‘चार समाज’ की नजर में मेरी बहन का वजन थोड़ा ज्यादा है। जब लोग कमेंट करते हैं, तो वह परेशान होने लगती है। एक दिन उसने मुझसे कहा- जब कोई वजन पर कमेंट करता है, तो मन करता है कि चाकू से एक्स्ट्रा मांस काट लूं।
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मैं उसे समझाता हूं कि वजन का क्या है? कम-ज्यादा होता रहता है, लेकिन जब कमेंट चेहरे को लेकर किया जाए तो उसका क्या? तो नहीं बदला जा सकता है न। और फिर अपना चेहरा, तो हर किसी को पसंद है।
अरुणाचल प्रदेश की रहने वाली गार्वी के बगल से गुजरते हुए लोग चेहरा देखते ही पूछ बैठते हैं- थाईलैंड की रहने वाली हो क्या?
गार्वी बोलती हैं, ‘लोगों को लगता है कि मेरे जो नैन-नक्श हैं, वह इंडियन नहीं हैं। मेरे कान में आकर कहते हैं- या तो तुम थाईलैंड की हो या फिर नेपाल की। एक बार तो मैंने गुस्से में कहा- चाइना भी गेस करो।
चेहरे की बनावट को लेकर यह दर्द सिर्फ अकेले गार्वी का नहीं है। गार्वी जैसी कहानी नॉर्थ-ईस्ट के तमाम राज्यों और दूसरे देशों से आए लोगों की भी है, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हैं। इन्हें हर रोज चिंकी, चाइनीज, मोमोज, नेपाली बुलाया जाता है। सेक्सबॉय की तरह देखा जाता है। सेक्स वर्कर समझा जाता है।
स्याह कहानियों की सीरीज ‘ब्लैकबोर्ड’ में इन लोगों का दर्द जानने मैं बनारस और लखनऊ पहुंचा। यहां रह रहे नॉर्थ-ईस्ट, तिब्बत और नेपाल के लोगों से मिला।
गार्वी अरुणाचल प्रदेश की रहने वाली हैं। पहले उन्होंने कोलकाता के एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया था, लेकिन भेदभाव की वजह से पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
गार्वी एक साल पहले तक कोलकाता में थीं। चेहरे की बनावट की वजह से उनके साथ भेदभाव इस कदर हुआ कि उन्हें कोलकाता में पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
उन्होंने अभी हाल ही में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी यानी BHU के ट्रैवल एंड टूरिज्म मैनेजमेंट कोर्स में एडमिशन लिया है।
गार्वी कोलकाता का किस्सा बताती हैं, ‘बैचलर इन आर्किटेक्ट में एडमिशन लिया था। जेईई मेंस और एडवांस क्वालिफाई करने के बाद यह कोर्स मिला था, लेकिन क्लास में हर दिन मेरे चेहरे के नैन-नक्श की वजह से भेदभाव होता था।
लोग मुझे सिलीगुड़ी, ए सिलीगुड़ी। नोहाओ, चिंगचान्ग… चिंकी बोलते थे। सिर्फ आम लोग ही नहीं, प्रोफेसर से लेकर क्लासमेट तक भेदभाव करते थे। मैं इससे इतना परेशान हो गई कि आखिर में एडमिशन कैंसिल करवाना पड़ा।
बनारस आई हूं, लेकिन यहां भी ‘चिंकी-मोमोज’ पीछा नहीं छोड़ रहा। दरअसल जिस कोर्स में मैं हूं, 20 दिन तो प्रैक्टिकल क्लास होती है। लोगों के बीच जाकर टूरिज्म की अपॉर्च्युनिटी को समझना हमारा काम है।
