पर अब क्या: न रास्ते, न नेटवर्क; ऑपरेशन ब्लैक-फॉरेस्ट के निशान बाकी, गांव में रुकने के लिए पंचायत


छत्तीसगढ़ का अबूझमाड़। नाम का मतलब ही है ऐसी पहाड़ियां जो अबूझ हैं यानी जो अज्ञात हैं, जहां रास्ता खोजना नामुमकिन है। चारों तरफ हरियाली, डरावना सन्नाटा और सबसे बड़ा डर ये कि चलते हुए कहीं पैर किसी लैंडमाइन पर न पड़ जाए। यहां से 100 किमी दूर सुकमा में दो द

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ये नक्सलगढ़ है, छत्तीसगढ़ के जिले-नारायणपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा। सरकार का दावा है कि ये अब ढह रहा है। 2026 तक पूरी तरह खत्म हो जाएगा। यहां न रास्ते हैं, न मोबाइल नेटवर्क। यहां रहने वाले आदिवासियों को राशन लेने के लिए भी 2 दिन पैदल चलकर शहर जाना पड़ता है। यहां जारी है सेंट्रल फोर्सेज का ‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’।

अबूझमाड़ का कलेकोट पहाड़ करीब 10 किलोमीटर में फैला है। 1300 मीटर से ज्यादा ऊंचा है। 21 मई, 2025 को यहां सिक्योरिटी फोर्स ने नक्सलियों को घेर लिया। खूब फायरिंग हुई। ऑपरेशन के बाद नक्सलियों की डेडबॉडी गिननी शुरू कीं, तो गिनती 27 पर रुकी। इन्हीं में शामिल था नक्सलियों का टॉप लीडर नंबला केशव राव उर्फ बसवाराजू। बसवाराजू प्रतिबंधित संगठन CPI (माओवादी) का जनरल सेक्रेटरी था।

दैनिक भास्कर की टीम इसी अबूझमाड़ और कलेकोट पहाड़ पहुंची। बसवाराजू के मारे जाने के बाद अमित शाह गृह मंत्री ने दावा किया कि नक्सलवाद अब खात्मे की तरफ है। अगले कुछ दिन हम आपको नक्सलगढ़, ऑपरेशन ब्लैकफॉरेस्ट, जान पर खेल रही सिक्योरिटी फोर्सेज और इस युद्ध में पिस रहे आदिवासियों की कहानियां सुनाएंगे। आज पढ़िए, अबूझमाड़ का रास्ता कितना मुश्किल…

रामायण का दंडकारण्य बन गया नक्सलियों का सेफ जोन बसवाराजू का एनकाउंटर नारायणपुर जिले में गुंडेकोट गांव के पास हुआ था। डिस्ट्रिक्ट हेडक्वॉर्टर से करीब 120 किमी दूर बसा गुंडेकोट अबूझमाड़ के घने जंगलों में छोटा सा गांव है। गुंडेकोट गांव भले नारायणपुर से 120 किमी दूर है, लेकिन यहां पहुंचने में दो दिन लगते हैं। दैनिक भास्कर की टीम कच्चे खतरनाक रास्तों पर 7 घंटे बाइक और करीब 6 घंटे पैदल चलकर इस गांव तक पहुंची।

हमारा सफर दिल्ली से शुरू हुआ। हम रायपुर पहुंचे। नारायणपुर जिला रायपुर से 244 किमी दूर है। ये कभी बस्तर जिले का हिस्सा था। 2007 में इसे अलग जिला बना दिया गया। रामायण में इसी जगह को दंडकारण्य कहा गया।

घने जंगलों और ऊंचे पहाड़ों वाला अबूझमाड़ नारायणपुर में ही है, जिसे नक्सली अपने लिए सेफ जोन मानते हैं। नारायणपुर से हमारा सफर सुबह 7 बजे शुरू हुआ। हमें ओरछा पहुचंना था।

ओरछा की ओर बढ़ते हुए रास्ते में ये गेट मिलता है। ओरछा को अबूझमाड़ का एंट्री गेट भी कहा जाता है।

ओरछा की ओर बढ़ते हुए रास्ते में ये गेट मिलता है। ओरछा को अबूझमाड़ का एंट्री गेट भी कहा जाता है।

ओरछा की ओर बढ़ते ही उखड़ी सड़कें मिलने लगती हैं। नारायणपुर से ओरछा तक 70 किमी जाने में हमें करीब 5 घंटे लग गए। ओरछा पहुंचने पर हमने लोकल लोगों से मदद मांगी, ताकि अबूझमाड़ के अंदरूनी इलाकों में जा सकें। डर की वजह से कोई तैयार नहीं हुआ।

