Wednesday, May 7, 2025
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पिस्टल देकर सरेंडर, फिर फूट-फूटकर रोए जनरल नियाजी: 13 दिन की जंग में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े किए


भारत-पाक जंग शुरू हुए 12 दिन हो चुके थे। पूर्वी पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी के कैंप में भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जैक फर्ज राफेल जैकब दाखिल हुए। उन्होंने नियाजी को सरेंडर की शर्तें पढ़कर सुनाईं और फैसला लेने के लिए 30 मिनट का समय दिय

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जनरल जैकब की ऑटोबायोग्राफी ‘एन ओडिसी इन वॉर एंड पीस’ के मुताबिक नियाजी के पास अभी-भी ढाका में 26 हजार से ज्यादा फौजी थे, वहीं भारत के पास केवल 3 हजार, वो भी ढाका से 30 किलोमीटर दूर थे। जनरल जैकब अपने हाव-भाव से नियाजी को दबाव में लेना चाहते थे।

30 मिनट बाद जैकब फिर लौटे तो वहां खामोशी थी। सरेंडर के दस्तावेज मेज पर पड़े थे। जैकब ने नियाजी से पूछा- जनरल क्या आप सरेंडर एक्सेप्ट करते हैं। नियाजी चुप थे। जैकब ने यही सवाल तीन बार दोहराया। फिर भी नियाजी चुप थे। जैकब ने दस्तावेज उठाया और कहा- आप चुप हैं। मैं इसे आपकी सहमति मानता हूं।

इतना सुनते ही नियाजी फूट-फूटकर रोने लगे। अब सवाल यह था कि जनरल नियाजी किस चीज से सरेंडर करेंगे। बेल्ट या कैप उतारने में बहुत ज्यादा बेइज्जती लगती। ऐसे में तय हुआ कि जनरल नियाजी कमर में पिस्टल लगाएंगे और उसे ही सरेंडर करेंगे।

इसके बाद रेसकोर्स में एक मेज और दो कुर्सियां लगाई गईं। कुछ ही देर में भारत की पूर्वी सेना के कमांडर जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पहुंचे। उन्हें भारत-पाक की सेना ने संयुक्त रूप से सलामी दी। इसके बाद जनरल नियाजी ने सरेंडर के डॉक्यूमेंट पर दस्तखत किए, अपनी कमर में लगी पिस्टल सौंपी और करीब 93 हजार सैनिकों के साथ सरेंडर कर दिया।

दुनिया के इस सबसे बड़े सरेंडर के साथ भारत-पाकिस्तान के बीच छिड़ी तीसरी जंग खत्म हो गई। पाकिस्तान दो हिस्सों में बंट गया और एक नए आजाद मुल्क बांग्लादेश का जन्म हुआ।

दैनिक भास्कर डिजिटल की सीरीज ‘पाकिस्तान पर फतह’ के तीसरे एपिसोड में आज कहानी 1971 जंग की…

1971 में करीब 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने सरेंडर किया था।

पाकिस्तान में हुए चुनावों ने रखी युद्ध की नींव

1947 के बंटवारे में पाकिस्तान के हिस्से मौजूदा बांग्लादेश भी था। तब उसे पूर्वी पाकिस्तान कहते थे। मुस्लिम आबादी होने के बावजूद ये एक दूसरे से काफी अलग थे। पूर्वी पाकिस्तान के मुस्लिम बांग्ला बोलते थे और पश्चिमी पाकिस्तान के उर्दू। ऐसे में 1948 में जब उर्दू को पाकिस्तान की एकमात्र राष्ट्रीय भाषा घोषित किया गया, तो पूरे ईस्ट पाकिस्तान में विरोध हुआ।

पाकिस्तान की 55% आबादी ईस्ट पाकिस्तान में रहती थी, लेकिन देश के बजट का सिर्फ 20% ही इन पर खर्च होता। देश चलाने वाले नेता वेस्ट में बैठे होते थे, जो ईस्ट की जनता को दूसरे दर्जे का समझते थे।

1970 के आम चुनावों में अवामी लीग के शेख मुजीबुर्रहमान ने 313 में से 167 सीटें जीतकर बहुमत हासिल कर लिया। पाकिस्तान के इतिहास में ये पहला मौका था जब ईस्ट पाकिस्तान का एक बंगाली मुस्लिम पाकिस्तान में सरकार बनाने जा रहा था। राष्ट्रपति याह्या खान को ये मंजूर नहीं था।

