परोपकारी व्यक्ति बहुत होते हैं। बहुत से दिखावे के लिए परोपकार करते हैं, बहुत करते कुछ नहीं है सिर्फ प्रदर्शन करते हैं। भांति-भांति के लोग इस संसार में है, पर सबसे बड़ा परोपकारी वह है जो खुद कष्ट सहकर भी दूसरे का उपकार करे, जैसे सुदामाजी।
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एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर नैनोद स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में सोमवार को यह बात कही।
द्वारिका से अच्छी बनाई सुदामा नगरी
महाराजश्री ने कहा कि सुदामाजी बहुत विद्वान थे। जब लकड़ी काटने अपने सखा कृष्ण के साथ वन गए, पानी बरस रहा था, ठंड लग रही थी, भूख भी लग रही थी। गुरुमाता ने कुछ चने रख दिए थे। सुदामाजी पेड़ पर चढ़ गए और सारे चने अकेले ही खा लिए, क्योंकि उनको यह मालूम था कि ये चने जो खाएगा वह दरिद्र हो जाएगा। इसलिए उन्होंने सोचा कि भले ही मैं दरिद्र हो जाऊं, पर मेरा कृष्ण दरिद्र नहीं होना चाहिए। कभी कृष्ण से कुछ मांगा भी नहीं। अपनी पत्नी सुशीला के कहने पर जब वे कृष्ण के पास द्वारिका पहुंचे, कृष्ण ने उनका पूजन-अर्चन किया और तिलक करते समय भाग्य बदल दिया। कृष्ण जब सुदामा के लाए चावल खाने लगे तो रुक्मिणीजी बोलीं कि ये क्या कर रहे हो। भगवान बोले ये चावल ही इसका सबकुछ है। मैं राजा हूं तो इसी के कारण हूं। इसलिए मैं भी द्वारिका नगरी से अच्छी सुदामा नगरी बनाऊंगा। भगवान किसी का ऋण नहीं रखते।
इस कहते हैं परोपकार…
डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने एक दृष्टांत सुनाया- एक बार श्रीकृष्ण, कर्ण की उदारता की चर्चा कर रहे थे। तब अर्जुन ने पूछा- क्या, बड़े भ्राता युधिष्ठिर से भी ज्यादा उदार है कर्ण। श्रीकृष्ण ने कहा तो परीक्षा हो जाए। बरसात के दिन थे। कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा हमें चार मन चंदन की सूखी लकड़ी चाहिए। युधिष्ठिर ने मजदूरों को भेजा, बड़ी मुश्किल से एक-डेढ़ मन ही मिल पाई, क्योंकि बारिश में सूखी लकड़ी बहुत कम मिलती है। फिर यही बात कृष्ण ने कर्ण से कही। कर्ण ने तत्काल अपने घर में लगे चंदन के दरवाजे, खिड़की, झूला आदि तोड़कर दे दिए। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि देखो, कर्ण ने खुद कष्ट सहकर खुद के घर के दरवाजे, खिड़की आदि तोड़कर चार मन चंदन की सूखी लकड़ी दे दी। अब तुम्हीं बताओ अर्जुन कि ज्यादा परोपकारी कौन है? वही तो खुद कष्ट में रहकर दूसरों का उपकार करे, कर्ण की तरह।