Sunday, June 15, 2025
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‘पुलिसवाले आए, नशा किया, पीटा, मुर्गे भी ले गए’: अबूझमाड़ के लोग बोले- नक्सली राशन ले जाते हैं, हम दोनों तरफ से पिस रहे


‘नक्सली हमारे गांव में आते हैं। हम इस बात को क्यों छिपाएंगे। हमसे चावल या जो भी मांगते हैं, हमें देना पड़ता है। वो लोग यहां रहते नहीं हैं। उस दिन (19 मई को) पुलिस आई, तो हमने पुलिस को भी सब कुछ दिया। पुलिसवाले यहीं रुके थे, नशा किया और हमें पीटा भी। फ

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ये कहना है गुंडेकोट गांव के रहने वाले मनकू राम मंडावी का। ये गांव छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में है। इसी गांव के पास 21 मई को एक करोड़ का इनामी नक्सली बसवाराजू मारा गया।

दैनिक भास्कर की टीम अबूझमाड़ के जंगलों में एनकाउंटर साइट पर पहुंची, तो पास के तीन गांव गुंडेकोट, बोटेर, ढोंढरबेड़ा के लोगों से भी मिली। मनकू राम उनमें से एक हैं। वे बताते हैं कि पुलिसवाले नक्सलियों की मदद का आरोप लगाकर गांव के लोगों को पीटते हैं। बसवाराजू के एनकाउंटर से पहले भी गांव के लोगों को उठा लिया था।

‘नक्सलगढ़ से भास्कर’ सीरीज की पहली और दूसरी स्टोरी में आपने अबूझमाड़ के मुश्किल हालात और बसवाराजू के एनकाउंटर की इनसाइड स्टोरी पढ़ी। इस स्टोरी में पढ़िए, यहां के आम लोग कैसे नक्सली और पुलिस दोनों के बीच पिस रहे हैं। छोटे-छोटे ये गांव जंगलों के बीच बसे हैं। सभी की आबादी 60 से 130 के बीच है।

गांव: गुंडेकोट आबादी: 60-65

बसवाराजू के एनकाउंटर वाली जगह से सबसे करीब गुंडेकोट गांव है। यह गांव नारायणपुर के ओरछा ब्लॉक में आता है। ओरछा ब्लॉक गुंडेकोट से करीब 50 किमी दूर है। यहां से महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला भी नजदीक है।

गुंडेकोट अबूझमाड़ के घने जंगलों के बीच बसा है। आसपास नक्सलियों के सेफ ठिकाने हैं, इसलिए नक्सली अक्सर गांव में आते-जाते थे। यहां सिर्फ 13 परिवार हैं। 60 से 65 लोगों की आबादी है। गांव में स्कूल, हॉस्पिटल, पानी और बिजली, कुछ नहीं है।

गुंडेकोट गांव बसवाराजू के एनकाउंटर वाली जगह से सिर्फ तीन किमी दूर है। यहां तक जाने का कोई रास्ता नहीं है। गांव के लोग जंगल से मिलने वाली चीजों के भरोसे ही रहते हैं।

गुंडेकोट गांव बसवाराजू के एनकाउंटर वाली जगह से सिर्फ तीन किमी दूर है। यहां तक जाने का कोई रास्ता नहीं है। गांव के लोग जंगल से मिलने वाली चीजों के भरोसे ही रहते हैं।

बसवाराजू के एनकाउंटर के बाद गांववालों ने छत्तीसगढ़ पुलिस पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका दावा है कि एनकाउंटर से एक दिन पहले कई लोगों के साथ मारपीट की गई।

मनकू राम मंडावी गुंडेकोट के उन लोगों में हैं, जो थोड़ी-बहुत हिंदी बोल लेते हैं। वे कहते हैं, ‘19 मई को पुलिसवालों ने मुझे पकड़ लिया। मेरा बीमार बेटा साथ में था। पुलिस ने मुझे पीटा और बांधने लगे। मुझे धूप में बैठा दिया। वे पूछ रहे थे कि नक्सली कहां हैं, कहां रहते हैं। तुम्हारे गांव में मीटिंग हुई है, कहां मीटिंग हुई है।’