डर जंगली जानवरों का तो है ही, यहां नक्सलियों ने जगह-जगह बारूदी सुरंगें भी बिछा रखी हैं। यानी जंगल में पैर रखने पर भी मौत तय है। सुकमा में ASP आकाश राव के साथ यही हुआ था।

आखिरकार गांववाले हमें दो बाइक देने के लिए तैयार हो गए। रास्ते अनजान थे, लेकिन हम आगे बढ़ गए। ओरछा तहसील की बाहरी सीमा पर पक्की सड़क खत्म हो जाती है। इसके बाद करीब 5 किमी तक मिट्टी को समतल कर कच्ची सड़क बनाई जा रही है। इससे आगे मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करता।

रास्ते में गश्त करते सिक्योरिटी फोर्स (CRPF) के जवान मिल गए। बोले- इन इलाकों से नक्सलियों को खदेड़ दिया है। जल्दी ही यहां कैंप बनाएंगे, ताकि नक्सली दोबारा पैर न जमा सकें। सड़क बनवा रहे अधिकारियों ने बताया कि बरसात शुरू होने से पहले ज्यादा से ज्यादा काम पूरा करना है।

अब तक कच्चे रास्ते पर भी बाइक ठीक-ठाक चल रही थी, लेकिन 5 किमी बाद आगे बढ़ना मुश्किल हो गया। आगे ऐसी सड़क थी, जिसे नक्सलियों ने ब्लास्ट करके जगह-जगह से उखाड़ दिया था। इस पथरीले रास्ते पर लगभग डेढ़ घंटे चलने के बाद हम टोंडरबेड़ा गांव पहुंचे। हमने गांव के लोगों से बात करनी चाही, लेकिन वे हिंदी नहीं समझ पाए। इसलिए बात भी नहीं हो पाई।

यहां से आगे का सफर पथरीले रास्तों, घने जंगलों और रेतीली पगडंडियों से भरा है। कई जगह नाले भी पार करने पड़े। सबसे ज्यादा दिक्कत इन्हीं जगहों पर हुई।

ओरछा से आगे कच्ची सड़कें भी खराब होती जाती हैं। ऐसे रास्ते पैदल तो पार किए जा सकते हैं, लेकिन बाइक के साथ बैलेंस बनाना मुश्किल हो गया।

ओरछा से आगे कच्ची सड़कें भी खराब होती जाती हैं। ऐसे रास्ते पैदल तो पार किए जा सकते हैं, लेकिन बाइक के साथ बैलेंस बनाना मुश्किल हो गया।

आदेर गांव, जहां पहली बार नक्सलियों की निशानियां दिखीं रास्ते में हमें आदेर गांव मिला। यहां पत्थरों से बनी और लाल रंग से पुती एक समाधि दिखी। समाधि पर ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)’ लिखा है।

आदेर गांव के बाहर बनी समाधि। इसके सही सलामत होने से अंदाजा हो गया कि इस इलाके में नक्सलियों का असर अब भी है।

आदेर गांव के बाहर बनी समाधि। इसके सही सलामत होने से अंदाजा हो गया कि इस इलाके में नक्सलियों का असर अब भी है।

यहां कुछ देर रुकने के बाद हम आगे बढ़े। आगे बढ़ते हुए रास्ते में एक खास बात दिखी। सड़क के बीचों-बीच कई किलोमीटर तक एक तय दूरी पर पेड़ की टहनियां रखी गई थीं। हमें समझ नहीं आया कि इन्हें क्यों रखा गया है।

(नारायणपुर लौटने पर हमने एक पुलिस अधिकारी से इसके बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि ये एक्टिव बारूदी सुरंगें थीं। नक्सली अपने लोगों को अलर्ट करने के लिए माइंस पर ऐसे निशान रखते हैं।)

आदेर से आगे बढ़ते हुए रास्तें में इस तरह टहनियां रखी दिखीं। इनका मतलब है कि इस रास्ते में बारूदी सुरंग दबी हैं।

आदेर से आगे बढ़ते हुए रास्तें में इस तरह टहनियां रखी दिखीं। इनका मतलब है कि इस रास्ते में बारूदी सुरंग दबी हैं।

