प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों अमेरिकी पॉड कास्ट होस्ट लेक्स फ्रिडमैन से बातचीत के दौरान मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के विचारपुर गांव का जिक्र किया था। उन्होंने कहा कि गांव के लोग चार पीढ़ियों से फुटबॉल खेल रहे हैं। उनमें फुटबॉल के प्रति गहरा
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ये कोई पहला मौका नहीं था जब पीएम मोदी ने इस गांव का जिक्र किया है। दो साल पहले रेडियो प्रोग्राम मन की बात में भी वे विचारपुर गांव का जिक्र कर चुके थे। जिस गांव का जिक्र पीएम मोदी दो-दो बार कर चुके हैं, वहां जमीनी हालात क्या है? गांव में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए मप्र सरकार की तरफ से क्या कोशिश की गई है?
ये जानने के लिए दैनिक भास्कर की टीम विचारपुर गांव पहुंची। यहां फुटबॉल खेलने वाले प्लेयर्स से बात की तो पता चला कि बच्चों के खेलने के लिए कोई स्टेडियम तक नहीं है। पेरेंट्स उधार लेकर बच्चों को फुटबॉल किट दिलाते हैं। वहीं प्रशासन की तरफ से फुटबॉल को बढ़ावा देने के नाम पर पिछले दो साल में 12 फुटबॉल दी गई है। जिला कलेक्टर जमीनी हालातों से अनजान हैं। पढ़िए एमपी के ‘मिनी ब्राजील’ कहे जाने वाले विचारपुर गांव की हकीकत…
गांव की खाली पड़ी 6 एकड़ जमीन ही खेल का मैदान जिस गांव की पीएम मोदी दो-दो बार तारीफ कर चुके हैं। गांव के फुटबॉल खिलाड़ियों से मिल चुके हैं, वहां एक मिनी स्टेडियम तो होगा ही। यही सोचकर भास्कर की टीम विचारपुर गांव पहुंची। मगर, सच्चाई इसके उलट निकली। गांव में खाली पड़ी 6 एकड़ जमीन पर बच्चे फुटबॉल खेलते हैं।
ये मैदान भी दो साल पहले ही खेलने के लिए दिया गया है। इससे पहले ये पंचायत की जमीन थी। मैदान के बीचो-बीच अभी पंचायत भवन और पानी की टंकी बनी हुई है। मैदान की हालत बहुत खराब है। न तो कोई बाउंड्री वॉल है और न ही मैदान समतल है।
यहां मुलाकात हुई कोच रईस अहमद से। उन्होंने बताया कि प्रैक्टिस के दौरान बच्चों के पैरों की मसल्स में अक्सर खिंचाव हो जाता है। बाउंड्री वॉल न होने से रात को सारे मवेशी यहां इकट्ठा हो जाते हैं। सुबह जब बच्चे प्रैक्टिस के लिए आते हैं, तो सबसे पहले मैदान से गोबर साफ करते हैं।
उन्हीं पास कोच अनिल सिंह भी खड़े थे। उन्होंने बताया कि कोल माइंस कंपनी ने साल 2022 में ग्राउंड में 4 बड़ी लाइट लगाई थीं। वो लाइट्स भी अब चोरी हो चुकी है।

विचारपुर गांव ये वो मैदान है जहां बच्चे फुटबॉल की प्रैक्टिस करते हैं।
माता-पिता उधार लेकर बच्चों को फुटबॉल किट दिलाते हैं अनिल सिंह बताते हैं कि इतने अभाव के बावजूद गांव के हर घर में एक फुटबॉल प्लेयर है। इसकी वजह है कि बच्चों को सीनियर प्लेयर्स सपोर्ट करते हैं। माता-पिता का भी सपोर्ट रहता है। वे उधार लेकर बच्चों को फुटबॉल किट दिलाते हैं और एकेडमी में भेजते हैं।
उनसे पूछा कि यहां कौन सी एकेडमी चल रही है? तो उन्होंने पंचायत भवन पर खेलो इंडिया सेंटर का पोस्टर दिखाते हुए कहा- ये दो साल पहले खुला है। यहां गांव की ही नेशनल फुटबॉल प्लेयर लक्ष्मी को 5 साल के लिए कोच नियुक्त किया है। इसी एकेडमी में सारे बच्चे खेलते हैं।
अनिल आगे कहते हैं कि ये दुख की बात है कि जो प्लेयर नेशनल गेम में मैडल जीते हैं वो अब गुमनाम है, जैसे ओमप्रकाश कोल ने अंडर 14 नेशनल में मेडल जीता था। वह बहुत तगड़ा प्लेयर था। राकेश कोल इतना अच्छा खिलाड़ी रहा कि 7-8 नेशनल गेम खेले। एमपी टीम की कप्तान और 10 से 12 नेशनल खेलने वाली रजनी सिंह, 13 नेशनल खेलने वाली सुजाता हैं।
ये ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जिन्हें मध्यप्रदेश का हर एक अधिकारी नाम से जानता था। जब तक ये स्कूल में रहे तब तक जमकर खेले, जैसे ही 12वीं पास की उसके बाद इनके पास रोजी रोटी का कोई जरिया नहीं रहा।