‘ये सब मुझे कैसे पता होगा। वे लोग कह रहे थे कि अगर ये न बताए तो बांध दो इसे। बांधने और पीटने से मैं क्या बता देता। पुलिसवालों ने मुझे करीब डेढ़ घंटे बाद छोड़ा।’

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वे लोग (नक्सली) गांव में आते-जाते हैं। गांववाले उनके लिए चावल जमा कर देते हैं, लेकिन वे कहां रहते हैं, हमें कैसे पता होगा।

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मनकू बताते हैं, ‘19 तारीख को पुलिस गांव में आई और सबके घरों पर पोस्टर चिपका दिए। इसमें नक्सलियों से हथियार छोड़कर सरेंडर करने की अपील थी। सरेंडर करने के लिए अलग-अलग डिवीजन के लोगों के नाम और नंबर लिखे हुए थे। इन्हीं नंबरों पर कॉन्टैक्ट करके सरेंडर करने को कहा गया है। पोस्टर में सरेंडर करने पर सरकार की तरफ से मिलने वाली सुविधाओं का भी जिक्र था।’

‘इस पोस्टर में सरेंडर कर चुके नक्सलियों की फोटो भी थीं। उनके हवाले से लिखा गया कि नक्सलियों को सरेंडर कर मुख्यधारा में आना चाहिए। माओवाद खोखली विचारधारा है। इसे छोड़कर आदिवासियों और मूल निवासियों को बचाने के लिए उन्हें आगे आना चाहिए।’

गुंडेकोट गांव के बाहर पुलिस ने पोस्टर लगाए थे। इसमें सरेंडर करने पर मिलने वाली सभी सुविधाओं और पैसों का जिक्र है।

गुंडेकोट गांव के बाहर पुलिस ने पोस्टर लगाए थे। इसमें सरेंडर करने पर मिलने वाली सभी सुविधाओं और पैसों का जिक्र है।

मनकू आगे कहते हैं, ‘इससे पहले यहां पुलिस कभी नहीं आई थी। 20 तारीख को पुलिसवाले फिर से गांव में आए। कई लोगों को पकड़कर ले गए। मेरे छोटे भाई को भी पकड़ लिया। DRG की महिला सिपाहियों ने मेरी मां को पीटा।’

गांव के सुखराम भी पुलिस पर मारपीट का आरोप लगाते हैं। कहते हैं, ‘20 तारीख को मैं घर में सोया था। मेरी पत्नी भी घर में थी। उन लोगों ने हमें उठाकर पूछताछ की। फिर पास के जंगल में ले गए। वहां भी मारपीट की।’

गांव के एक युवक संतोष (बदला हुआ नाम) ने आरोप लगाया कि पुलिस मुझे पकड़कर एनकाउंटर साइट तक ले गई थी। वे कहते हैं, ‘20 मई को सुबह 11 बजे पुलिस ने मुझे पकड़ा था। जंगल में ले जाकर बुरी तरह पीटा। वे बार-बार पूछ रहे थे कि नक्सली कहां हैं। बसवाराजू कहां है।’

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मुझे खाना-पानी कुछ नहीं दिया। पिटाई से मेरे शरीर पर निशान बन गए थे, इन्हें मिटाने के लिए सरसों का तेल दिया गया। 21 मई को सुबह फायरिंग शुरू हुई, तब मैं वहां से भाग आया।

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अब गुंडेकोट की पहचान बसवाराजू के एनकाउंटर से गुंडेकोट गांव गूगल मैप पर दिखता जरूर है, लेकिन मैप के जरिए यहां नहीं पहुंच सकते। अब इस गांव की पहचान बसवाराजू के एनकाउंटर से होने लगी है। इसी एनकाउंटर की वजह से गुंडेकोट और आसपास के गांवों की तकलीफ भी सामने आ रही हैं।