ढोंडरबेड़ा गांव, जहां नक्सलियों ने टंकी तक नहीं बनने दी

हम घने जंगलों से गुजरते हुए बाइक से करीब 4 घंटे आगे बढ़ते रहे। बसवाराजू के एनकाउंटर वाली जगह करीब थी। हम कुछ देर ढोंडरबेड़ा गांव में रुके। यहां का माहौल देखकर बिल्कुल नहीं लगा कि आसपास कोई बड़ा एनकाउंटर हुआ है। लोग हर साल होने वाली देवी की पूजा में जुटे थे। आसपास के गांवों से भी लोग आए थे।

ढोंडरबेड़ा गांव में उत्सव जैसा माहौल था। झोपड़ीनुमा मंदिर में देवी की पूजा चल रही थी। बाहर महिलाएं डांस कर रही थीं।

ढोंडरबेड़ा गांव में उत्सव जैसा माहौल था। झोपड़ीनुमा मंदिर में देवी की पूजा चल रही थी। बाहर महिलाएं डांस कर रही थीं।

करीब 130 लोगों की आबादी वाले इस गांव में सुविधाओं के नाम पर सिर्फ पानी की टंकी का स्ट्रक्चर है। गांव के अजय ध्रुव बताते हैं कि नक्सलियों के डर से ढांचे पर कभी टंकी नहीं लगाई गई। गांव में एक स्कूल भी है, लेकिन टीचर कभी-कभार ही आते हैं। वजह वही, नक्सलियों का डर।

ढोंडरबेड़ा गांव के लोग पीने का पानी पास में बहते बरसाती नाले से लाते हैं। गांव में टंकी बननी थी, लेकिन नहीं बन पाई।

ढोंडरबेड़ा गांव के लोग पीने का पानी पास में बहते बरसाती नाले से लाते हैं। गांव में टंकी बननी थी, लेकिन नहीं बन पाई।

गांव के बाहरी हिस्से में जगह-जगह बिजली के खंभे भी पड़े मिले। गांव के गुड्‌डूराम ने बताया, ‘गांव तक बिजली आनी थी, लेकिन नक्सलियों ने खंभे नहीं लगने दिए। पानी का कोई जरिया नहीं है। हम लोग गांव के पास बहते नाले से पानी पीते हैं।’

कुड़मेल में नक्सली नेताओं की समाधियां, हॉस्पिटल में डॉक्टर नहीं

ढोंडरबेड़ा में कुछ देर रुकने के बाद हम कुड़मेल गांव पहुंचे। ये जाटलूर ग्राम पंचायत में आता है। करीब 150 लोगों की आबादी वाले इस गांव में 40 से ज्यादा घर हैं। यहां दो साल पहले एक हॉस्पिटल खुला था, लेकिन आज तक डॉक्टर नहीं आया।

कुड़मेल गांव में हॉस्पिटल की बिल्डिंग तैयार है, लेकिन डॉक्टर न होने से बंद पड़ी है।

कुड़मेल गांव में हॉस्पिटल की बिल्डिंग तैयार है, लेकिन डॉक्टर न होने से बंद पड़ी है।

हालांकि यहां लड़कियों के लिए आश्रमशाला है, जो चल रही है। गांव के बीच दो नक्सली नेताओं की समाधियां बनी हैं। इन पर उनके नाम भी लिखे हैं।

कुड़मेल गांव में बनी नक्सलियों की समाधियां। इन पर लिखा है अमर शहीद कॉमरेड ममता अमर रहें, शहीद कॉमरेड राजू दादा अमर रहें।

कुड़मेल गांव में बनी नक्सलियों की समाधियां। इन पर लिखा है अमर शहीद कॉमरेड ममता अमर रहें, शहीद कॉमरेड राजू दादा अमर रहें।

गांव में सन्नाटा पसरा था। पूछने पर गांव में रहने वालीं लक्ष्मी मेटे ने बताया कि दिन में पुरुष घरों से बाहर ही रहते हैं।

इससे आगे करीब तीन घंटे थका देने वाले सफर के बाद शाम 6 बजे हम बोटेर गांव पहुंचे। रास्ते में तीन बड़े नाले और लकड़ी से बना एक पुल नजर आया। पुल देखकर समझ आया कि उसे जानबूझकर तोड़ा गया था, ताकि कोई आगे न जा सके।

बोटेर गांव से पहले लकड़ी का ये पुल आता है। कभी इसका इस्तेमाल नदी पार करने में होता था, अब गांव के लोग पानी से होकर ही निकलते हैं।

बोटेर गांव से पहले लकड़ी का ये पुल आता है। कभी इसका इस्तेमाल नदी पार करने में होता था, अब गांव के लोग पानी से होकर ही निकलते हैं।

