मैं सुरिंदर पाल, गुरदासपुर के धारीवाल में बसे डंडवा गांव का रहने वाला हूं। इसे जासूसों का गांव कहते हैं। मैं मशहूर जासूस सतपाल सिंह का बेटा हूं, जिन्होंने 14 साल तक देश की खुफिया एजेंसियों के लिए काम किया था। पापा न जाने कितनी बार अपनी जान जोखिम में
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वो दिन मेरे जेहन में किसी पुरानी तस्वीर की तरह छपा हुआ है। जिस दिन तिरंगे में लिपटी पापा की डेड बॉडी पाकिस्तान से हमारे गांव डंडवा आई थी। तिरंगे पर भी पापा का खून लगा हुआ था। मैंने आज भी वो तिरंगा संभाल कर रखा है और उस पर पापा के खून के निशान भी हैं।
सुरिंदर पाल वो तिरंगा दिखा रहे हैं जिस पर खून के निशान हैं।
उस रोज मैं उनकी डेड बॉडी को एक टक देख रहा था। उनके माथे और टांगों पर पट्टी थी। मुंह पर चोट के निशान थे। उनके दांत तोड़ दिए गए थे। हाथों की खून से सनी उंगलियां बता रही थीं कि कितनी बेरहमी से उनके नाखून नोच दिए गए थे। पापा की यह हालत देखकर मां तो उस दिन के बाद से कभी बिस्तर से ही नहीं उठ पाई। हमारा पूरा परिवार सड़क पर आ गया।
इन दिनों तो इंस्टाग्राम में पाकिस्तान का इतना नाम सुनता हूं तो बहुत गुस्सा आता है। वो सबकुछ याद आ जाता है, जो उन लोगों ने मेरे पापा के साथ किया। कोट लखपत राय जेल में पापा के साथ उनके एक दोस्त भी बंद थे। उन्होंने बताया था कि वो लोग पापा को इतना मारते थे कि वो बेहोश हो जाते थे।
पापा को बेहोशी की हालत में कूड़े के ढेर में फेंक देते थे, जब होश आता तो दोबारा उठा लाते थे। फिर मारते थे। अगर मेरे बस में होता तो बॉर्डर पार जाकर उनसे पूछता कि मेरे पापा के साथ ऐसा क्यों किया। पाकिस्तान का नाम सुनते ही मुझे याद आने लगता है कि उन्होंने मेरे पापा को कितनी तकलीफ देकर मारा था।

सुरिंदर पाल के पिता सतपाल सिंह जो देश की खुफिया एजेंसियों के लिए काम करते थे।
1999 में कारगिल का युद्ध चल रहा था। पापा को कुछ जानकारी जुटाने के लिए पाकिस्तान जाना पड़ा। इस बार मां थोड़ा उदास थीं। कहती थीं कि कारगिल में लड़ाई लगी हुई है। मैंने तेरे पापा को जाने से मना किया था, लेकिन वो नहीं माने। बोले बस थोड़ा सा ही काम है। बॉर्डर पर पाकिस्तान की गश्त देख कर रिपोर्ट करनी है।
हमेशा वो तीन दिन में लौट आते थे। इस बार उनके इंतजार में डेढ़ महीना बीत गया। सोते-जागते हर पल मां की निगाहें दरवाजे पर टिकी रहती थीं। एक दिन काली पैंट और सफेद कमीज पहने एक आदमी आया और उसने गांव के बाहर की दुकान पर खबर दी कि सतपाल की पाकिस्तान में मौत हो गई है। उन्हें सीमा पर पकड़ लिया गया था।
पाकिस्तान ने संदेश भिजवा दिया कि दर्शन सिंह (सतपाल ) की लाश मंगवा लो। पापा की लाश पूरे डेढ़ महीने तक वहां के अस्पताल में पड़ी सड़ती रही। हमारे पास तो इतने पैसे नहीं थे कि हम पाकिस्तान से डेड बॉडी मंगवा सकें। उस वक्त पंजाब के बड़े नेताओं (प्रताप सिंह बाजवा और मनिनंदर सिंह बिट्टा) के जरिए बातचीत हुई आखिरकार पापा की लाश सरकारी खर्च पर भारत आई। वो मंजर याद आता है तो दिमाग की नसें फटने को होती हैं।
उनकी लाश वाघा बॉर्डर के जरिए हमारे गांव डंडवा लाई गई। कहते हैं कि 50 साल बाद पाकिस्तान ने किसी की डेड बॉडी लौटाई थी। इसके पहले तक कोई डेड बॉडी पाकिस्तान से भारत नहीं आई थी। गांव में पांव धरने की जगह नहीं थी। कई नेता घर आए बड़ी-बड़ी बातें की। वादे किए, लेकिन बाद में सब भूल गए (ये कहते ही सुरिंदर की आंखों में आंसू आ जाते हैं)।