मनकू राम मंडावी बताते हैं, ‘गांव के लोग राशन लाने के लिए पैदल ओरछा तक जाते हैं। ओरछा करीब 50 किमी दूर है। पूरा रास्ता पहाड़ी है। अगर कोई सामान लाना हो तो हम 4 दिन पैदल चलते हैं।’

‘अगर हम लोग सोमवार को यहां से निकलते हैं, तो अगले दिन दोपहर तक ओरछा पहुंचते हैं। रात वहीं रुकते हैं, फिर बुधवार को सामान लेकर लौटते हैं। गुरुवार को घर वापस आ पाते हैं। ऐसे में कोई बीमार पड़ जाए तो उसे कंधे पर रखकर ले जाना पड़ता है। कभी-कभी हम ओरछा की बजाय दूसरी तरफ बीजापुर के भैरमगढ़ ले जाते हैं। वहां जाने में भी एक दिन लगता है। भैरमगढ़ से गाड़ी मिल जाती है।’

गांव: बोटेर आबादी: करीब 130

बोटेर गांव एनकाउंटर वाली जगह से 10-12 किमी दूर है। गुंडेकोट का रास्ता इसी गांव से होकर जाता है। बोटेर तक पहुंचना भी मुश्किल है, लेकिन ओरछा से यहां तक कच्चा रास्ता है। हम यहां पहुंचे, तभी गांववालों के लिए ओरछा से ट्रैक्टर पर राशन लाया गया था।

बारिश शुरू होने वाली है, इसलिए गांववालों ने तीन-चार महीने का राशन मंगवाया है। गांव के लोग मिलकर ट्रैक्टर का किराया देते हैं। बोटेर में 27 परिवार हैं। आबादी करीब 130 है। नक्सलियों का मूवमेंट इस गांव तक है। गांववालों के आधार कार्ड भी बने हैं।

ओरछा से गुंडेकोट के रास्ते में ढोंढरबेड़ा से अगला गांव बोटेर है। करीब 15 किमी का सफर कर यहां तक पहुंचने में तीन घंटे लग जाते हैं।

ओरछा से गुंडेकोट के रास्ते में ढोंढरबेड़ा से अगला गांव बोटेर है। करीब 15 किमी का सफर कर यहां तक पहुंचने में तीन घंटे लग जाते हैं।

गांव के कारुराम मंडावी 5वीं तक पढ़े हैं। वे हिंदी बोल लेते हैं। कारुराम बताते हैं कि एनकाउंटर के बाद ही बोटेर या गुंडेकोट तक पहली बार मीडिया पहुंचा।

कारुराम बताते हैं, ‘पुलिस गांव में आती है, तो हमें नक्सली बोलकर पीटती है। 2016-17 में भी पुलिसवाले आए थे। गांव में सभी को पीटा। बोले कि हम नक्सलियों के लिए काम करते हैं। मुझे भी पीटा था। मेरे भाई को भी खूब पीटा। भाई ने बताया था कि पुलिसवाले उसे गोली मारने वाले थे। उसे समझ आया तो वो जंगल में भाग गया। इसके दो साल बाद 2019 में भाई की बीमारी से मौत हो गई।’

कारुराम आगे बताते हैं, ‘गांव में पानी नहीं है। पहाड़ी नाले का पानी पीते हैं। बारिश में उसका पानी भी गंदा हो जाता है। स्कूल है, लेकिन टीचर नहीं आता। आंगनवाड़ी भी है, लेकिन काम करने के लिए कोई नहीं है। स्टाफ सिर्फ रजिस्टर में नाम दर्ज करने महीने में एक बार यहां आता है।’

रमेश मंडावी 12वीं में पढ़ते हैं। ओरछा में रहकर पढ़ाई करते हैं। कभी ओरछा जाना हो या वहां से घर आना हो, पैदल ही आते हैं। रमेश कहते हैं, हमें बिजली, पानी, स्कूल, सड़क और हॉस्पिटल की जरूरत है।

