तारीख थी 20 मार्च 2000 और शाम को करीब साढ़े 7 बजे थे। अनंतनाग के चित्तीसिंहपुरा गांव में हम सभी सिख रेडियो पर समाचार सुन रहे थे। उस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत में थे। अचानक बिजली कट गई, पूरे गांव में अंधेरा हो गया। आर्मी की वर्दी में
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उन लोगों ने सरदारों को गुरुद्वारे के बाहर एक लाइन से खड़ा कर दिया और गोलियां बरसाने लगे। गोलियों की आवाज सुनते ही मैं जान-बूझकर नीचे गिर पड़ा। कोई जिंदा तो नहीं बचा ये तसल्ली करने के लिए उन्होंने फिर गोलियां बरसाईं। इस बार गोली मेरी कमर में लगी, लेकिन मैं अपनी जगह से हिला भी नहीं। आतंकियों ने गांव के 35 सरदार मार दिए, लेकिन 25 साल बाद भी वो पकड़े नहीं गए। पहलगाम हमले में भी आतंकियों ने यही किया। वो भी अभी तक पकड़े नहीं गए हैं।
ब्लैकबोर्ड में कहानी जम्मू-कश्मीर के चित्तीसिंहपुरा गांव के उन सरदार परिवारों को जिन्हें आतंकियों ने मार दिया था और 25 साल बाद भी आतंकी पकड़े नहीं गए
अनंतनाग जिले के चित्तीसिंहपुरा गांव में घुसते ही ऐसा लगता है जैसे पंजाब हो। दूर से ही गुरुद्वारे की अरदास सुनाई देती है। गुरुद्वारे की दीवार पर आज भी गोलियों के निशान हैं। गोलियों के निशान के बीच उन सरदारों की फोटो भी लगी है, जिन्हें आतंकियों ने गोलियों से भून दिया था। यहां रहने वाले सरदार परिवारों के जेहन में वो दिन भी किसी तस्वीर की तरह छपा हुआ है।
चित्तीसिंहपुरा गांव के गुरुद्वारे की दीवारों गोलियों के निशान आज भी हैं।
यहां रहने वाले 65 साल के नानक सिंह वही सरदार हैं जो उस दिन जिंदा बच गए थे। अपने कमरे में कंबल ओढ़े बैठे नानक सिंह कहते हैं कि ‘ऐसा कोई दिन नहीं बीतता जब वो मंजर याद न आता हो। मैं उस दिन जिंदा तो बच गया था लेकिन मेरा पैर खराब हो गया था। उन आतंकियों ने जाने से पहले टॉर्च जलाकर ये तसल्ली की थी कि कोई जिंदा न बचे। मुझे कमर में गोली लगी फिर भी चिल्लाया नहीं। मन ही मन वाहे गुरु, वाहे गुरु जपता रहा।’
नानक सिंह कहते हैं, ‘अगर मुझे समय पर इलाज मिल जाता तो मेरा पैर खराब ना होता। मैं अब लंगड़ा कर चलता हूं। उस दिन मेरे घर के पांच लोग मारे गए, जिसमें मेरा बेटा, मेरा छोटा भाई और मेरे तीन कजिन थे।’
अपने बेटे की तस्वीर की तरफ इशारा करते हुए नानक सिंह कहते हैं कि ‘ये मेरे बेटे गुरमीत की तस्वीर है। उस वक्त 16 साल का था। ये तस्वीर उसने मौत के 15 दिन पहले ही खिंचवाई थी। गुरमीत ने उसी साल 10वीं पास की थी। उस रोज मेरा बड़ा बेटा घर पर नहीं था, वरना आतंकी उसे भी मार देते।’

नानक सिंह, जो उस नरसंहार में बच गए थे।
ये कहते ही नानक सिंह की आंखों में आंसू आ जाते हैं। कुछ देर रुककर वो अपने आंसू पोंछते हुए कहते हैं- ‘आज भी उस दिन को याद करते हुए अपने आंसू रोक नहीं पाता हूं। आंखों के सामने अपने बेटे को मरते हुए देखना कितना पीड़ा देता है, इस बात को कोई नहीं समझ सकता। कई तो ऐसे घर थे, जहां कोई मर्द बचा ही नहीं, उन्होंने बाप-बेटे सबको मार दिया था। घटना को 25 साल बीत चुके हैं, लेकिन आज तक उन आतंकियों को सजा नहीं मिली। उन्हें तो आज तक कोई पकड़ भी नहीं पाया।’