1971 में ढाका में अवामी लीग के लिए चुनावी रैली में शेख मुजीबुर्रहमान।

1971 में ढाका में अवामी लीग के लिए चुनावी रैली में शेख मुजीबुर्रहमान।

राष्ट्रपति याह्या खान मुजीबुर्रहमान को सत्ता का ट्रांसफर टालते रहे। इस बीच शेख के नेतृत्व में अलग बांग्लादेश बनाने की मांग उठने लगी। मामला सुलझाने पहुंचे याह्या खान 25 मार्च 1971 को अचानक ढाका से निकल गए।

उनके कराची पहुंचते ही ईस्ट पाकिस्तान के गवर्नर टिक्का खान के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन सर्चलाइट लॉन्च कर दिया। इस ऑपरेशन के तहत बांग्लादेश की मांग करने वाले नेताओं, छात्र कार्यकर्ता, बंगाली अफसर, पुलिस से लेकर आम बंगाली मुसलमानों और हिंदुओं को पाक सेना मौत के घाट उतार रही थी।

सुबह होने तक ढाका में 7,000 लोगों की हत्या हो चुकी थी। 26 मार्च की सुबह मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर वेस्ट पाकिस्तान ले जाया गया। बांग्लादेश सरकार के डेटा के हिसाब से ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू होने से जंग खत्म होने तक 9 महीने में करीब 30 लाख लोगों को मारा गया। 2.5 से 4 लाख महिलाओं का रेप हुआ और करीब 1 करोड़ बांग्लादेशियों ने शरण के लिए भारत का रुख किया।

मैं आपको हार की 100% गारंटी देता हूं: सैम मानेकशॉ

एक तरफ पाकिस्तानी आर्मी से मुकाबला करने ईस्ट पाकिस्तान के सैनिकों, पुलिसकर्मियों और आजादी की मांग करने वालों ने अपनी मुक्ति बाहिनी सेना बना ली थी। वहीं बांग्लादेश के हालातों के चलते पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में बड़ी संख्या में रिफ्यूजी आते जा रहे थे।

ऑपरेशन सर्चलाइट के बाद ईस्ट पाकिस्तान से हजारों की संख्या में लोग भारत शरण लेने आए।

ऑपरेशन सर्चलाइट के बाद ईस्ट पाकिस्तान से हजारों की संख्या में लोग भारत शरण लेने आए।

इन हालातों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 28 अप्रैल 1971 को कैबिनेट मीटिंग बुलाई, जिसमें आर्मी चीफ सैम मानेकशॉ और रॉ चीफ आर. एन. काओ भी मौजूद थे। इंदिरा गांधी कहती हैं कि हमें पाकिस्तान के अंदर जाना चाहिए। जवाब में मानेकशॉ कहते हैं- इसका मतलब युद्ध होगा। इंदिरा ने कहा- मुझे उससे फर्क नहीं पड़ता। जवाब में सैम ने सीधे कह दिया- मैं अभी युद्ध के लिए तैयार नहीं हूं। फिर भी अगर आप युद्ध चाहती हैं तो मैं आपको हार की 100% गारंटी देता हूं। अब अपने ऑर्डर दीजिए, प्राइम मिनिस्टर।

मीटिंग खत्म होने के बाद इंदिरा सैम मानेकशॉ को रुकने को कहती हैं। वे रुक कर कहते हैं- आप कहें तो मैं अपना इस्तीफा भेज सकता हूं। इंदिरा जवाब देती हैं- मैं इस्तीफा नहीं मांग रही। इस पर सैम कहते हैं- मेरा काम है लड़ना। अगर 1962 में मैं आपके पिता का कमांडर इन चीफ होता तो आर्मी को हार नहीं देखनी पड़ती। तब के चीफ में इतना साहस नहीं था कि वे प्रधानमंत्री को बता सकें कि आर्मी तैयार नहीं है। सैम मानेकशॉ ने इंदिरा को बताया कि नवंबर तक उनकी सेना युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार होगी।