अब जानिए क्या कहते हैं प्लेयर्स और उनके परिजन

रजनी बोली- अपने सर्टिफिकेट किसी को नहीं दिखाती जिस मैदान पर बच्चे खेलते हैं उससे थोड़ी दूर पर रजनी का मकान है। बच्चों के स्कूल की छुट्टियों की वजह से वह अपने मायके आई है। जैसे ही रजनी के घर पहुंचे तो मां शाति से मुलाकात हुई। वह फुटबॉल का नाम सुनकर ही गुस्से से बोली- मेरे पति और 4 बच्चे फुटबॉल खेले हैं। अब बच्चों के बच्चे भी फुटबॉल खेल रहे हैं। मगर, इसका क्या फायदा मिला?
जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विचारपुर गांव के बारे में कुछ बोलते हैं, तो अधिकारी और मीडिया के लोग दौड़े चले आते हैं, लेकिन बच्चों के भविष्य के लिए कोई कुछ भी नहीं कर रहा है। इतना कहकर शांति घर के भीतर चली गई। रजनी बाहर आई तो उसके हाथ में नेशनल और स्टेट सर्टिफिकेट की फाइल थी। उसने एक-एक कर 12 सर्टिफिकेट चबूतरे पर रख दिए।

रजनी सिंह को अलग-अलग टूर्नामेंट में मिले सर्टिफिकेट्स।
इतने साल फुटबॉल खेलने के बाद भी हाथ में कुछ नहीं है रजनी ने बताया कि पापा की वजह से मैंने स्कूल टाइम से फुटबॉल खेलना शुरू किया। पापा और उनकी टीम प्रैक्टिस करते थे। मैं गोल पोस्ट के पीछे खड़े होकर फुटबॉल लाकर उन्हें देती थी। फुटबॉल खेलने वाली मैं गांव की पहली लड़की थी। हम सिर्फ खेले ही नहीं, मेडल भी जीते हैं। कोलकाता, गोवा, दिल्ली, असम की टीमों को हराया।
वो बताती है कि सामने वाली टीम को जब हमारी टीम के बारे में पता चलता, तो वो पहले ही हौसला खो देते थे। रजनी आगे कहती हैं- मेरा नेशनल टीम में सिलेक्शन हो गया था, लेकिन माता-पिता की हैसियत नहीं थी कि वो मुझे आगे मदद कर सके। स्कूल की पढ़ाई पूरी हुई तो शादी हो गई। मेरे 3 बच्चे हैं।
इस बात का मलाल है कि जितनी शिद्दत से फुटबाल खेली उसका 10 फीसदी भी नहीं मिला। मैं तो अपने बच्चों को ठीक से पढ़ा भी नहीं पा रही हूं। इतने साल खेलने के बाद भी मेरे हाथ कुछ नहीं लगा। कोई पूछने वाला भी नहीं है।

रजनी की बहनें बोलीं- किसी ने गाइड ही नहीं किया रजनी की दो जुड़वां बहनें सीता और गीता भी नेशनल प्लेयर रही हैं। गीता बताती है कि वह 6 साल की उम्र से फुटबॉल खेल रही हैं और 2008- 09 में नेशनल गेम खेल चुकी हैं। रजनी दीदी और सुजाता दीदी की वजह से गांव में लड़कियां खेलने के लिए आगे आईं।
हम बहुत अच्छा फुटबॉल खेलते थे। थोड़ा सा सपोर्ट मिल जाता तो भारत के लिए खेलते। अब शादी हो गई है। जुड़वां बहन सीता कहती है- नेशनल प्लेयर होने के बाद सोचा नहीं था कि सिलाई- कढ़ाई करना पड़ेगी। बहुत मेहनत के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया। हमारे लिए आगे का कुछ सोचा ही नहीं गया।
स्टेट टीम से खेल लिए, बस बहुत है। आगे के लिए न तो गाइड किया गया और न ही आगे बढ़ाने के प्रयास किए गए।

यहां के खिलाड़ियों में भारतीय टीम से खेलने की क्षमता: शंकर 4 साल की उम्र से फुटबॉल खेल रहे शंकर इस समय रिलायंस फाउंडेशन के ग्रास रूट ट्रेनर है। वह एक सरकारी स्कूल के बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग देते हैं। शंकर कहते हैं- हमारे गांव में बहुत टैलेंट है। वो सभी अपने दम पर नेशनल गेम्स खेले हैं। नेशनल के बाद आगे खेलने के लिए सरकार के सहयोग की जरूरत होती है। वह हमें नहीं मिला।
यहां के प्लेयर्स में भारतीय टीम के साथ आईएसएल जैसी लीग में खेलने की क्षमता है। वे कहते हैं कि स्कूल में बच्चे जमकर खेलते हैं, लेकिन 12वीं पास करने के बाद उन पर अचानक पैसा कमाने का दबाव आ जाता है। यहां किसी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है।बच्चों को प्रॉपर डाइट की जरूरत होती है। न तो उन्हें डाइट मिलती है और न ही किट।
शंकर बताते हैं कि मेरे सीनियर जब ग्राउंड पर उतरते थे तो सामने वाले डरते थे, वे आज मजदूरी कर रहे हैं। जब सीनियर्स को समय मिलता है तो वे बच्चों को ट्रेनिंग देते हैं। अगर यहां का एक बच्चा भी इंडियन फुटबॉल टीम में या आईएसएल में सलेक्ट हो जाता है तो फिर से फुटबॉल के प्रति जुनून जाग जाएगा।

