नई दिल्ली4 मिनट पहले
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अभी सैनिक ECWCS यूनिफॉर्म पहनते हैं।
रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) ने सियाचिन और लद्दाख बॉर्डर पर भीषण ठंड में तैनात सैनिकों के लिए नई यूनिफार्म लांच की। इसे हिमकवच नाम दिया गया है। यूनिफॉर्म ने सभी टेस्टिंग पास कर ली हैं। हिमकवच 20°C से लेकर -60°C तक के तापमान पर काम करने के लिए डिजाइन किया गया है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, हिमकवच एक क्लोदिंग सिस्टम है जिसे कई लेयर की ड्रेसेज मिलाकर तैयार किया गया है। सभी लेयर्स को गर्मी पैदा करने के लिए इन्सुलेशन सिस्टम के मुताबिक बनाया गया है। इन लेयर्स में सांस लेने की केपेसिटी और आराम का ध्यान भी रखा गया है। हिमकवच सिस्टम को मॉड्यूलर डिजाइन किया गया है। जिसके चलते जवान इसमें मौसम के मुताबिक लेयर हटा और जोड़ सकते हैं।
DRDO की ओर से लॉन्च हिमकवच क्लोदिंग सिस्टम से बनी यूनिफॉर्म्स।
अभी सैनिक ECWCS यूनिफॉर्म पहनते हैं अभी माइनस डिग्री में बॉर्डर पर तैनात सैनिक तीन लेयर वाली एक्सट्रीम कोल्ड वेदर क्लोथिंग सिस्टम (ECWCS) से बनी यूनिफॉर्म पहनते हैं। इसे DRDO के डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ फिजियोलॉजी एंड एलाइड साइंसेज (DIFAS) ने डेवलप किया था।
ECWCS यूनिफॉर्म से सैनिकों को इन्सुलेशन और वॉटरप्रूफिंग मिलती है, लेकिन सियाचिन जैसी भीषण ठंड पड़ने वाली जगहों पर ये पूरी तरह कारगर नहीं है। वहीं, हिमकवच ECWCS से काफी अपडेटेड है जिससे अब सैनिकों को ज्यादा ठंडे मौसम में बॉर्डर की देखरेख करने में आसानी होगी।
सियाचिन ग्लेशियर देश ही नहीं, दुनिया के सबसे खतरनाक युद्ध क्षेत्रों में से एक है।
56 साल बाद भी सुरक्षित मिला जवान का शव सियाचिन ग्लेशियर देश ही नहीं, दुनिया के सबसे खतरनाक युद्ध क्षेत्रों में से एक है। यहां की खून जमा देने वाली ठंड में भी भारतीय सैनिकों की तैनाती रहती है। सियाचिन सहित हिमालय पर भारतीय सेना की जितनी भी पोस्ट हैं, वहां की परिस्थितियां आम इंसानों के लिए जानलेवा होती हैं। ऐसे में सैनिकों को इन जगहों पर भेजने से पहले विशेष ट्रेनिंग दी जाती है।
करीब 3 महीने पहले हिमाचल प्रदेश में रोहतांग दर्रे से भारतीय सेना के जवान मलखान सिंह शव बरामद हुआ। खास बात यह है कि उनकी मौत 56 साल पहले 7 फरवरी, 1968 को एक प्लेन क्रैश में हुई थी। भीषण ठंड की वजह से उनका शव पांच दशक बाद भी सुरक्षित था। पूरी खबर पढ़ें…
सियाचिन जैसी ठंडी जगहों के जानलेवा होने की 3 वजह 1. हद से ज्यादा ठंड: सियाचिन ग्लेशियर में साल भर तापमान शून्य से नीचे रहता है। यह -20°C से -60°C के बीच घटता-बढ़ता रहता है। बर्फीले तूफान आना यहां सामान्य बात है।
2. ज्यादा ऊंचाई: सियाचिन ग्लेशियर हिमालय पर्वत के काराकोरम रेंज का हिस्सा है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से करीब 20 से 23 हजार फीट है। इस ऊंचाई पर इंसानों का जिंदा रह पाना चुनौतीपूर्ण होता है।
यहां के वातावरण के मुताबिक शरीर को ढाले बिना अचानक इतनी ऊंचाई पर जाकर जिंदा नहीं रहा जा सकता है। अमेरिकी जर्नलिस्ट बैरी बेराक इस जगह के बारे में कहते हैं- ये ऐसी जगह है, जहां राइफल्स को पिघलाया जाना चाहिए और मशीन गंस को खौलते पानी में उबालना चाहिए।
3. ऑक्सीजन की कमी: ज्यादा ऊंचाई की वजह से यहां हवा का दबाव कम होता जाता है। इस कम दबाव की वजह से हवा की सघनता कम होती जाती है। इस कम सघन हवा में जाहिर तौर पर ऑक्सीजन का दबाव कम पड़ जाता है।
ऐसे में, सांस लेने पर शरीर के अंदर जरूरत से कम मात्रा में ऑक्सीजन पहुंचता है। इससे खून में ऑक्सीजन की मात्रा कम पड़ने लगती है। यह स्थिति किसी भी इंसान के लिए जानलेवा होती है।
सैनिकों को इन जगहों पर भेजने से पहले विशेष ट्रेनिंग दी जाती है।
सियाचिन में तैनात सैनिकों नींद न आने और मेमोरी लॉस का खतरा सियाचिन ग्लेशियर तीन तरफ से पाकिस्तान और चीन से घिरा है। खराब मौसम में भी भारतीय सैनिक चौबीस घंटे सीमा की निगरानी करते हैं। पहले यहां आर्मी की तैनाती नहीं थी लेकिन 1984 में पाकिस्तान की घुसपैठ के बाद भारत ने ‘ऑपरेशन मेधदूत’ के जरिए दुनिया के सबसे ऊंचे और ठंडे बैटल फील्ड को वापस अपने कब्जे में लिया।
- सियाचिन पोलर रीजन के अलावा धरती पर मौजूद सबसे बड़ा ग्लेशियर है।
- यहां चीन-पाक से सटी 75 KM बॉर्डर की निगरानी करना आर्मी के लिए सबसे कठिन है।
- सोल्जर यहां विशेष तरह के इग्लू कपड़ों में रहते है। सैनिक महीने में सिर्फ एक बार नहाते हैं।
- सैनिकों को यहां हाइपोक्सिया और हाई एल्टीट्यूड जैसी बीमारियां हो जाती है।
- वजन घटने लगता है। भूख नहीं लगती, नींद नहीं आने की बीमारी। मेमोरी लॉस का भी खतरा।
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