रॉ ने पाकिस्तानी राष्ट्रपति का फोन टैप किया, इंडिया को पूरा प्लान पता था

रॉ ईस्ट पाकिस्तान में मुक्ति बाहिनी को युद्ध की ट्रेनिंग दे रहा था। पाकिस्तान में उसके एजेंट्स नजर बनाए हुए थे। आर. एन. काओ के डिप्टी शंकरन नायर ने अपने एजेंट्स के जरिए पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान के ऑफिस टेलिफोन को टैप कर लिया था।

अनुशा नंदकुमार और संदीप साकेत की किताब- ‘द वॉर दैट मेड रॉ’ के मुताबिक नवंबर में ही रॉ को पता चल गया था कि पाकिस्तान युद्ध की तैयारी कर रहा है। बस यह पता चलना बाकी था कि हमला कैसा और कब होगा। तभी कराची से कोड भाषा में एक मैसेज आता है, जिसे पढ़ते ही आर. एन. काओ समझ गए कि पाकिस्तान 1 दिसंबर को एयर स्ट्राइक करेगा।

रातों-रात सभी एयरक्राफ्ट्स को शेल्टर कर दिया गया। सेना सभी मोर्चों पर अलर्ट हो गई, लेकिन 1 दिसंबर को कोई हमला नहीं होता। इंतजार में आदमपुर और हलवारा के बेस पर फाइटर पायलट 48 घंटों से कॉकपिट में बैठे थे।

पाकिस्तान की एयरफोर्स ने 3 दिसंबर को शाम 05:40 बजे मिराज और F-86 फाइटर जेट से ऑपरेशन चंगेज खान लॉन्च कर दिया। पठानकोट, अमृतसर, अंबाला, आगरा, हलवारा, श्रीनगर, अवंतीपुर और फरीदकोट एयरबेस पर बम और रॉकेट गिराए गए। पाकिस्तान ने उस रात कुल 16 एयर रेड की। दरअसल, याह्या खान जुमे के दिन भारत पर हमला करना चाहते थे, इसलिए शाम की नमाज के ठीक बाद पाकिस्तानी एयरस्ट्राइक शुरू हुई थी।

पाकिस्तान के हमले के बाद जंग शुरू हो चुकी थी। अब भारत को कोई भी एक्शन लेने से उसे युद्ध शुरू करने का जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता। 3 दिसंबर की रात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो से घोषणा की- ‘बांग्लादेश पर जो पश्चिमी पाकिस्तान की लड़ाई थी, वह अब भारत पर भी आ गई है।’

जवाबी कार्रवाई करते हुए भारतीय आर्मी, एयरफोर्स और नेवी ने ईस्ट पाकिस्तान में तैनात पाकिस्तानी सेना पर हमले लॉन्च कर दिए। वेस्ट पाकिस्तान बॉर्डर पर भी मोर्चे खोले गए। 4 दिसंबर को भारतीय वायु सेना ने करीब 500 उड़ानें भरीं।

1971 की जंग के दौरान भारत के मिग-21 विमान।

1971 की जंग के दौरान भारत के मिग-21 विमान।

‘नाश्ता लोंगेवाला, लंच रामगढ़ और रात का खाना जैसलमेर में’

5 दिसंबर की सुबह 1 बजे पाकिस्तानी सेना ने अपने 45 टैंकों और करीब 3 हजार सैनिकों के साथ राजस्थान के लोंगेवाला पर हमला लॉन्च कर दिया। इसमें चीन से मिले शक्तिशाली टी-59 टैंक भी शामिल थे। पाकिस्तान का इरादा था कि वह वेस्ट फ्रंट के भारतीय इलाकों पर कब्जा कर ले, जिससे बाद में ये इलाके लौटाने के बदले वह ईस्ट पाकिस्तान मांग सके।

भारत पूर्वी मोर्चे पर युद्ध लड़ रहा था इसलिए पश्चिम में लोंगेवाला पोस्ट पर भारत ने सिर्फ एक कंपनी यानी 120 सिपाही तैनात कर रखे थे। 23 पंजाब रेजिमेंट की इस कंपनी की कमान मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरिया के पास थी। जानकारी हेडक्वार्टर भेजी गई तो 23 पंजाब को पोस्ट छोड़ने का विकल्प दिया गया था, लेकिन उन्होंने लड़ना चुना।