बोटेर से कुछ किलोमीटर पहले खूबसूरत पहाड़ दिखने लगे। ये जगह किसी हिल स्टेशन की तरह लगती है। फिर भी यहां पसरा सन्नाटा डराता है।

बोटेर के आसपास का इलाका जंगलों और पहाड़ों की वजह से काफी खूबसूरत लगता है।

बोटेर के आसपास का इलाका जंगलों और पहाड़ों की वजह से काफी खूबसूरत लगता है।

शाम ढलने से पहले हमें बोटेर पहुंचना था, जिसकी वजह सिर्फ नक्सली ही नहीं, बल्कि जंगली जानवर और जगह-जगह बिछी बारूदी सुरंगें भी थीं। बसवाराजू की मौत के बाद लौट रही एक टीम एक्टिव माइंस फील्ड की चपेट में आ गई थी। इससे DRG के एक जवान की मौत हो गई थी।

बोटेर में पंचायत बैठी, तब मिली गांव में रुकने की इजाजत

बोटेर 27 परिवारों का गांव है। यहां सिर्फ कारुराम मंडावी ही हिंदी समझ और बोल पाते हैं। 32 साल के कारुराम 5वीं तक पढ़े हैं। वे गांव के स्कूल में बच्चों के लिए खाना बनाते हैं।

बोटेर का ये स्कूल एक झोपड़ी में बना है। गांववाले बताते हैं कि स्कूल में महीने में सिर्फ एक बार टीचर आते हैं।

बोटेर का ये स्कूल एक झोपड़ी में बना है। गांववाले बताते हैं कि स्कूल में महीने में सिर्फ एक बार टीचर आते हैं।

हम बाहर से आए थे और कोई भी लोकल व्यक्ति हमारे साथ नहीं था। यही वजह है कि शुरुआत में गांववाले हमारे पास आने से बचते रहे।

हमने कारुराम को समझाया कि हमें सिर्फ एक रात यहां रुकना है। इसके बाद आनन-फानन में एक पंचायत बुलाई गई और कारुराम के समझाने के बाद गांव के लोग हमें रुकने देने के लिए तैयार हो गए। कारुराम ने ही हमारे लिए खाना बनाया। खाने में सिर्फ चावल और अचार था।

आगे का सफर बसवाराजू के एनकाउंटर वाली जगह का रात बोटेर में बिताने के बाद सुबह 5 बजे हम आगे के लिए निकल गए। यहां से हमें करीब 15 किलोमीटर पैदल जाना था। रास्ते में 900 मीटर से ज्यादा ऊंचे तीन पहाड़ पार करने थे। हमने कारुराम को भी एनकाउंटर साइट पर चलने के लिए राजी कर लिया। बोटेर से निकलते ही करीब एक किलोमीटर बाद कच्चा रास्ता खत्म हो गया।

बोटेर से गुंडेकोट का रास्ता बारिश की वजह से और खराब हो गया।

बोटेर से गुंडेकोट का रास्ता बारिश की वजह से और खराब हो गया।

नक्सली लीडर बसवाराजू के एनकाउंटर वाली जगह तक पहुंचने का रास्ता ही सबसे मुश्किल था। जिस गुंडेकोट गांव में यह ऑपरेशन किया गया था, वहां जाने का रास्ता गूगल मैप पर भी नहीं है। हम सिर्फ कारुराम के भरोसे थे।

पहाड़ी पर चढ़ाई करीब तीन किमी लंबी थी। डेढ़ घंटे चलने के बाद हम पहले पहाड़ के टॉप पर पहुंचे। सांसें बुरी तरह फूल रही थीं। पैर जवाब दे रहे थे। कुछ देर सुस्ताने के बाद अगला फेज शुरू हुआ। हमें तीन किमी की ढलान वाली घाटी उतरना था। यहां एक-दो दिन पहले ही बरसात हुई थी। इसलिए रास्ता फिसलन भरा और खतरनाक हो गया था।

हम डंडों का सहारा लेकर नीचे उतरे। एक-एक कदम संभलकर रखना था, क्योंकि फिसलने का मतलब था पत्थरों पर गिरना। करीब 45 मिनट बाद हम खाई तक पहुंच गए। यहां बह रहे बरसाती नाले के किनारे आराम किया, पानी पिया। 15 मिनट रुकने के बाद हम आगे के लिए निकले।

अब सामने एक और पहाड़ था। एक अधिकारी ने बताया था कि इसकी ऊंचाई करीब 1300 से 1500 मीटर है। थके होने की वजह से ये चढ़ाई और ज्यादा मुश्किल थी।

