कभी पटना की सड़कों पर सब्जी बेचने वाले दिलखुश आज करोड़ों रुपए के मालिक हैं। उनकी कंपनी की क़ुल नेटवर्थ 150 करोड़ है। ऑफिस का स्टाफ और ड्राइवर मिलाकर 550 लोग उनके यहां नौकरी कर रहे हैं।
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पैसे की तंगी में पिताजी से ड्राइविंग सीखी और किसी और के यहां 3 हजार रुपए महीने की सैलरी पर ड्राइवर की नौकरी की। आज दिलखुश के अंडर में 500 से ज्यादा गाड़ियां पूरे बिहार में चलती हैं।
दिलखुश ने कम उम्र में गांव की ही लड़की से लव मैरिज की है। एक समय ऐसा था जब पत्नी के सिंदूर और लिपस्टिक के लिए उन्हें पिता से पैसे मांगने पड़ते थे।
दिलखुश ने कभी एक स्कूल में चपरासी की नौकरी नहीं मिलने पर अपने सर्टिफिकेट जला दिए थे। इस बार ‘मैं बिहारी’ में बात सहरसा के दिलखुश कुमार की…
दिलखुश कुमार का घर बिहार के सहरसा जिला मुख्यालय से 8 किलोमीटर दूर बनगांव में है। वो बताते हैं ‘मेरे पिताजी तीन भाई थे। दो भाई दूसरे प्रदेश में ड्राइविंग का काम करते थे। जबकि, मेरे पिताजी गांव में भैंस चराते और दूध बेचते थे। परिवार काफी गरीब था। पिताजी के लिए घर चलाना काफी मुश्किल हो रहा था। हम सिर्फ दो भाई ही हैं।’
‘हम गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे। जिस शर्ट और पैंट को पहन कर सोता और खेलता था, उसी कपड़े को पहनकर स्कूल चला जाता था। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। पिताजी दूध बेचते थे और जो पैसे मिलते थे, उससे घर के लिए सामान और सब्जी खरीदकर लाते थे। तब घर में खाना बनता था।’
‘हमारी स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी। हम भी बड़े होने लगे थे। घर के बिगड़ते हालात को देखकर दादाजी ने पिताजी को भी बाहर जाकर कोई काम करने का सुझाव दिया। पिताजी ने भी ड्राइविंग सीखी और गांव में ही सहरसा से दरभंगा के बीच बस चलाने लगे। उन्हें एक दिन के 90 रुपए मिलते थे।’
पत्नी खुशबू कुमारी के साथ दिलखुश।
10वीं के बाद कम उम्र में ही लव मैरिज कर ली
‘मैंने 2009 में मैट्रिक की परीक्षा थर्ड डिविजन से पास की। रिजल्ट खराब होने पर गांव वाले, रिश्तेदार सभी मजाक उड़ाते थे। कइयों ने तो ताने भी मारे। इसी बीच गांव की ही लड़की से प्यार हो गया था। दसवीं पास करने के बाद काफी कम उम्र में ही उससे शादी कर ली। शादी में कुछ दिक्कतें आईं, लेकिन बाद में दोनों के घर वाले मान गए।’
‘मैं कोई काम नहीं कर रहा था। शादी के बाद मेरी भी जिम्मेदारी बढ़ने लगी थी। पत्नी की हर ख्वाहिश पूरी करने के लिए पिताजी से पैसे मांगने पड़ते थे। पत्नी के लिए सिंदूर, लिपस्टिक, चूड़ी तक के लिए पिताजी से पैसे मांगने पड़ते थे। उनसे पैसे मांगने में काफी शर्म भी आती थी, लेकिन मैं मजबूर था, क्योंकि मैं कमा नहीं रहा था।’
‘2011 में इंटर की परीक्षा दी और सेकेंड डिवीजन से पास हो गया। इंटर में सेकेंड डिवीजन से पास होने पर मन में थोड़ी-सी ऊर्जा आई। इंटर के बाद सोचा की अब कोई नौकरी करूंगा। नौकरी के लिए कई दोस्तों, रिश्तेदारों और गांव वालों को कहा था कि कहीं कोई जॉब हो तो मुझे लगवा दो।
मुझे नहीं पता था कि नौकरी के लिए कोई स्किल होनी चाहिए। मैं तो कोई ऑफिस या साहब वाली नौकरी सोच भी नहीं सकता था। मैं कोई छोटी-मोटी नौकरी ढूंढ रहा था, जिससे पिताजी से पैसे नहीं मांगने पड़े।’