उस समय एयरफोर्स के पास रात में अटैक लॉन्च करने वाले एयरक्राफ्ट नहीं थे। ऐसे में पंजाब रेजिमेंट के 120 सिपाहियों ने पूरी पाक बटालियन को रोके रखा। भारतीय सिपाही पाक टैंकों पर रखे डीजल टैंक पर निशाना साधते जिससे पूरा टैंक नष्ट किया जा सके। अगले दिन सुबह की पहली किरण के साथ ही एयरफोर्स ने पाक सेना को बम बरसाकर खदेड़ना शुरू कर दिया।

लड़ाई के दौरान जब एक पाकिस्तानी सिपाही को पकड़कर उससे सेना की प्लानिंग पूछी गई तो उसने बताया- “नाश्ता लोंगेवाला में, दोपहर का खाना रामगढ़ में और रात का खाना जैसलमेर में।” इस पर भारतीय टुकड़ी की कमान संभाल रहे मेजर चांदपुरिया ने एक इंटरव्यू में बताया था-

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5 दिसंबर के दिन हम दुश्मन को खदेड़ते हुए पाकिस्तान के अंदर 8 किलोमीटर तक जा घुसे। 16 दिसंबर तक हमने वहीं पर डेरा जमाए रखा। वहीं खाना बनता और वहीं पर खाते। मुझे अच्छे से याद है 14 दिसंबर की सुबह भी हम पाकिस्तान की हद में बैठे नाश्ता कर रहे थे।

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लोंगेवाला की लड़ाई में जीत के बाद मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी (बाएं से दूसरे) और उनके सिपाही।

लोंगेवाला की लड़ाई में जीत के बाद मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी (बाएं से दूसरे) और उनके सिपाही।

इंडिया के हाथ में कराची पोर्ट का पूरा डिफेंस सिस्टम

युद्ध शुरू होने के पहले अक्टूबर में भारतीय नौसेना को पता चला कि कराची पोर्ट पर नए नेवल सर्विलेंस यंत्र लगाए गए हैं। ऐसे में नेवी कमांडर ने रॉ चीफ काओ से इसके बारे में जानकारी निकालने को कहा। कोवास्जी डॉक्टर नाम का एक व्यक्ति अक्सर अपनी शिप से पाकिस्तान के रास्ते कुवैत जाता था।

किताब ‘द वॉर दैट मेड रॉ’ के मुताबिक रॉ के दो एजेंट उसकी शिप से कराची पोर्ट पहुंचे और छिपकर पोर्ट की तस्वीरें ले लीं। कुवैत पहुंचते ही दोनों एजेंट्स ने इंडियन एंबेसी में पहुंचकर इन तस्वीरों के रोल भारत पहुंचा दिए।

पहली बार भारत के पास कराची पोर्ट के अंदर की तस्वीरें थीं। भारत को पोर्ट के डिफेंस स्ट्रक्चर, उसकी ताकत यहां तक कि ईंधन भंडार की भी पूरी जानकारी मिल गई थी। इसकी मदद से भारतीय नेवी ने 4 दिसंबर को कराची पोर्ट पर अपना ऑपरेशन लॉन्च किया। इसके लिए रूस से मिली ओसा-I मिसाइल बोट का इस्तेमाल किया गया, जो बड़े-बड़े क्रूज को भी नष्ट कर सकती थी। इसके साथ एक समस्या थी कि ये कम दूरी पर ही वार कर सकती थी। ऐसे में पाकिस्तान का ध्यान नेवल अटैक से भटकाने एयरफोर्स ने कराची में बमबारी शुरू की।

कराची की तरफ बढ़ रही भारतीय नेवी का सामना रास्ते में ही PNS खैबर से होता है। भारत एक-के-बाद एक दो मिसाइल छोड़कर PNS खैबर को डुबो देता है। उधर पाकिस्तान को लगता है कि खैबर भारतीय वायुसेना की छोड़ी किसी मिसाइल से डूब गया। उन्हें नेवी के होने का अंदाजा भी नहीं था।

इसके बाद भारत की एक शिप पाकिस्तान आर्मी के लिए जा रहे असलहे की कार्गो शिप पर भी हमला कर देती है। वहीं तीसरी शिप कराची हार्बर पर हमला कर ईंधन भंडार को पूरी तरह नष्ट कर देती है। इंडियन नेवी के इस ऑपरेशन का नाम था ऑपरेशन ट्रिडेंट।