सुरिंदर पाल अपनी मां को संभालते हुए
मुझे आज भी याद है कि जब पापा जासूसी करते थे तब हमारे घर के बाहर संकरी गलियों में आर्मी की बड़ी-बड़ी चमकती गाड़ियां खड़ी रहती थीं। आसपास के लोग हमसे जलते थे और कानाफूसी करते थे कि इनके घर तो साहब लोग आते हैं। मां बहुत इतरा कर कहती थीं कि इनके पापा आर्मी इंटेलिजेंस (MI) के लिए काम (जासूसी) करते हैं। घर में हमेशा सूखे मेवे और फलों की बहार रहती थी। आर्मी वाले साहब हमेशा ड्राय फ्रूट के बड़े-बड़े डिब्बों के साथ घर आया करते थे।
जब तक पापा थे, हमारा वक्त अच्छा गुजर रहा था। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। मैं और बड़ी बहन 12वीं में और छोटी बहन 8वीं में क्लास में थे। उस दौर में पापा को एक बार पाकिस्तान जाने के लगभग दो हजार रुपए मिलते थे। वो हर महीने पाकिस्तान के कम से कम तीन चक्कर लगाते थे। तब हम बच्चे थे। ये भी नहीं जानते थे कि पापा क्या काम करते हैं। मां केवल इतना बताती थीं कि पापा आर्मी के लिए काम करते हैं।
आज मेरे दिन गुरबत में बीत रहे हैं। बच्चों की फीस तक भरने के लिए पैसे नहीं हैं। हाल ही में बड़े बेटे को प्राइवेट स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में भर्ती करवाया है। छोटे बेटे का एडमिशन दो महीने की देरी से हुआ क्योंकि उसकी फीस के पैसे नहीं थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं, किससे बात करूं, किससे पैसे मांगू।
पुताई का काम करता हूं। इस काम के सिवा मुझे कुछ नहीं आता। चार-पांच दिन में एक बार 300-400 रुपए दिहाड़ी मिल जाती है। इससे कैसे गुजारा करूं। घर की छत भी कच्ची मिट्टी की है। बारिश के दिनों में टपकने लगती है। पूरे घर में पानी भर जाता है। बाथरूम में दरवाजा तक नहीं है, एक पर्दा टंगा है।
लोगों से पैसे मांग-मांग कर थक गया हूं। आखिरकार एक दिन अपने बड़े बेटे अक्षय के साथ गया और एक होटल में नौकरी की बात कर ली। रात के वक्त वेटर की नौकरी मिली। इसके लिए 500-500 रुपए मिलते। तब कहीं जाकर छोटे बेटे की फीस के 1000 रुपए भरे हैं। मेरे पापा ने देश के लिए जान दे दी। अपने परिवार के बारे में भी नहीं सोचा। उनके जाने पर सरकारों और नेताओं ने नौकरी के वादे किए, लेकिन किसी ने एक भी वादा पूरा नहीं किया।
मेरे बच्चे चटनी के साथ रोटी खाते हैं। सुबह जब काम पर जाता हूं तो पत्नी कॉपी के पन्ने पर रोटी लपेट कर देती हैं। कई घंटों पैदल चलता हूं। छोटे शहर हैं ऑटो भी जल्दी नहीं मिलता है। एक सेकेंड हैंड साइकिल देख रहा हूं, लेकिन पैसे नहीं हैं।

चटनी के साथ रोटी खाते सुरिंदर पाल सिंह के दोनों बच्चे।
इस जमाने में मेरे घर में लाइट नहीं है। फ्रिज नहीं है। बच्चों को टीवी देखे हुए अरसा बीत गया है। रिचार्ज के पैसे नहीं हैं। एक कमरा है, उसी के एक कोने में रसोई हैं और वहीं चारों लोग सोते हैं। यह सब भाषणों में अच्छा लगता है कि पढ़ो, पढ़ाई के बिना कुछ नहीं है। जिसके घर का चूल्हा नहीं जलता है न, वो ही जानता है कि उसे किसी भी तरह से सिर्फ कमाना है। मुझे याद है कि मेरे घर दो-दो दिन रोटी नहीं बनी है। ऐसे में किसी को क्या पढ़ाई सूझेगी।
सुरिंदर पाल ने भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से ये सारी बातें शेयर की हैं…