दिलखुश बताते है कि इंटर के बाद मैं कोई छोटी-मोटी नौकरी ढूंढ रहा था, जिससे पिताजी से पैसे ना मांगने पड़े।
इंग्लिश नहीं आने के कारण नहीं मिली चपरासी की नौकरी
‘2011 सहरसा में जॉब कैंप लगा था। पटना के एक अच्छे इंग्लिश स्कूल में लिए चपरासी की नौकरी निकली थी। इस जॉब कैंप के बारे में मेरे दोस्तों ने मुझे बताया। चपरासी की नौकरी के लिए मैंने भी अप्लाई कर दिया।
इंटरव्यू के लिए अगले दिन मुझे पटना बुलाया गया। तब हमारे गांव में तुरंत ही बिजली आई थी और घर में कपड़ा प्रेस करने के लिए इस्तरी नहीं थी। मेरी पत्नी और मां ने एक थैले में कपड़ा और एक समय का खाना पैक करके दे दिया।’
‘पटना पहुंचकर मैंने थैले से कपड़े निकाले और उसे पहन लिया। फिर उस चपरासी की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने ऑफिस में चला गया। जहां इंटरव्यू देने गया था, वह बहुत ही बड़ा इंग्लिश स्कूल था।
इंटरव्यू के लिए तीन लोग बैठे थे। उन लोगों ने मुझ से इंग्लिश में एक दो सवाल किए। जब मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैंने कहा कि मुझे इंग्लिश नहीं आती है। तब कहा गया कि यह एक इंग्लिश स्कूल है। यहां के बच्चों से बातचीत करने के लिए इंग्लिश आनी जरूरी है।
इसी बीच एक आदमी ने अपनी टेबल से एक फोन उठाया और पूछा कि यह फोन किस कंपनी का है? तब मुझे नहीं पता था कि वह किस कंपनी का फोन है। फिर उन्होंने बताया की यह आई फोन है और इसे एप्पल कंपनी बनाती है। उसके बाद मुझे वहां से बाहर भेज दिया गया। मैने पहली बार आईफोन का नाम सुना था।’

ड्राइविंग सीखी तो 3 हजार रुपए प्रति महीने की नौकरी मिली
‘मुझे पैसे की जरूरत थी। मेरे अंदर पैसे की भूख जाग चुकी थी। मैंने अपने पिताजी से बोला कि मुझे भी गाड़ी चलानी है। पहले तो पिताजी थोड़ी सोच में पड़ गए, लेकिन बाद में मुझे अपने साथ बस में ले जाने लगे।
मैंने कुछ दिनों में उनसे ड्राइविंग सीख ली और गांव के ही एक आदमी की कार चलानी शुरू कर दी। उस वक्त मुझे महीने की 3 हजार रुपए सैलरी मिलती थी।’
‘अब पत्नी के लिए चूड़ी और सिंदूर खरीदने के लिए पिताजी से पैसे नहीं मांगने पड़ते थे। मेरी जिंदगी अब थोड़ी सी ठीक हो गई थी। मेरा एक दोस्त दिल्ली में रहता था। उसने कहा कि दिल्ली में कार चलाने के काफी पैसे मिलते हैं। ज्यादा कमाने की चाहत में मैं अपने दोस्त के साथ दिल्ली चला गया।
मुझे ट्रैफिक नियमों के बारे में जानकारी नहीं थी, जिसके कारण कोई भी अपनी कार मुझे नहीं दे रहा था। करीब 15 दिन तक मैं इधर उधर ड्राइविंग का काम ढूंढता रहा, लेकिन मुझे कहीं काम नहीं मिला। तब आखिर में मैंने दिल्ली में रिक्शा चलाना शुरू कर दिया।
मैं शारीरिक रूप से काफी कमजोर था, जिसके कारण रिक्शा चलाने में काफी मेहनत पड़ती थी। कुछ दिन तक ही रिक्शा चलाया था कि मेरी तबीयत खराब हो गई। तबीयत खराब होने के बाद मैं वापस घर आ गया था।’

दिलखुश की कंपनी का नाम रोडवेज है। बिहार के सभी शहरों में 500 से अधिक कार है।
‘घर आने के बाद फिर से पैसे की दिक्कत होने लगी। मेरे जानने वाले एक आदमी ने मुझे पटना में एक व्यक्ति से बात कर कार चलाने के लिए नौकरी पर रखवा दिया। करीब 2 साल तक उनके यहां 3 हजार के महीने पर कार चलाता था। एक दिन मुझे मेरे मालिक ने एक इलेक्ट्रिक की दुकान में एक सामान लाने के लिए भेजा था।
मैं सामान खरीद रहा था, तभी एक दूसरा ग्राहक अपने घर में पंखा लगवाने के लिए पहुंचा था और दुकानदार से बातचीत कर रहा था। मैंने बस ऐसे ही पूछ लिया की घर जाकर पंखा लगाने के कितने रुपए लेते हो तो उसने बताया की 100 रुपए। ये सुनकर मैं काफी सोच में पड़ गया कि ये अगर दिन भर में 5 पंखे टांग देता होगा तो इसे एक दिन के 500 रुपए मिलते होंगे।’
‘मैंने उससे पूछा कि क्या आप मुझे काम सिखाओगे। उसने पहले मुझे देखा फिर हां कर दिया। मैंने उसी दिन ड्राइविंग की नौकरी छोड़ दी और अगले दिन से उस दुकान पर काम सीखने जाने लगा। कुछ ही दिनों में पंखा बनाना, घर की वायरिंग करने सहित इलेक्ट्रिक का काम सीख गया था।