इसके बाद 8 दिसंबर को नेवी ने कराची पोर्ट पर ऑपरेशन पायथन लॉन्च करके उसे और नुकसान पहुंचाया। ईस्ट पाकिस्तान में तैनात पाक सेना को वेस्ट से मदद मिलने के सभी रास्ते बंद हो गए।

पाक ने INS विक्रांत को निशाना बनाया, लेकिन PNS गाजी डूब गया

1971 की लड़ाई में भारत की जीत की एक बड़ी वजह थी- इंटेलिजेंस इनपुट। नवंबर में ही पाकिस्तान की सबसे ताकतवर सबमरीन PNS गाजी कराची पोर्ट से निकल चुकी थी। अमेरिका में बनी इस सबमरीन को पानी में ढूंढ पाना आसान नहीं था, इसलिए भारत के लिए ये बड़ा खतरा पैदा कर सकती थी, लेकिन रॉ के जासूसों ने पहले ही गाजी के कराची से निकलने की जानकारी भारत भेज दी थी। गाजी का लक्ष्य बंगाल की खाड़ी की ओर जाकर भारत की सबसे ताकतवर शिप INS विक्रांत पर अटैक करना था।

भारत ने पाकिस्तान को उसके ही प्लान में फंसाने का सोचा। युद्ध शुरू होने से पहले एक अन्य भारतीय शिप INS राजपूत विशाखापट्टनम के पानी में थी। वह INS विक्रांत की जरूरतों के हिसाब से राशन और फ्यूल मंगवाती। भारत को पता था कि इस जानकारी से पाकिस्तानी जासूसों को लगेगा कि विक्रांत विशाखापट्टनम के पानी में है और वे ये जानकारी अपने देश पहुंचाएंगे।

गाजी भारत की रची इस साजिश में फंस चुकी थी। वो विशाखापट्टनम के बिल्कुल करीब आकर विक्रांत पर हमला करने का इंतजार कर रही थी। इससे पहले कि गाजी हमला करे, राजपूत को गाजी की लोकेशन पता चल गई और उसने एक बड़ा हमला करके PNS गाजी को डुबो दिया। इस पूरे ऑपरेशन के दौरान असली INS विक्रांत विशाखापट्टनम से कहीं दूर ईस्ट पाकिस्तान के तट पर हमले की तैयारी कर रहा था।

पाकिस्तान का PNS गाजी।

पाकिस्तान का PNS गाजी।

पाक को अमेरिका-ब्रिटेन ने भेजी, लेकिन उससे पहले भारत को रूस की मदद पहुंची

युद्ध में अपने दोस्त पाकिस्तान को हारता देख अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में बताया कि युद्धक विमानों से लैस उसका सातवां बेड़ा USS एंटरप्राइज पूर्वी पाकिस्तान जाएगा, क्योंकि ढाका में कई अमेरिकी फंसे हुए हैं। खास बात यह थी कि इस ऐलान से एक दिन पहले ही अमेरिका अपने सभी नागरिकों को निकाल चुका था। असल में भारत पर दबाव बनाने की ये रणनीति थी।

अमेरिका की मदद के लिए ब्रिटेन ने भी अपने विमानवाहक पोत HMS ईगल को अरब सागर भेज दिया था। परेशान इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ से मदद मांगी। जवाब में सोवियत संघ ने 13 दिसंबर को 10वें ऑपरेटिव बैटल ग्रुप यानी प्रशांत महासागर में तैनात बेड़े को बंगाल की खाड़ी की तरफ भेज दिया।

अमेरिका और ब्रिटेन के फ्लीट्स के पहुंचने से पहले ही सोवियत रूस पहुंच चुका था। सोवियत रूस ने ब्रिटेन को भेजा गया एक संदेश पकड़ा, जिसमें कहा गया था कि सर हमें देर हो चुकी है। यहां पहले से ही रूस की परमाणु पनडुब्बियां और कई युद्धपोत तैनात हैं। रूस को देखकर अमेरिका और ब्रिटेन कुछ नहीं कर सके।

