अयोध्या में रामलला की प्रतिमा बनाने वाले अरुण योगीराज ने कहा- मेरे पिताजी ने कभी मेरे काम की तारीफ नहीं की। हमेशा कहते थे और सुधार करो। फिर उनके दोस्तों से सुना कि वे हमेशा कहते थे कि मैं एक दिन बहुत बड़ा मूर्तिकार बनूंगा।
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मेरे पास मूर्ति खरीदने आए एक टूरिस्ट ने मेरा अहंकार तोड़ा था। 500 मूर्तियों में से उसने सिर्फ 3 मूर्तियां सिलेक्ट की। वो सभी मूर्तियां उनके पिता और दादा की बनाई हुई थीं। पूछने पर उस टूरिस्ट ने कहा- सिर्फ इन तीन मूर्तियों में जान हैं। इनमें जीवन नजर आता है।
अरुण योगीराज सोमवार को बीकानेर की महाराजा गंगा सिंह यूनिवर्सिटी में आए थे। यहां उन्होंने दैनिक भास्कर के साथ कई अनसुने किस्से शेयर किए।
अरुण अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं- मुझे जीवन में बहुत सारे ऑप्शन मिले, लेकिन मैंने मूर्तिकला को चुना। एमबीए करने के बाद नौकरी कर रहा था। एक वक्त वो भी था, जब सप्ताह भर का दूध का पेमेंट देना मुश्किल जाता था। MBA के बाद नौकरी भी लगी, लेकिन छोड़ दी। इसके बाद पिता के साथ मूर्ति कला के काम में आ गया।
यूरोप का काम छोड़ा, शंकराचार्य की मूर्ति बनाई अरुण बताते हैं- मुझे याद है। हमें यूरोप में काम करने का ऑफर मिला था। वहां रहकर 1 साल तक सीखना भी था। मूर्तियां भी बनानी थी। इसी दौरान हमें केदारनाथ के शंकराचार्य की मूर्ति बनाने का काम मिला था। तब मैंने यूरोप जाने की बजाय केदारनाथ के शंकराचार्य की मूर्ति बनाने का निर्णय किया। ये मेरे जीवन का सबसे बड़ा निर्णय था।

पिता ने कभी तारीफ नहीं की अरुण बताते हैं- मेरे पिता मुझे हमेशा डांटते थे। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कभी मेरे काम को बेहतर नहीं बताया। उसमें कुछ न कुछ कमी ही निकाली। मुझे कभी परफेक्ट नहीं बताया। सिर्फ डांटते रहते थे कि ये सही नहीं किया, वो सही नहीं किया। हमेशा कोशिश रही कि उनकी प्रशंसा मिले, लेकिन कभी नहीं मिली। शंकराचार्य की मूर्ति बनाने के बाद ही उन्होंने मुझे कॉल किया और मेरी प्रशंसा की। उनके गुजरने के बाद पता चला कि वो अपने मित्रों को कहते थे कि मैं दुनिया का श्रेष्ठ मूर्तिकार बनूंगा। लेकिन, मेरे मुंह पर कभी ऐसा नहीं कहा। हमेशा कहते थे कि सुधार की जरूरत है।

पांच पीढ़ियां कर रही मूर्तिकला का काम योगी बताते हैं कि उनके परिवार की पांच पीढ़ी यही काम कर रही है। उनके पिता, दादा और परदादा यही काम करते रहे हैं। मेरे दादाजी मैसूर राजघराने के राजगुरु के शिष्य थे। उनके दिशा-निर्देशन में ही गुरु परंपरा के तहत दादाजी ट्रेनिंग लेते थे। तब महाराजा उन्हें प्रणाम करते थे। मैं सोचता हूं कि मूर्ति बनाना इतना बड़ा काम है कि एक महाराजा उन्हें प्रणाम करते हैं। फिर अन्य लोग इस काम को छोटा क्यों समझते हैं।
बोले- टूरिस्ट ने उतारी खुमारी अरुण बताते हैं- मुझे भी ये वहम हो गया था कि मैं ही दुनिया का सबसे बड़ा मूर्तिकार हूं। एक टूरिस्ट ने मेरा ये वहम तोड़ दिया। मैसूर में हमारे ऑफिस में 500 से ज्यादा तरह की मूर्तियां रखी हुई हैं। एक टूरिस्ट आया तो उसने इन ढेर सारी मूर्तियों में सिर्फ तीन मूर्तियां चुनीं। मैंने उनसे पूछा कि आपने सिर्फ ये तीन मूर्तियां ही क्यों चुनी? इस पर टूरिस्ट बोला- इन तीन मूर्तियों में जान है। इनमें एक मूवमेंट है। वो तीन मूर्तियां मेरे पिताजी और दादाजी ने बनाई थी।
तब मुझे समझ आया कि सिर्फ कॉपी करने से काम नहीं चलेगा। तब मैंने अपने पिता की हर बात को बहुत सीरियस लेना शुरू किया। मूर्तिकला को फिर से समझने का प्रयास किया। इसी कारण मैं नॉर्मल आर्टिस्ट से अलग हो गया।

रामलला से बात करता था अरुण बताते हैं- जब रामलला की मूर्ति बन रही थी, तब हमारे ऊपर बहुत दबाव था। जिस मूर्ति को देखने के लिए पूरा देश इंतजार कर रहा हो, सोचिए मेरी स्थिति क्या रही होगी। शिल्पशास्त्र कहता है कि आदमी किसी मूर्ति को नहीं बना सकता है। तब मैंने राम जी से बात करनी शुरू की। बोला- आप बताओ कि हमें क्या करना है? वो जो चाहते थे, वैसा ही हम बना रहे थे। हर सेंटीमीटर में मैंने यही सोचा था कि देश को कुछ देना है। मैं जानता था कि वो इस प्रतिमा के अंदर हैं। मैं उनको बोलता था कि आप बताओ कि कैसे करें।
साईं बाबा की 300 फीट की मूर्ति अभी पूरी दुनिया से हमारे पास प्रोजेक्ट आ रहा है। अमेरिका ने एक वक्त हमारा वीजा रद्द कर दिया था। आज हम वहीं पर फिर से काम कर रहे हैं। अमेरिका में साईं बाबा की तीन सौ फीट की एक मूर्ति तैयार कर रहे हें। इसका मॉडल तैयार हो गया है। कुरुक्षेत्र और हैदराबाद में भी प्रोजेक्ट चल रहे हैं, जिस पर जल्दी ही काम शुरू होंगे।
