Wednesday, March 19, 2025
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संडे जज्बात-अम्मी पाकिस्तान आ गईं, लेकिन दिल में राजकोट था: काश भारत का वीजा मिल जाता, अम्मी से कहता- देखो तुम्हारे शहर आया हूं


मेरा नाम अब्दुल रशीद शकूर है। मैं पाकिस्तान के शहर कराची में रहता हूं। अपनी वालिदा की आखिरी ख्वाहिश पूरी करने के लिए भारत आना चाहता हूं। मेरे वालिद अब्दुल शकूर और वालिदा जुबैदा भारत से ही पाकिस्तान आए थे। वालिद मुंबई के धोराजी से थे और वालिदा गुजरात

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हमारे दादा-परदादा, रिश्तेदार और उनकी जमीन-जायदाद सब कुछ भारत में ही थी। मौत से पहले अम्मी एक बार अपने मायके, गुजरात के राजकोट आना चाहती थीं। उनके जीते जी ये मुमकिन न हो सका। अब मैं उनकी आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए अपने ननिहाल राजकोट आना चाहता हूं। वहां आकर कहूंगा कि अम्मी, मैं आ गया हूं।

अब्दुल रशीद शकूर अपनी अम्मी की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए भारत आना चाहते हैं।

मैंने जब से होश संभाला है तब से राजकोट का नाम सुना है। राजकोट की कहानियां सुनकर ही बड़ा हुआ हूं। मेरे जेहन में राजकोट बहुत पक्की स्याही से छपा हुआ है।

मेरे नाना उस्मान शबनम राजकोट में मुस्लिम बुलेटिन अखबार के संपादक थे। जब कराची आए तो यहां गुजराती अखबार डॉन के संपादक बने। वालिदा हमेशा बताती थीं कि राजकोट में बहुत खुशनुमा माहौल था। सब कुछ अच्छा चल रहा था। दिवाली-होली पर अपने दोस्तों के घर जाया करते थे। वे लोग भी ईद पर हमारे घर आया करते थे।

बंटवारे के बाद हालात बदल गए। एक रात हमारे एक पड़ोसी घर आए और कहने लगे कि आप लोग यहां से चले जाइए। आपकी जान को खतरा है। मेरे नाना, नानी, वालिदा और दो मामू वहां से कुछ सामान लेकर आधी रात को निकल गए। वालिदा उस वक्त 12 साल की थीं। एक मामू को वो लोग राजकोट ही छोड़ आए थे। उनसे कहा था कि घर का सारा सामान बेचकर बाद में पाकिस्तान आ जाना।

अब्दुल रशीद शकूर की वालिदा जुबैदा की शादी की तस्वीर।

अब्दुल रशीद शकूर की वालिदा जुबैदा की शादी की तस्वीर।

वालिदा बताती थीं कि राजकोट से किसी तरह मंदिर, मस्जिदों में शरण लेते हुए मुंबई पहुंचे। वालिदा बताया करती थीं कि वो सफर बहुत मुश्किल और तकलीफदेह था। मुंबई में वे लोग रात के समय एक मंदिर में रुके हुए थे।

उस रात सियाह तारीकी यानी गहरा अंधेरा था। मेरी वालिदा को जमीन पर एक चमकता हुआ गड्ढा दिखाई दिया। वो उठकर उसकी तरफ जाने लगीं, तभी मेरे नाना ने उनका हाथ पकड़कर पीछे खींच लिया। नाना ने चीखते हुए कहा, वो कुआं है। वालिदा लंबे समय तक उस वाकये को याद कर सहम जाती थीं। मुंबई से पानी के जहाज में बैठकर वो लोग कराची पहुंचे।

पाकिस्तान आकर धीरे-धीरे सब सेटल हुआ। बहुत कम उम्र में मां की शादी हो गई। वालिद ने भी कोई कम तकलीफें नहीं उठाईं। उन्होंने यहां आकर तरह-तरह के काम किए। फिर एक मेमन परिवार ने उन्हें गोद ले लिया। उसी परिवार ने उनका लालन- पालन किया और शादी करवाई। मुझे नहीं पता कि मेरे दादा-दादी कौन थे, कैसे थे। मैं इसी परिवार को जानता हूं जिसने मेरे वालिद का लालन-पालन किया। हालांकि मेरे दादा-दादी भारत में ही रह गए थे।