कुछ देर रुककर गहरी सांस लेते हुए नानक सिंह कहते हैं, ‘किसी का सुहाग उजड़ गया तो किसी के घर का चिराग बुझ गया। कई बच्चे अनाथ हो गए। हमारी जिंदगी में एक खालीपन आ गया, जिसे कभी नहीं भरा जा सकता है।
निर्दोष लोगों के साथ ये नहीं होना चाहिए। हमें यहां से निकालने की बहुत कोशिश की गई, लेकिन बाकी कश्मीरी पंडितों की तरह हमने घाटी नहीं छोड़ी। उनके लिए तो सरकार ने कई योजनाएं बनाईं लेकिन हमारे बारे में किसी ने नहीं सोचा। हम आज भी यहां खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करते। बच्चे शाम में देर तक बाहर खेलते हैं तो हमें डर लगा रहता है। आज भी हमारे गांव में अस्पताल जैसी बेसिक सुविधा तक नहीं है।’
नानक सिंह हाल ही में हुए पहलगाम हमले को लेकर कहते हैं, ‘उस घटना ने एक बार फिर हमारे जख्म हरे कर दिए। मैं कितनी भी बातें बोल दूं लेकिन जिनका अपना जाता है उसके खोने का दुख वही जानता है। लोगों का हंसता-खेलता परिवार बिखर गया। लोगों की खुशी चंद मिनटों में मातम में बदल गई।’
नानक सिंह के घर के पास ही नरेंद्र कौर का घर है। वो अपने घर में अकेली रहती हैं। उनकी दो बेटियां हैं, जिनकी शादी हो चुकी है।
उस दिन को याद करते हुए नरेंद्र कहती हैं कि ‘मेरे पति राशन लेकर घर लौटे ही थे तभी आतंकी अचानक घर में घुसे और पति के साथ देवर को भी बाहर ले गए। घर के सामने ही सभी को लाइन में खड़ा करके गोली मार दी। मेरी आंखों के सामने ही मेरा सुहाग उजड़ गया। मैं वहां खड़ी थी, लेकिन कुछ कर नहीं सकी। ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे शरीर से रूह अलग कर दी हो।’
ये कहते हुए नरेंद्र इमोशनल हो जाती हैं। रुंधे गले से कहती हैं कि ‘वो मेरी जिंदगी का सबसे मुश्किल दौर था। मैंने अकेले अपने बच्चे पाले हैं। विधवा के लिए बच्चे पालना कितना मुश्किल होता है ये कोई सोच भी नहीं सकता। हर रात गोलियों की आवाज मेरे कानों में गूंजती हैं और हर सुबह उसकी कमी खलती है। मेरे घर के 11 लोग मारे गये थे। मेरे परिवार के सारे मर्द मार दिए।’

पति की फोटो दिखाती हुई नरेंद्र कौर।
पति की फोटो दिखाते हुए नरेंद्र कौर कहती हैं कि ‘हमारी शादी को 9 साल हुए थे। आंसू पोछते हुए आगे कहती हैं कि ये ऐसा जख्म है जो कभी नहीं भर सकता। मेरी बच्चियों की शादी हो गई और मैं घर में अकेली रहती हूं। ये अकेलापन मुझे खाता है। मुझे आज भी डर लगता है। मैं दीवारों से बातें करती हूं और खुद से झगड़ा करती हूं।’
वह रुंधे गले से कहती हैं कि ‘तमाम मुश्किलों के बाद मैंने बच्चों को पढ़ाया, उनकी शादी की। मुझे इस बात का अफसोस हमेशा रहेगा कि बच्चों को ज्यादा समय नहीं दे पाई। पति के जाने के बाद नौकरी तो मिल गई लेकिन तनख्वाह से घर का खर्च चला पाना भी मुश्किल था।’
नरेंद्र खीझते हुए कहती हैं, ‘यहां सरदारों को कोई नहीं पूछता। उस घटना के बाद भी हमें कोई देखने नहीं आया, किसी को हमारी परवाह नहीं। कश्मीरी पंडितों को बसाने के लिए तो बहुत सी योजनाएं लाई गईं लेकिन सरदारों को कश्मीर में बनाए रखने के लिए कुछ नहीं किया गया। हमें बोला गया कि बच्चों को नौकरियां देंगे, लेकिन कुछ नहीं मिला। मेरी एक बेटी ने बीडीएस किया है, दूसरी ने मैथ्स में एमएमसी किया है लेकिन दोनों के पास नौकरी नहीं है।’
