कश्मीर के पहलगाम के पास सिखों के कुल 9 गांव हैं। आज ये सभी गांव वीरान हैं। 90 के दशक में हुए कत्लेआम के बाद कश्मीरी पंडितों ने तो घाटी छोड़ दी, लेकिन सिख डटे रहे। सिखों को गांव और जमीनें छोड़कर श्रीनगर शहर में बसना पड़ा, लेकिन इन्होंने कश्मीर नहीं छो
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पहलगाम हादसे के बाद अल्पसंख्यक होने की वजह से इन्हें घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं है। बच्चे नौकरी के लिए भी नहीं जा पा रहे हैं। जिनके बच्चे घाटी से बाहर हैं, वो अब घर लौटने को तैयार नहीं है। इसलिए अब ये पलायन करने को मजबूर हैं।
आज ब्लैकबोर्ड में कहानी कश्मीरी सिखों की जो घाटी छोड़कर पलायन को मजबूर हैं…
श्रीनगर के महजूर नगर में रहने वाले कश्मीरी सिख हरपाल सिंह कहते हैं कि बम और ग्रेनेड वाले माहौल में भी सिख घाटी छोड़कर नहीं गए। जब कश्मीरी पंडित यहां से पलायन कर रहे थे, तब भी सिख यहीं डटे रहे। यहां से सिखों का पलायन मात्र एक फीसदी के करीब रहा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मात्र 1200 सिखों ने पलायन किया। धमकियां मिलीं, लेकिन हम डरे नहीं। आज की तारीख में घाटी में सिखों की संख्या करीब 40 हजार है।
हरपाल सिंह कहते हैं कि साल 2000 में चिट्टीसिंहपुरा गांव में सिखों पर हुए आतंकी हमले के बाद हम बड़गांव छोड़कर श्रीनगर आ गए, लेकिन कश्मीर नहीं छोड़ा।
हरपाल सिंह कहते हैं- 20 मार्च साल 2000 की बात है। अनंतनाग के पास चिट्टीसिंहपुरा गांव में 36 निहत्थे सिखों को आतंकियों ने गोलियों से भून दिया था। आतंकी जबरन गांव में घुसे और सिखों को घरों से निकाल निकाल कर गोली मारी। उस वक्त अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत के दौरे पर थे। सिखों के इस नरसंहार ने दुनिया को हिला कर रख दिया। उस वक्त ज्यादातर सिख गांवों में रहते थे।
इस घटना के बाद सिखों ने तय किया कि वह घाटी के गांवों में नहीं रहेंगे बल्कि श्रीनगर पलायन कर जाएंगे। इसके बाद साल 2001 में महजूर नगर हत्याकांड में 10 बेकसूर सिखों को गोली मार दी गई थी। इसके बाद से घाटी के गांवों में रहने वाली तमाम सिख आबादी ने श्रीनगर में पलायन कर लिया और गांव खाली कर दिए थे।
हरपाल सिंह बताते हैं कि तीन फरवरी साल 2001 की बात है। सुबह के वक्त सभी अपना अपना काम कर रहे थे। सब कुछ सामान्य था। अचानक तीन आतंकी मोहल्ले में घुसे और अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। हमले में कुल 10 सिख मारे गए। घाटी में इस नरसंहार के बाद माहौल इतना खराब हो गया था कि सभी 10 सिखों का अंतिम संस्कार महजूर नगर के गुरुद्वारे में ही किया गया था।
इस नरसंहार के बाद भी श्रीनगर से मात्र एक फीसदी सिखों ने ही पलायन किया था। उनके पलायन की सबसे बड़ी वजह थी कि वो ऐसी नौकरियों में थे जिसमें जान का खतरा था। उस वक्त हमने घाटी नहीं छोड़ी, लेकिन पहलगाम हादसे के बाद यहां रहना मुश्किल है। मैं जल्द ही सरकारी नौकरी से रिटायर होने वाला हूं। दो बेटे हैं, दोनों बाहर रहते हैं। किसी भी कीमत पर मेरे बेटे यहां आने के लिए राजी नहीं हैं।