गांव: ढोंढरबेड़ा आबादी: 130

बोटेर से पहले ओरछा की तरफ ढोंढरबेड़ा गांव है। हम यहां पहुंचे, तब लोग देवी की पूजा कर रहे थे। 2 जून को पूजा शुरू हुई और 4 जून को खत्म हुई। ये पूजा साल में एक बार होती है। इस पर्व का नाम कक्साड़ है। इसके लिए आसपास के गांववालों को न्योता देकर बुलाया जाता है।

दूसरे गांव के लोग भी अपने देवी-देवता लेकर आते हैं। पूजा के बाद सभी गाना गाते हुए पूरी रात डांस करते हैं। बाहर से आए लोगों के लिए खाने का इंतजाम भी गांव के लोग करते हैं।

हम ढोंढरबेड़ा गांव पहुंचे तो यहां उत्सव का माहौल मिला। इसे देखकर लगा नहीं कि पास में ही एक करोड़ के इनामी नक्सली का एनकाउंटर हुआ है।

हम ढोंढरबेड़ा गांव पहुंचे तो यहां उत्सव का माहौल मिला। इसे देखकर लगा नहीं कि पास में ही एक करोड़ के इनामी नक्सली का एनकाउंटर हुआ है।

जिस जगह ये उत्सव चल रहा था, वहीं पीछे पानी की टंकी का स्ट्रक्चर बना था। हमने गांव के अजय ध्रुव से इस बारे में पूछा। वे बताते हैं, ‘पानी की टंकी के लिए दो साल पहले स्ट्रक्चर बना था। आज तक काम पूरा नहीं हुआ। गांव में न बिजली है और न पीने का पानी। गांव अब भी नक्सल प्रभावित है। हालांकि पहले से माहौल थोड़ा ठीक हुआ है।’

ढोंडरबेड़ा गांव के लोग पीने का पानी पास में बहते बरसाती नाले से लाते हैं। गांव में टंकी बननी थी, लेकिन दो साल बाद भी नहीं बन पाई।

ढोंडरबेड़ा गांव के लोग पीने का पानी पास में बहते बरसाती नाले से लाते हैं। गांव में टंकी बननी थी, लेकिन दो साल बाद भी नहीं बन पाई।

अजय आगे कहते हैं, ‘गांव में करीब 50 परिवार हैं। यहां ढंग का स्कूल भी नहीं है। पुराना स्कूल है, लेकिन वो किसी काम का नहीं है। टीचर महीने में एक या दो बार आते हैं। यहां हॉस्पिटल की भी जरूरत है।’

नक्सलियों के बारे में पूछने पर अजय चुप हो जाते हैं। फिर कहते हैं, ‘पुलिसवाले गांव के लोगों पर शक करते हैं कि हमारे संबंध नक्सलियों से हैं।’ फिर बात बदलते हुए कहते हैं, ‘गांव में सड़क नहीं है। इससे बहुत दिक्कत होती है।’

गांव के गुड्डूराम नक्सलियों के बारे में पूछने पर कहते हैं, ‘उनकी वजह से गांव के लोगों को बहुत झेलना पड़ा है। वे गांव में मीटिंग करने आते थे। उसमें जबरदस्ती जाना पड़ता था। डर लगता था कि नक्सली आ गए तो यहां-वहां जाना पड़ेगा। ये बहुत पहले खत्म होना चाहिए था। अब मुझे नहीं लगता कि वे इधर वापस आएंगे।’

DIG बोले- पुलिस पर आरोप गलत, गांववाले नक्सलियों की जुबान बोल रहे गुंडेकोट, बोटेर और ढोंढरबेड़ा के लोगों के आरोपों पर हमने दंतेवाड़ा रेंज के DIG केएल कश्यप से बात की। वे कहते हैं कि नक्सलियों के लिए सहानुभूति रखने वाले लोगों ने ये धारणा बनाई है। इसमें कोई सच्चाई नहीं है। अगर आप गहराई से जांच करेंगे तो समझ आएगा कि वे लोग किसकी जुबान बोल रहे हैं।