अगले दो घंटे हम लगातार चलते रहे। गुंडेकोट की ओर बढ़ते हुए रास्ते में एक जगह पर खाने के पैकेट बिखरे मिले। इनमें ज्यादातर आंगनबाड़ी में मिलने वाले दलिया के पैकेट थे। इनके बारे में पूछने पर पता चला कि बसवाराजू के एनकाउंटर से पहले सिक्योरिटी फोर्स के जवान इसी जगह रुके थे।

चलते-चलते सुबह के 10 बज चुके थे। आखिर हम अबूझमाड़ की दूसरी पहाड़ी के टॉप पर पहुंच गए। यहां से चारों ओर सिर्फ घने जंगल दिखते हैं। यहां से गुंडेकोट गांव नजदीक ही था। बोटेर से करीब 6 घंटे पैदल चलने के बाद हम गुंडेकोट पहुंच गए। यह जंगलों और पहाड़ों के बीच बसा है।

13 परिवारों वाला गुंडेकोट गांव, न पक्की सड़क है, न स्कूल

बीमार पड़ने पर लोगों को बांस की कांवड़ पर लादकर ओरछा या बीजापुर के भैरमगढ़ ले जाना पड़ता है। महीने भर का राशन और दूसरा जरूरी सामान लाने के लिए गांववाले पैदल ओरछा जाते हैं। इसमें उन्हें करीब 4 दिन लगते हैं। पीने का पानी एक गड्ढे से मिलता है।

गुंडेकोट से करीब 4 किमी पैदल चलकर हम कलेकोट जंगल में एनकाउंटर वाली जगह पहुंच गए। ये इलाका दंतेवाड़ा, नारायणपुर और बीजापुर जिले के बॉर्डर पर है। यहां अब खामोशी पसरी है।

बसवाराजू के एनकाउंटर को भले दो हफ्ते बीत गए, लेकिन इसके सबूत अब भी हैं। चारों तरफ गोलियों के खाली खोखे बिखरे हुए हैं। पेड़ों पर गोलियों के अनगिनत निशान हैं।

एनकाउंटर वाली जगह पड़े गोलियों के खोखे, जिनसे पता चलता है कि एनकाउंटर के दौरान कितनी फायरिंग हुई होगी।

एनकाउंटर वाली जगह पड़े गोलियों के खोखे, जिनसे पता चलता है कि एनकाउंटर के दौरान कितनी फायरिंग हुई होगी।

यहीं स्नैक्स के पैकेट, वैसलीन, दवाएं, पानी की बोतलें, पेन, डायरी, फर्स्ट एड किट, माउथ वॉश, हेयर कलर, टॉर्च, चार्जर केबल, साबुन, डेंटल किट, सर्जरी ब्लेड, चम्मच, सैनिटरी पैड और जूते पड़े मिले। यहीं एक जैकेट और काली पैंट भी मिली।

एनकाउंटर वाली जगह पर नक्सलियों के कपड़े भी पड़े हैं। हमारे साथ आए एक गांववाले ने बताया कि इस तरह की पैंट और जैकेट बड़े नक्सली नेता पहनते हैं।

एनकाउंटर वाली जगह पर नक्सलियों के कपड़े भी पड़े हैं। हमारे साथ आए एक गांववाले ने बताया कि इस तरह की पैंट और जैकेट बड़े नक्सली नेता पहनते हैं।

करीब डेढ़ घंटे एनकाउंटर साइट पर रहने के बाद हम लौटने लगे। थकान बहुत ज्यादा हो रही थी, टीम के एक साथी की तबीयत बिगड़ने लगी, इसलिए वापसी का सफर ज्यादा मुश्किल लगा। वापस बोटेर पहुंचने में हमें 6 घंटे लगे। रात हमने इसी गांव में बिताई।

अगले दिन बोटेर से बाइक से निकले और 7 घंटे में ओरछा पहुंचे। यहां पहुंचते-पहुंचते शाम हो चुकी थी। हमारे पास नारायणपुर लौटने का कोई साधन नहीं था। गांव में BSNL का नेटवर्क आता है, लेकिन वो भी काम नहीं कर रहा था। हमें एक रात ओरछा में ही रुकना पड़ा। अगली सुबह निकले और आखिर तीन दिन बाद दोबारा नारायणपुर पहुंचे।

स्टोरी के अगले पार्ट में पढ़िए बसवाराजू के एनकाउंटर की इनसाइड स्टोरी, 13 जून यानी शुक्रवार को।

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कैमरामैन: अजित रेडेकर ……………………………………



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