महजूर नगर गुरुद्वारे के ग्रंथी देवेंद्र सिंह कहते हैं कि घाटी में सिखों के साथ धोखा हुआ है। हमारे बच्चे यहां नहीं रहते, लेकिन जो बच्चे प्राइवेट नौकरियों में हैं, वह सुबह जाकर शाम को घर आते हैं। ऐसा ही माहौल रहा तो कभी भी कश्मीर बंद हो सकता है। लोग गुजारा कैसे करेंगे। अब यहां रहना मुश्किल है।

श्रीनगर में बसी सिखों की कॉलोनी महजूर नगर में खंडहर हो चुका एक सिख परिवार का घर।
हरपाल सिंह कहते हैं कि पिछले साल पब्लिक सर्विस कमीशन की तरफ से अंग्रेजी के लेक्चरर की 129 पोस्ट निकली थीं। जिनमें से 110 कैटेगरी में चली गई, बाकी बची 19 पोस्ट के लिए सात लाख एप्लिकेशंस आईं। इसमें भी सिखों को कुछ नहीं मिला।
हरपाल सिंह कहते हैं कि जो लोग घाटी छोड़ कर चले गए उन्हें तो सरकार कोटा देकर बुला रही है। कश्मीरी पंडितों के अलावा बहुसंख्यक का भी कोटा है, लेकिन सिखों का क्या। जो घाटी में डटे रहे उन्हें पूछने वाला कोई नहीं। हाल ही में भाषा के आधार पर भी कोटा दिया गया है। जबकि हमारी पंजाबी ही हमसे छीन ली गई।
कृष्ण सिंह बेदी भी कश्मीरी सिख हैं। इनके गांव का नाम है त्राल, जो पहलगाम के पास है। बेदी कहते हैं कि मैं गांव की जमीन छोड़कर कई सालों से श्रीनगर में रह रहा हूं। कभी-कभार अपनी जमीन देखने के लिए त्राल चला जाता हूं। अब मेरे गांव समेत आस-पास के 9 गांव के सिख श्रीनगर में ही बस गए हैं।
बेदी कहते हैं कि जमीन है तो करोड़ों की, लेकिन मेरे किसी काम की नहीं है। इसे बेचूंगा तो कौड़ियों के मोल जाएगी, क्योंकि पुलिस की इजाजत के बिना हम गांव नहीं जा सकते। इजाजत मिल भी जाए तो पुलिस वाले भी हमारे साथ जाते हैं। कई बार तो महीनों हमें इजाजत नहीं मिलती, जैसे इन दिनों अपने गांव त्राल जाने की मनाही है।
कृष्ण सिंह बेदी कहते हैं कि हमने तो 90 के दशक में भी घाटी से पलायन नहीं किया था, जब कश्मीर आतंकवाद की आग में जल रहा था, क्योंकि पलायन हमारी शान के खिलाफ था, लेकिन अब पहलगाम हादसे ने हमें इस बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है।
बेदी कहते हैं कि बेशक अब इतना डर नहीं है। पहले तो आतंकी हमारे सामने घूमते थे। वो बंदूक कंधे पर रखकर टोलियों में चलते थे। हमें धमकियों भरे लेटर भी मिले, लेकिन हम डटे रहे, दलेर कौम हैं। उस वक्त सिखों के गांवों में सिक्योरिटी थी, बंकर और चेक पोस्ट भी थे, लेकिन अब नहीं है।
उस वक्त घाटी में जिन सिखों ने सरकार का साथ दिया था, उन्हें आज भी सिक्योरिटी मिली हुई है। अगर आज भी हमारे गांवों में चेक पोस्ट और बंकर बनाए जाएं तो कम से कम हम अपनी जमीनों को देख सकें।

श्रीनगर का बक्त बरज़ला गुरुद्वारा
श्रीनगर में रह रहे देवेंद्र सिंह बताते हैं कि हमारी पीढ़ी ने तो बम और ग्रेनेड झेल लिए, लेकिन हमारी आज की युवा पीढ़ी ये सब नहीं झेल पाएगी है। बेशक यहां के बहुसंख्यक यानी मुस्लिम समुदाय हमारे साथ बहुत मिल-जुलकर रहता है। वह हमारी रक्षा करते हैं और उनकी वजह से ही हम यहां रह गए, लेकिन हमारे बच्चों के पास नौकरियां नहीं हैं। आजकल बच्चे जज्बाती हो जाते हैं, यहां रहने के लिए राजी नहीं हैं।