धीरे-धीरे मैंने काम का कॉन्ट्रैक्ट लेना शुरू कर दिया और घर, अपार्टमेंट, मॉल में इलेक्ट्रिक का काम करने लगा। इस बीच मैंने काफी अच्छे पैसे कमाए। कई सरकारी काम का भी कॉन्ट्रैक्ट लिया और काम किया।’
‘2015 में मेरे मन में एक आइडिया आया की ऑनलाइन सब्जी बेचते हैं। हालांकि, मेरे पास कोई सॉफ्टवेयर नहीं था और मेरे पास वैसा मैन पावर भी नहीं था। मैंने ढेर सारे पंपलेट छपवाए और उसे पटना की गलियों में चिपका दिया। कई अपार्टमेंट के सामने भी उसे चिपकाया।
उसमें एक मोबाइल नंबर दिया था, जिस पर लोग कॉल करके अपने घर पर सब्जी मंगवा सकते थे। कॉल आने पर मैं खुद ही जाता था और सब्जी की डिलीवरी करता था। दिनभर में कुछ कॉल आते थे, लेकिन मैंने यह देखा कि लोग सब्जी ऑनलाइन नहीं खरीदना चाहते हैं।’
‘अब मैं लोगों को समझने लगा था। मैंने देखा कि ‘बिहार में काफी पलायन है। बिहार के लोग सबसे ज्यादा यात्रा करते हैं। उसमें भी‘बिहार में तब तक कई कैब एजेंसियां आ चुकी थीं, लेकिन लंबी यात्रा के लिए लोग उसे भी बुक नहीं करा रहे थे।
अगर किसी को दरभंगा से पटना आना होता था तो कैब का किराया महंगा होने के कराना बस या ट्रेन से आते थे। मैंने काफी रिसर्च किया तो पता चला कि बिहार के अधिकतर लोग मध्यम या गरीब परिवार के हैं। और कैब का किराया ज्यादा होने के कारण वो ट्रेन से ही यात्रा करते हैं।

‘सहरसा में मैंने सॉफ्टवेयर इंजीनियर को हायर किया और उनसे एक सॉफ्टवेयर बनवाया, जहां से बुकिंग हो सके। मैंने सहरसा और आसपास के 50 से अधिक गाड़ियों को अपने साथ जोड़ा। ‘आर्या गो’ नाम की कंपनी बनाई। जिसमें लोग जितनी दूरी यात्रा करते थे, उतनी ही दूरी की किराया लिया जाता था।’
‘धीरे-धीरे हमारे पास बुकिंग बढ़ने लगी। हमने अपनी कंपनी में और लोगों को हायर करना शुरू किया और गाड़ियों को भी इसमें जोड़ना शुरू किया। उस वक्त करीब 200 से ज्यादा गाड़ियां हमारे पास थीं।
सबसे अधिक बुकिंग सहरसा, मधेपुरा, मधुबनी, दरभंगा से पटना के लिए होती थी। जो गाड़ी दरभंगा से पटना आ जाती थी, वह यहीं रुक जाती थी। जब कोई बुकिंग पटना से फिर दरभंगा की होती थी, उसमें वह फिर दरभंगा चली जाती थी। ऐसे में मेरा यह कॉन्सेप्ट काफी अच्छे से सेट हो गया।’
‘मैंने टू वे सिस्टम को खत्म कर दिया। सिंगल वे सिस्टम पर मेरी कंपनी आज भी काम कर रही है। आज कंपनी का नाम रोडवेज है। बिहार के सभी शहरों में 500 से अधिक कार है। किसी भी शहर से बिहार में कहीं जाना हो तो लोग आसानी से ऑनलाइन बुकिंग करके जा सकते हैं।’

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कभी 3 हजार रुपए महीने की सैलरी पर कॉल सेंटर में काम करने वाली चेतना झांब आज करोड़ों रुपए की मालकिन हैं। पैसे की तंगी के कारण चेतना 10 रुपए बचाने के लिए 5 किलोमीटर तक पैदल चलती थीं। आज चीन में खुद की मैन्युफैक्चरिंग कंपनी है। चेतना ने कॉल सेंटर में काम करने के बाद एयर होस्टेज की नौकरी की। फिल्मों में काम किया, हॉलीवुड मूवी भी प्रोड्यूस की। एक समय कोरोना ने जब सब कुछ बर्बाद कर दिया तब चेतना ने अमेरिका में दूसरी कंपनी के प्रोडक्ट भी बेचे। चेतना बिहार के समस्तीपुर जिले की रहने वाली हैं। पूरी खबर पढ़ें…