अब्दुल रशीद शकूर के वालिद अब्दुल शकूर और वालिदा जुबैदा।

अब्दुल रशीद शकूर के वालिद अब्दुल शकूर और वालिदा जुबैदा।

वालिदा पाकिस्तान में रहकर भी हिंदी फिल्में देखतीं, हिंदी गाने सुनतीं, स्टार प्लस के ड्रामे देखती थीं। बल्कि मैं कभी-कभी अपने कमरे में किशोर या रफी के गाने लगाया करता था, तो अम्मी मेरी पत्नी से कहा करती थीं कि शकूर से कहो जरा आवाज ऊंची कर दे।

अम्मी चौथी पास थीं, लेकिन अंग्रेजी अखबार पढ़ लेती थीं। जब हम उनसे इस बारे में पूछते तो कहती थीं, अरे भारत की पढ़ाई और वहां के टीचर बहुत अच्छे थे।

मेरी मां को संगीत की बहुत समझ थी। कोई भी गाना सुनकर बता देती थीं, इसके संगीतकार कौन हैं, कहां फिल्माया गया है, किस पर फिल्माया गया है। उन्हें स्टार प्लस के सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी की तुलसी बहुत पसंद थी।

शायद वह एक गुजराती परिवार था इसलिए। जब भी कभी गुजरात या राजकोट का नाम आता था तो मां की खुशी देखते ही बनती थी। वह बहुत खुश होती थीं। जब देखो हमारा राजकोट ऐसा, हमारा राजकोट वैसा, वहां यह मिलता है, वहां वो मिलता है।

मैंने अपनी जिंदगी में राजकोट शब्द इतना सुना है कि मैं बता नहीं सकता। जैसे ही मेरी मां राजकोट नाम सुनतीं तो बस उसी में खो जाती थीं। खुद तो पाकिस्तान आ गई थीं, लेकिन दिल और आत्मा राजकोट में ही रह गई थी।

अब्दुल रशीद शकूर कहते हैं कि अम्मी को हिंदी फिल्में बहुत पसंद थीं।

अब्दुल रशीद शकूर कहते हैं कि अम्मी को हिंदी फिल्में बहुत पसंद थीं।

पाकिस्तान आने के बाद वो सिर्फ एक बार 1963 में राजकोट गई थीं। जब उनकी फूफी का इंतकाल हुआ था। तब वो मुंबई भी घूमकर आई थीं। वहां उन्होंने हिंदी फिल्में देखीं और बहुत सारी शॉपिंग भी करके आई थीं। उन्हें राजकपूर, राजेंद्र कुमार, मधुबाला, वैजयंती माला और नूतन बहुत पसंद थीं।

मैं पत्रकार हूं, साल 2005 और 2016 में क्रिकेट कवर करने के लिए भारत आया था। जब मैं पैकिंग कर रहा था, अम्मी के चेहरे पर सवाल साफ नजर आ रहा था। थोड़ी देर बाद संकोच करते हुए बोलीं- राजकोट जाओगे? मैंने कहा- नहीं, वीजा नहीं मिला है। हालांकि मैं भी जाना चाहता था राजकोट, लेकिन जा नहीं सका। जब भी भारत आया तो दफ्तर का काम करके निकल गया।

साल 2020 में कोविड में मेरी मां का इंतकाल हो गया था। अपने आखिरी दिनों में वह हज और उमरा करने के लिए जाना चाहती थीं और गईं भी। वो राजकोट भी आना चाहती थीं, लेकिन आ नहीं पाईं। उनके दिल में दो तरह की बातें आया करती थीं। एक तो यह कि राजकोट जाना है फिर दूसरी यह कि वहां जाकर किससे मिलूंगी, अब तो कोई होगा भी नहीं वहां।

अब्दुल रशीद शकूर के बचपन की तस्वीर।

अब्दुल रशीद शकूर के बचपन की तस्वीर।

एक दफा मैं क्रिकेट को लेकर भारत में कुछ स्टेडियम सर्च कर रहा था। अचानक राजकोट की एक तस्वीर दिखी। मैं फोन लेकर मां के पास गया और कहा- देखो तुम्हारा राजकोट। मेरे हाथ से फोन लेकर कहने लगीं, अरे कितना बदल गया है राजकोट। अब तो यह पहले जैसा नहीं रहा। पहले तो गांव हुआ करता था।

मुझे अफसोस है कि मैं न तो खुद राजकोट आ सका और न मां को ला सका। हालांकि मैं कोशिश कर रहा हूं कि सिर्फ राजकोट का वीजा मिल जाए। वहां आकर अपने मोबाइल में अम्मी की तस्वीर खोलूंगा और कहूंगा कि देखो मैं आ गया, तुम्हारे शहर राजकोट में।

ये जज्बात अब्दुल रशीद शकूर ने भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से साझा किए।

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