ग्वालियर में जब भी चिकित्सा क्षेत्र और शिक्षा की बात होती है, तो डॉ. पुरुषोत्तम दास वैश्य का जिक्र किए बिना चर्चा अधूरी मानी जाती है। ग्वालियर के एक व्यापारिक परिवार में जन्मे डॉ. वैश्य ने बचपन से ही आर्थिक और व्यावहारिक चुनौतियों का सामना किया, लेकि
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आज, 8 अप्रैल को हम उनका जिक्र इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि 17 साल पहले इसी दिन उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा था। उनकी 17वीं पुण्यतिथि पर शहर, समाज और चिकित्सा जगत से जुड़े लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। लोग उन्हें केवल डॉक्टर पुरुषोत्तम दास वैश्य नहीं, बल्कि स्नेह पूर्वक ‘डॉक्टर साहब’ या ‘पी.डी. वैश्य’ के नाम से भी जानते थे।
21 साल की उम्र में मिला था मेडिकल कॉलेज में प्रवेश
पुरुषोत्तम दास वैश्य का डॉक्टर बनने का सपना 21 साल की आयु में साकार हुआ। उनकी प्रतिभा और लगन के चलते साल 1955 में उन्हें गजरा राजा मेडिकल कॉलेज (GRMC) में प्रवेश मिला। उस समय जीआरएमसी मध्यप्रदेश का पहला और देश के प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेजों में से एक माना जाता था। साल 1960 में उन्होंने एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त की और 1963 में जनरल मेडिसिन में एमडी की उपाधि हासिल की। इसके बाद वे डॉक्टर पुरुषोत्तम दास वैश्य के नाम से पहचाने जाने लगे।
पत्नी, बेटा और तीन बेटियों के साथ डॉ. पुरुषोत्तम दास वैश्य।
विदेश जाने का अवसर ठुकराया, फीस 25 पैसे
डॉ. पुरुषोत्तम दास वैश्य 1963 में डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद विदेश जा सकते थे। उन्हें कई आकर्षक ऑफर मिले, लेकिन उन्होंने अपनी जन्मभूमि की सेवा का संकल्प लिया। उन्होंने अपने घर से ही निजी प्रैक्टिस की शुरुआत की। उस दौर में जब डॉक्टरों की फीस आम आदमी की पहुंच से बाहर होती थी। डॉ. वैश्य केवल 25 पैसे में मरीजों का इलाज करते थे। समय के साथ यह फीस बढ़कर भी अधिकतम 15 रुपए तक ही सीमित रही।उनका मानना था कि इलाज की कीमत कभी किसी गरीब के लिए बीमारी से भी बड़ा बोझ नहीं बननी चाहिए।
साधारण दवाओं से असाधारण इलाज करते थे डॉ. वैश्य
डॉ. पुरुषोत्तम दास वैश्य ज्यादातर क्लिनिकल निदान (रोगी की शारीरिक जांच और लक्षणों के आधार पर उपचार) पर भरोसा करते थे। वे बिना कारण महंगे टेस्ट या इंजेक्शन लिखने से परहेज करते थे। उनके पास आने वाले अधिकांश मरीजों का इलाज सामान्य दवाओं जैसे गोलियों या सिरप से ही हो जाता था। यही कारण था कि वे केवल एक डॉक्टर नहीं, बल्कि हर परिवार के विश्वासपात्र बन गए थे और पूरे जीवन एक सादगीपूर्ण जीवन जीते रहे।

नि:शुल्क स्वास्थ्य शिविर लगाए, लायंस क्लब से जुड़े
डॉ. वैश्य सिर्फ एक कुशल चिकित्सक ही नहीं, बल्कि समाज सुधारक भी थे। साल 1966 में वे ग्वालियर लायंस क्लब के सेक्रेटरी बने, जहां उन्होंने गरीबों के लिए नि:शुल्क चिकित्सा शिविरों और शिक्षा अभियान चलाए। उनकी दिनचर्या बहुत ही अनुशासित थी। सुबह जल्दी उठना, समय पर क्लिनिक खोलना और हर मरीज को पूरे धैर्य व संवेदनशीलता के साथ सुनना उनकी आदत में शामिल था। उनके व्यक्तित्व में विनम्रता, ईमानदारी और करुणा की ऐसी छवि थी कि लोग उन्हें केवल एक डॉक्टर नहीं, बल्कि अपने परिवार का सदस्य मानते थे।
ऐसा रहा डॉ. वैश्य का पारिवारिक और गृहस्थ जीवन
साल 1960 में डॉ. पुरुषोत्तम दास वैश्य का विवाह विमला देवी से हुआ, जिसके बाद वे गृहस्थ जीवन से जुड़ गए। उन्होंने अपने चार बच्चों, बेटे डॉ. राजू वैश्य और बेटियों आरती, डॉ. अमिता एवं सीमा को संस्कारवान बनाया। डॉ. वैश्य ने न केवल अपने परिवार में चिकित्सा सेवा की अलख जगाई, बल्कि एक गौरवशाली विरासत भी छोड़ी। उनके बेटे डॉ. राजू वैश्य और पोते डॉ. अभिषेक वैश्य वर्तमान में दिल्ली के प्रतिष्ठित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में प्रसिद्ध ऑर्थोपेडिक सर्जन के रूप में कार्यरत हैं, जिन्होंने देश ही नहीं, विदेशों में भी भारत का नाम रोशन किया है।
उनके छोटे भाई, डॉ. एन.डी. वैश्य, ग्वालियर के जाने-माने न्यूरोसर्जन रहे हैं। डॉ. पुरुषोत्तम दास वैश्य अपने परिवार में पहले डॉक्टर थे, लेकिन उनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन के चलते आगे चलकर 40 से अधिक परिवारजन (जिनमें उनके बच्चे, दामाद, पोते-पोतियां शामिल हैं) चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े। उनकी यह विरासत सिद्ध करती है कि एक सच्चे शिक्षक, मार्गदर्शक और कर्मयोगी का प्रभाव कई पीढ़ियों तक जीवित रहता है।