कपड़े और पॉलिथीन की फुटबाल से प्रैक्टिस करते थे: सीताराम सीनियर प्लेयर सीताराम भी रिलायंस फाउंडेशन की तरफ से स्कूली बच्चों को ट्रेनिंग दे रहे हैं। सीताराम बताते हैं कि जब हमने फुटबॉल खेलना शुरू किया तब स्थिति बहुत खराब थी। हम कपड़े और पॉलिथीन से फुटबॉल बनाकर खेलते थे। फुटबॉल खेलते- खेलते 6 साल हो गए थे तब जाकर प्रॉपर किट के साथ फुटबॉल खेलना शुरू किया।
वे कहते हैं फुटबॉल से बहुत उम्मीदें थी। मेरे फेवरेट प्लेयर डेविड बैकहेम थे, लेकिन कभी प्रॉपर डाइट नहीं मिली। हम तो अभी भी प्रॉपर डाइट लेने के लायक नहीं है। मोदी जी ने हमारे गांव का जिक्र किया तो दुनिया भर में ये सुर्खियों में आ गया, लेकिन फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए जो प्रयास होने चाहिए थे, वो नहीं हुए।

कोई फायदा नहीं हुआ, अब उम्मीद भी नहीं: धन्वंतरी सात नेशनल गेम्स खेल चुकी धन्वंतरी कहती है कि मैं अपनी टीम की गोलकीपर थी। हमारी टीम जब टूर्नामेंट में हिस्सा लेती थी तो विरोधी टीम के खिलाड़ी कहते थे- कुछ भी हो जाए आदिवासियों की टीम से मैच न हो। धन्वंतरी कहती है कि हमारे वक्त पर कोई सुविधा नहीं थी। फुटबॉल नहीं थी। सिर्फ एक कोच थे। सीनियर्स का ही सपोर्ट था।
अब तो मेरी शादी हो गई है। तीन बच्चे हैं। घर में भी किसी को फर्क नहीं पड़ता कि मैं कितना फुटबॉल खेली हूं। घर का काम हो जाता है, वो काफी है। कभी दिन-रात सोचती थी कि नौकरी मिल जाए या कुछ फायदा हो जाए। लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ और अब कोई उम्मीद भी नहीं है।

लक्ष्मी बोली कि बच्चे पूछते हैं- मैडम किट कब मिलेगा? धन्वंतरि की बहन लक्ष्मी गांव के खेलो इंडिया सेंटर की इकलौती कोच है। वह नेशनल प्लेयर रह चुकी हैं। बातचीत के दौरान लक्ष्मी कहती है कि जिस मैदान से फुटबॉल सीखा वहां अब बच्चों को ट्रेनिंग दें रही हूं, इससे मैं खुश हूं। लक्ष्मी से पूछा कि कोच के तौर पर क्या चुनौतियां हैं, तो बोली- बच्चे जब पूछते हैं कि मैडम किट कब मिलेगा? मैं इस सवाल का उन्हें जवाब नहीं दे पाती।
सेंटर शुरू हुए दो साल हो चुके हैं, लेकिन अभी तक किट नहीं मिला। खेलो इंडिया सेंटर में अभी 60 से 70 बच्चे हैं। सभी गरीब परिवारों से हैं। इनमें से 25- 30 के पास ही प्रॉपर किट है। ग्रांउड भी फुटबॉल खेलने लायक नहीं है। इसके बाद भी बच्चों के जुनून में कोई कमी नहीं है। वो इन्हीं संसाधनों में बेहतर करने की कोशिश करते हैं।

कलेक्टर बोले- नेशनल प्लेयर मजदूरी नहीं कर सकते गांव के हालात जानने के बाद भास्कर की टीम ने शहडोल के जिला कलेक्टर डॉ. केदार सिंह मुलाकात की और उन्हें जमीनी हकीकत के बारे में बताया। ये भी बताया कि सरकार की तरफ से मदद के नाम पर पिछले 2 साल में केवल 12 फुटबॉल दी गई है। केदार सिंह चौंक कर बोले- ऐसा नहीं हो सकता।
हमारे इतने सारे खेल संघ है, स्पोर्टस ऑफिसर हैं। जिले में तो हम स्पोर्ट्स किट भेजते रहते हैं। यदि विचारपुर में कमी है ताे मैं कमी नहीं होने दूंगा। इसे बेहतर करने की कोशिश करेंगे। उन्हें बताया कि गांव के जो सीनियर नेशनल प्लेयर हैं वो मजदूरी कर रहे हैं, तो कलेक्टर ने फिर हैरानी जताई और कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है?