करीब 93 हजार सैनिकों के साथ पाक का सरेंडर

ईस्ट पाकिस्तान में तैनात पाकिस्तानी सेना को वेस्ट से सभी मदद मिलनी बंद हो गई थी। आर्मी चीफ सैम मानेकशॉ ने 8 दिसंबर को ऑल इंडिया रेडियो के जरिए पाकिस्तानी सैनिकों को चेतावनी दी- “अगर आप भागने की कोशिश करेंगे तो मारे जाएंगे, लेकिन अगर आप सरेंडर करते हैं तो आपसे उचित व्यवहार किया जाएगा।” इसके बाद 14 दिसंबर को ढाका से पाकिस्तान हाई कमांड के पास एक मैसेज गया-

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हम सिर्फ उम्मीद पर हैं। जो भी करना है जल्दी करना होगा। हमारे पास कोई मिसाइल नहीं है। फायर क्या करेंगे। हमारे पास तो एयरफोर्स भी नहीं है। भारत की एयर रेड हमें परेशान कर रही हैं।

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इसी दिन 12 बजे ढाका में हाई कमांड की बैठक होने वाली थी। भारत ने पाकिस्तान को सरेंडर के लिए मजबूर करने का यह अच्छा मौका समझा। भारतीय एयरफोर्स ने इस मीटिंग में रॉकेट दाग दिए। किसी तरह रॉकेट अटैक से बचे ईस्ट पाकिस्तान के गवर्नर ने तुरंत अपना इस्तीफा लिख दिया।

इसके बाद ही याह्या खान ने भी जनरल नियाजी को सरेंडर का सिग्नल भेज दिया। नियाजी ने अमेरिकी काउंसिल जनरल हर्बर्ट स्पिवैक से सीजफायर करवाने का अनुरोध किया। जंग शुरू होने के महज 13 दिनों के बाद 16 दिसंबर को 04:31 बजे नियाजी ने भारतीय लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के सामने 92,208 पाकिस्तानी सैनिकों के साथ सरेंडर कर दिया।

युद्ध जीतने के बदले इंदिरा ने पाक से शांति मांगी

पाकिस्तान की हार के बाद याह्या खान को राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा। जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के नए राष्ट्रपति बने। उन्होंने 8 जनवरी, 1972 को जेल में कैद मुजीबुर्रहमान को भी रिहा कर दिया।

उधर जंग होने के बाद बारी थी समझौते की। 2 जुलाई 1972 को इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला समझौते पर दस्तखत किया। भारत ने युद्ध जीतने के बदले पाकिस्तान से सिर्फ आने वाले समय में दोनों देशों के बीच शांति का समझौता किया।

इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान की 1 इंच जमीन भी नहीं ली। न ही युद्ध और पाकिस्तानी युद्ध बंदियों पर खर्च हुए करोड़ों रुपयों की वसूली की। इसके चलते 1971 की लड़ाई को कई विशेषज्ञ- बैटल वॉन ऑन ग्राउंड एंड लॉस्ट ऑन टेबल भी कहते हैं यानी भारत जमीन पर तो युद्ध जीत गया, पर समझौते की टेबल पर हार गया।

2 जुलाई 1972 को शिमला समझौते के लिए भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने मुलाकात की।

2 जुलाई 1972 को शिमला समझौते के लिए भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने मुलाकात की।

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पाकिस्तान पर फतह सीरीज के अन्य एपिसोड…

क्या भारत-पाक लड़ाई में UN के कूदने से बना PoK:भारत ने महीनेभर में बचाया दो-तिहाई कश्मीर; महाराजा हरि सिंह के मुस्लिम सैनिकों ने की गद्दारी

22 अक्टूबर 1947, पाकिस्तानी कबाइलियों ने जम्मू-कश्मीर पर धावा बोल दिया। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह यह मानकर चल रहे थे कि उनकी फौज कबाइलियों को खदेड़ देगी, लेकिन उनके मुस्लिम सैनिक दुश्मन से मिल गए। पूरी कहानी पढ़िए

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1962 में चीन से मिली चोट के चलते भारतीय सेना का मनोबल टूटा हुआ था।पाकिस्तान का सेना प्रमुख अयूब खान चुनी हुई सरकार का तख्तापलट कर 1958 में राष्ट्रपति बना। उसकी नजर में कश्मीर खटक रहा था। पूरी खबर पढ़िए



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