जब पहले दिन मैं लोगों के बीच गई तो लोगों ने मेरे सामने ही मेरा देश गेस करना शुरू कर दिया। फिर मेरा मन कभी दोबारा जाने का नहीं हुआ। मैं तो कहती हूं कि आप मेरी शक्ल देखकर गेस करने के बदले पूछ ही लो कि मैं कहां की रहने वाली हूं।
मन फट जाता है, जब लोग मुझे देखकर दूसरे देशों का नाम लेते हैं, लेकिन अपने ही देश के नॉर्थ-ईस्ट राज्यों का नाम नहीं लेते हैं। उन्हें तो पता ही नहीं है कि वो भी इसी सरजमीं का हिस्सा है।’

गार्वी बीते एक महीने से बनारस में रह रही हैं। पहले वह अपने दोस्तों के साथ गंगा घाट, शहर घूमने जाती थीं, अब बाहर जाने से हिचकती हैं।
वह कहती हैं, ‘मुझे इधर (हिंदी भाषी राज्य में) आए हुए अभी एक महीना ही हुआ है। मुझे दोस्तों के बीच तो दिक्कत नहीं हो रही है, क्योंकि बाहर निकलने पर यदि कोई मेरे साथ बदतमीजी करता है, तो मेरे दोस्त ही उन्हें डांटते हैं। सबक सिखाते हैं, लेकिन अकेले निकलती हूं तो दिक्कत होती है।
सड़कों पर आज भी रेसिज्म फेस करना पड़ता है। दुकानदार से लेकर ऑटो वाले तक, सभी यही कोशिश करते हैं कि मुझसे ज्यादा पैसे ले लिए जाएं। उन्हें लगता है कि मैं बाहरी हूं।
जब मेरे चेहरे और रंग के चलते भद्दे कमेंट करते हैं और सामान देने से भी मना कर देते हैं, तब और दिक्कत होती है।’
गार्वी से बातचीत करने के बाद मैं नोर्वू से मिलता हूं। नोर्वू नेपाल के रहने वाले हैं, लेकिन पले-बढ़े पश्चिम बंगाल में हैं। लोग उन्हें देखते ही सेक्स-वर्कर समझ बैठते हैं। हालांकि वह इससे असहज महसूस नहीं करते हैं।
अपनी बातें कहते-कहते वह हथेली से चेहरा छुपाकर हंसने लगते हैं। उनके लिए दिल्ली-लखनऊ जैसा शहर ‘परदेस’ है। वह बीते 3 साल से लखनऊ में रहकर फाइन आर्ट्स की पढ़ाई कर रहे हैं।
वह कहते हैं, ‘कुछ समय पहले तक मेरे बाल बड़े-बड़े थे। जब लोग मुझे देखकर सेक्सबॉय समझने लगे, तो मैंने अपने बाल कटवा लिए।’

नेपाल के रहने वाले नोर्वू अभी विजुअल आर्ट्स की पढ़ाई कर रहे हैं और हिंदी भाषी इलाके में रह रहे हैं।
कुछ ऐसा ही दर्द असम की डेजी और तिब्बत के तेंजिन का भी है।
डेजी असम से बनारस पढ़ने के लिए आई हैं। वह विजुअल आर्ट्स की स्टूडेंट हैं। हंसमुख स्वभाव वाली डेजी एक किस्सा बताती हैं, ‘राह चलते लोग भी मुझसे मेरा आधार कार्ड मांग लेते हैं।
एक बार मैं अपने दोस्तों के साथ मंदिर गई थी। मुझे देखते ही पुलिस ने कहा- इसे अलग लाइन में लगाओ। मैं कुछ बोलती, इससे पहले ही मुझे वे बाहर निकालने लगे। मैं डर गई। दोस्तों ने टोका। पुलिस से जब पूछा, तो लड़ाई हो गई, फिर मैंने उन्हें अपना आधार कार्ड दिखाया।
मैं तो अपने ही देश में दर्जनों बार आधार कार्ड दिखाकर प्रूफ कर चुकी हूं कि मैं भारत की नागरिक हूं। केवल मेरा चेहरा-मोहरा आपकी तरह नहीं है, लेकिन हूं तो भारतीय ही।
डेजी आम भारतीय की तरह हिंदी लिखना और बोलना, दोनों जानती हैं। फिर भी क्लासरूम में उनका कई बार मजाक बनाया गया है। तीन साल से बीएचयू में पढ़ रही डेजी का कोई क्लासमेट दोस्त नहीं है।