नक्सली को ट्रैक कर बसवाराजू तक पहुंची सिक्योरिटी फोर्स सिक्योरिटी फोर्स के पास इनपुट था कि बसवाराजू गुंडेकोट गांव के पास छिपा है। जवान उसके साथ मौजूद एक नक्सली को एक महीने से ट्रैक कर रहे थे। इसी से बसवाराजू की लोकेशन पता चल गई। उसकी तलाश में शुरू किए ऑपरेशन को ‘अबूझ-723’ नाम दिया गया। DRG की 3 टुकड़ियां बसवाराजू के तलाश में निकलीं।

अबूझमाड़ के कलेकोट पहाड़ पर नक्सलियों को घेर लिया। खूब फायरिंग हुई। ऑपरेशन में 27 नक्सली मारे गए। इन्हीं में शामिल था नक्सलियों का टॉप लीडर नंबला केशव राव उर्फ बसवाराजू। वो प्रतिबंधित संगठन CPI (माओवादी) का जनरल सेक्रेटरी था।

एनकाउंटर के बाद बसवाराजू के संगठन CPI (माओवादी) की दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी ने दावा किया था कि बसवाराजू के साथ कुल 35 नक्सली थे। इनमें से 7 बचकर निकल गए। 28 की मौत हो गई। हालांकि फायरिंग रुकने के बाद जवान नक्सलियों के ठिकाने पर पहुंचे, तो 27 नक्सलियों की डेडबॉडी मिलीं।

ऑपरेशन अबूझ से जुड़े एक सीनियर अधिकारी बताते हैं, ‘इस ऑपरेशन में तकनीक का भरपूर इस्तेमाल हुआ, लेकिन ये कामयाबी सिर्फ सैटेलाइट और ड्रोन से नहीं मिली। ये मुखबिरी पर टिकी थी।

ऑपरेशन का खाका तैयार करने में बसवाराजू का एक पुराना साथी काम आया। वो अब सरेंडर कर चुका है। उसने बसवाराजू के सुरक्षा घेरे, 2016 से अबूझमाड़ में छिपे होने और लगातार ठिकाने बदलने जैसी अहम बातें बताई थीं।

अगली स्टोरी में 17 जून को पढ़िए सबसे बड़े नक्सली हिडमा और बसवाराजू को छोड़कर आए कमांडर के खुलासे… ………………………………………. कैमरामैन: अजित रेडेकर ………………………………………..

‘नक्सलगढ़ से भास्कर’ सीरीज की पहली और दूसरी स्टोरी

1.जहां नक्सली बसवाराजू मारा, वहां न रास्ते, न नेटवर्क; ऑपरेशन ‘अबूझ’ के निशान बाकी

अबूझमाड़ का कलेकोट पहाड़ करीब 10 किलोमीटर में फैला है। 1300 मीटर से ज्यादा ऊंचा है। यहीं नक्सलियों का टॉप लीडर नंबला केशव राव उर्फ बसवाराजू मारा गया। ये घने जंगल वाला एरिया है। न रास्ता, न मोबाइल नेटवर्क। यहां पेड़ों पर गोलियों के अनगिनत निशान बने हैं। ये गोलियां बसवाराजू के एनकाउंटर के वक्त चली थीं। पढ़िए पूरी खबर…

2. कंपनी नंबर-7 की ‘गद्दारी’ से मारा गया बसवाराजू, फेक एनकाउंटर का दावा कितना सच

18 मई, 2025, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड के जवानों ने नारायणपुर जिले में अबूझमाड़ के जंगलों में तीन तरफ से घुसना शुरू किया। उन्हें एक करोड़ के इनामी नक्सली लीडर बसवाराजू का ठिकाना पता चल गया था। बसवाराजू के साथ उसकी सुरक्षा करने वाली कंपनी नंबर-7 के लोगों ने ही गद्दारी की थी। 40 साल से इन जंगलों में छिपा हुआ बसवाराजू 21 मई को कलेकोट की पहाड़ी पर मारा गया। पढ़िए पूरी खबर



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