नरेंद्र आगे कहती हैं कि ‘उन हत्यारों को पकड़ा नहीं गया। कश्मीर में सरदारों को लगातार निशाना बनाया गया फिर भी हमने अपनी जमीन नहीं छोड़ी। वो चाहते थे कि हम यहां से चले जाएं लेकिन हम नहीं गये। हमारे लिए कोई कोटा नहीं है, कोई योजना नहीं है लेकिन हम यहां से नहीं जाएंगे। ये हमारा घर है, हमारी जमीन है। अपनी सिक्योरिटी हम खुद हैं। पहलगाम हमले के बाद हमारा डर फिर से ताजा हो गया है। मर्दों को चुन-चुन कर मारा, ठीक वैसे ही जैसे हमारे साथ किया था।’
शीतल सिंह भी उस घटना के चश्मदीद हैं। वो कहते हैं कि ‘पहलगाम हमले के बाद फिर से मन में एक डर पैदा हो गया। हमारे मन में ये सवाल है कि जिस तरीके से हमारे साथ घटना हुई थी ठीक उसी तरीके से इस घटना को भी अंजाम दिया गया। अगर आतंकी पकड़े नहीं जाएंगे तो ये सब होता ही रहेगा। कश्मीर में सिख अल्पसंख्यक हैं, फिर भी वो लाभ नहीं मिल रहा जो कश्मीरी पंडितों को मिलता है। कश्मीरी पंडितों को स्पेशल पैकेज दिया गया है लेकिन हमें कोई पूछता भी नहीं है।’
शीतल कहते हैं कि ‘उस वक्त जो शहीद हुए उनके परिवार के लोग ज्यादा पढे़-लिखे नहीं थे इसलिए उन्हें क्लास 4 जॉब मिली। गुजारा मुश्किल था लिहाजा लोगों ने बहुत ही कम दामों में अपनी पुश्तैनी जमीनें बेच दीं। आने वाली पीढ़ी के लिए यहां अब ना जमीन है और ना नौकरी। इसलिए हमारे बच्चे यहां रहना नहीं चाहते। अगर नौकरी नहीं मिली तो आने वाले 10-20 सालों में सिख यहां से पलायन कर जाएंगे।’
इसी गांव के रहने वाले ज्ञानी राजेंद्र सिंह बताते हैं, ‘उस दिन मारे गए 35 सिखों का अंतिम संस्कार गुरुद्वारे में हुआ था। शहीद सिखों की याद में वहां एक हॉल बना दिया गया है, जहां उनकी तस्वीरें टंगी हैं। लोग अफसोस तो जताते हैं लेकिन हमारे लिए कुछ करते नहीं। हमारे बच्चे पढ़े-लिखे हैं लेकिन यहां नौकरी नहीं है, इसलिए घाटी छोड़कर जा रहे हैं। गांव में अब ज्यादातर बूढ़े ही बचे हैं। एक समय आएगा जब सब लोग यहां से पलायन कर जाएंगे।’

चित्तीसिंहपुरा गांव में हुए आतंकी हमले में मारे गए सिखों की तस्वीरें गांव के गुरुद्वारे में लगी हैं।
50 साल की कुलवंत कौर के घर वाले भी इस घटना में मारे गये थे। वो कहती हैं, ‘मेरे घर के 5 लोगों को आतंकियों ने मार दिया था। उसी शाम मेरा भाई मुझसे मिलने आया था। वो जैसे ही घर में घुसा आतंकी उसे पकड़कर ले गए और गोली मार दी। पति और भाई दोनों एक साथ इस दुनिया से चले गए।
उस वक्त मेरे तीनों बच्चे बहुत छोटे थे। उनकी देखभाल करना और परिवार चलाना बहुत मुश्किल था। एक-एक दिन बहुत मुश्किल से गुजरा। ये कहते ही कुलवंत की आंखें डबडबा जाती हैं।

कुलवंत सिंह अपने पति की तस्वीर दिखाते हुए।
रुंधे गले से वह कहती हैं कि मुझे हर दिन ये बात खाती है कि मेरी वजह से वो मारा गया। पति और भाई के एक साथ जाने के बाद मैं टूट गई, अकेली हो गई। मेरा घर तो खाली हो गया। आज भी कोई शाम नहीं गुजरती जब मैं उन्हें याद करके रोती नहीं। सरकार से बस ये उम्मीद है की हमारे लोगों के कातिल तो नहीं पकड़े गये पर ये पकड़े जाने चाहिए। आतंकियों को ये बताना जरूरी है कि हमारी जिंदगी इतनी सस्ती नहीं।’