वह कहती हैं, ‘एक बार बिहार के सारनाथ गई थी। यह बौद्ध धार्मिक स्थल है। गेट से अंदर घुसते ही गार्ड ने मेरा आधार कार्ड मांगा। अभी किस-किस को आईडी कार्ड दिखाती चलूं। क्या इसे गर्दन में पट्टे की तरह लटका लूं।
अब तो मुझे इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। आदी हो चुकी हूं। अब किसी से कुछ नहीं कहती। घरवालों को भी नहीं बताती। क्या ही बताऊं, ट्रेन से घर जाने में 40 घंटे लगते हैं। घरवालों को ये सब बातें बताऊंगी, तो वे परेशान होंगे। उन्हें भी पता ही है कि हमें अपने ही देश में क्या-क्या झेलना पड़ता है।’

डेजी असम की रहने वाली हैं। अभी वे बनारस में रहकर विजुअल आर्ट्स की पढाई कर रही हैं।
तेंजिन तिब्बत के रहने वाले हैं। वह पेंटिंग के स्टूडेंट हैं। बताते हैं, ‘मैं जब नया-नया कॉलेज में आया था, तो मेरे बाल कंधे तक आते थे। लोग चाइनीज तो बोलते ही थे।
एक दिन दो बाइक वाले सामने से आए। उन्होंने पहले गाड़ी रोकी, फिर पास आकर कहा- यू लुक लाइक अ सेक्सबॉय (तुम सेक्सबॉय की तरह दिखते हो)। मैंने कुछ नहीं बोला। सिर झुकाए आगे बढ़ गया।
मैं अपने चेहरे का क्या ही कर सकता हूं? लोग फेस को देखते ही सेक्शुअल कमेंट करने लगते हैं।
मैंने कई बार अपने पापा से ये बातें बताईं। वो कहते हैं- ये सब तो होता ही है। इग्नोर करो और पढ़ाई पर फोकस करो। तुम घर के सबसे समझदार बच्चे हो।’
पिता से समझदारी का तमगा लेकर तिब्बत से आए तेंजिन बताते हैं, ‘मैंने सोचा था कि भारत में चीजें थोड़ी अलग होंगी। यहां रहने वाले लोग बड़े देश के हैं, तो मन भी साफ-सुथरा होगा।
लेकिन यहां तो और बुरा हाल है। दुकानदार मुझे सामान दिखाने से ही मना कर देता है। कई बार मोलभाव करने पर चिल्लाने लगता है। कहता है- नहीं मिलेगा।
ऑटो और बस वाले तो मुझे अंग्रेज समझ बैठते हैं। तीन-चार किलोमीटर के लिए मुझसे 700 से एक हजार रुपए तक मांगने लगते हैं। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने की कोशिश करते हैं। जबकि मुझे हिंदी आती है। दरअसल, मैं मसूरी में पला-बढ़ा हूं। वहां रहने के दौरान मैंने हिंदी सीखी थी।’

तेंजिन तिब्बत के रहने वाले हैं। हिंदी पट्टी राज्यों में उन्हें लोग तिब्बत का नहीं समझते हैं। कई बार तो चाइनीज कह देते हैं।
तेंजिन भारत में अंतरराष्ट्रीय नागरिक की हैसियत से रह रहे हैं, लेकिन उन्हें कभी पहाड़ी तो कभी चाइनीज सुनना पड़ जाता है।
वे कहते हैं, ‘मैं तिब्बत से हूं। तिब्बत के साथ चीन क्या बर्ताव करता है, पूरी दुनिया को पता है, लेकिन लोग मुझे चाइनीज कह देते हैं। ये ऐसा ही है जैसे किसी भारतीय को अंग्रेजों का समर्थक कह दिया जाए। हम चाइनीज कैसे हो सकते हैं? चीन तो हमें बर्बाद करना चाहता है।
मैं तो यही सोचकर ठहर जाता हूं और खुद को समझाता हूं कि दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं, जहां ऐसे लोग न मिलें।’