देवेंद्र सिंह कहते हैं कि पहले सिख समुदाय के पास जमीनें थीं, लोगों के पास सरकारी नौकरी थी। आज सरकारी नौकरी वाली पीढ़ी रिटायर होकर घर बैठ गई है। छोटा-मोटा बिजनेस कर रहे हैं।
परमजीत सिंह कहते हैं कि घाटी में नॉन माइग्रेंट पैकेज के तहत सभी को फायदा मिला, लेकिन सिख समुदाय के बच्चों को कोई फायदा नहीं मिला। हमारे बच्चों के पास नौकरियां नहीं हैं। जो बच्चे प्राइवेट सेक्टर में हैं, वह पहलगाम जैसे हादसे होने से घर बैठ गए हैं। प्रशासन ने अल्पसंख्यक समुदाय होने की वजह से शाम होते ही घर से बाहर न जाने के लिए कहा है। ऐसे हादसों के बाद प्राइवेट सेक्टर पूरी तरह से बैठ जाता है।
श्रीनगर गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी सचिव गुरमीत सिंह बाली के दोनों बेटे घाटी से बाहर जाने को तैयार हैं। गुरमीत सिंह खुद प्राइवेट कॉन्ट्रैक्टर हैं। वह बताते हैं कि सिखों के बच्चे यहां पढ़-लिख कर, डिग्री लेकर भी घर बैठे हैं। उनके पास नौकरी नहीं है। पहले के समय में सिख गांवों में रहते थे। उनकी खेती थी, बगीचे थे। सरकारी नौकरी थी, लेकिन बिजनेस नहीं था।

गुरमीत सिंह बाली कहते हैं- मेरे दोनों बेटे अब घाटी में नहीं रहना चाहते। हम अकेले कब तक यहां रहेंगे।
बाली कहते हैं जब गांव छोड़कर श्रीनगर आए तो जमीन छूट गई, लेकिन सरकारी नौकरी थी। अब धीरे-धीरे वह जनरेशन रिटायर हो रही है। बच्चों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। बच्चे दूसरे शहरों में नौकरियों के लिए जा रहे हैं। जब बच्चे बाहर जाएंगे तो उनके साथ उनके माता-पिता भी जाएंगे।
बाली बताते हैं कि यह पहलगांव हादसा कोई पहला हादसा नहीं है। कश्मीर छह-छह महीने या सालभर भी बंद रहा है। हम यहां गोलियों, बमों और ग्रेनेड में पैदा हुए। हम लोग डरते नहीं हैं, लेकिन अब अगर हमारा पलायन हुआ तो सरकार की वजह से होगा। अगर हालात ऐसे ही रहे तो दस साल बाद घाटी में एक भी सरदार नहीं मिलेगा।
बाली कहते हैं कि स्पेशल पीएम पैकेज के तहत कश्मीरी पंडितों को यहां लाया जा रहा है, लेकिन सिखों की बात कोई नहीं करता। सिखों को नॉन माइग्रेंट पैकेज मे भी फायदा नहीं मिला। इसी बात को लेकर सिखों में रोष है कि सिर्फ कश्मीरी पंडितों की बात होती है। सिखों का कहना है कि उन्हें राजनीतिक आरक्षण चाहिए, भले ही सिर्फ एक फीसदी मिले, ताकि वो अपनी बात कह सकें।
90 के दशक में कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया था। कश्मीरी पंडितों के हक की लड़ाई लड़ रहे संजय टीकू का कहना है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त घाटी में 808 कश्मीरी पंडितों के परिवार रह रहे हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने 90 के दशक में घाटी नहीं छोड़ी। हालांकि हमारी संस्था के अनुसार यह आंकड़ा 654 है। इनमें पीएम पैकेज वाले परिवार शामिल नहीं हैं।

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