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जगह- लाहौर का किला
सिख साम्राज्य के महाराजा रणजीत सिंह का शव चिता पर रखा है। महारानी महताब देवी उर्फ गुड्डन नंगे पैर हरम से बाहर निकलीं। उनके साथ तीन और रानियां आईं। उन्होंने चेहरे पर कोई पर्दा नहीं किया था।
लेखक सर्बप्रीत सिंह अपनी किताब ‘द कैमल मर्चेंट ऑफ फिलाडेल्फिया’ में लिखते हैं, ‘चारों महारानियां धीरे-धीरे सीढ़ियों के जरिए चिता पर चढ़ीं और महाराजा रणजीत सिंह के सिरहाने बैठ गईं। थोड़ी देर बाद 7 गुलाम लड़कियां शव के पैर की तरफ बैठीं।’
महाराजा के बेटे खड़क सिंह ने चिता में आग लगाई। 180 तोपों की आखिरी सलामी से माहौल गरज उठा। रणजीत सिंह के साथ उनकी 4 रानियां और 7 गुलाम लड़कियां भी भस्म हो गईं। उनके प्रधानमंत्री राजा ध्यान सिंह ने भी चिता में कई बार कूदने की कोशिश की, लेकिन वहां मौजूद लोगों ने पकड़ लिया।
महाराजा रणजीत सिंह के अंतिम संस्कार का दृश्य (पेंटिंग साभार- The British Museum)
लाहौर के किले में चल रही ये अंत्येष्टि, 200 किमी दूर जम्मू-कश्मीर का मुस्तकबिल बदलने वाली थी। ‘मैं कश्मीर हूं’ सीरीज के पहले एपिसोड में आपने कश्मीर के पहले मुस्लिम शासक से राजवंश तक की कहानी पढ़ी। आज दूसरे एपिसोड में उससे आगे की बात…

कश्मीर में बौद्धों और हिंदू शासकों के बाद मुस्लिम शासन आया। शाहमीरी वंश के जैनुल आबिदीन ने करीब 50 साल तक कश्मीर पर खुशहाल शासन किया। हालांकि, वो अपने तीनों बेटों को लालची, शराबी और लम्पट मानता था। 12 मई 1470 को जैनुल ने आखिरी सांस ली और इसके बाद शाहमीरी वंश ढलने लगा। इसके बाद चक राजवंश का शासन शुरू हुआ। इस दौर में भी शिया-सुन्नी विवाद और हिंदुओं के धर्मांतरण का दौर चलता रहा।
1579 ईस्वी में यूसुफ शाह चक कश्मीर की गद्दी पर बैठा। वो कश्मीर के इतिहास के सबसे रूमानी किरदारों में से एक है। सुंदर सजीला और बांका यूसुफ एक बार कहीं जा रहा था। रास्ते में खेतों में केसर चुनती हब्बा खातून अपनी ही धुन में कोई दर्द भरा गीत गा रही थीं।
अशोक कुमार पांडेय अपनी किताब कश्मीरनामा में लिखते हैं, ‘यूसुफ शाह हब्बा की खूबसूरती और उसकी आवाज के जादू में बंध गया और दिल दे बैठा। हब्बा उस वक्त एक गरीब किसान की बीवी थी। यूसुफ के आदेश पर किसान से फौरन तलाक दिलवाया गया और हब्बा बेगम बनकर श्रीनगर आ गईं।’
संगीत, शायरी और आशिकी में डूबे यूसुफ के खिलाफ विद्रोह हो गया। उसे गद्दी छोड़कर भागना पड़ा। उस वक्त मुगल बादशाह अकबर का साम्राज्य अपने चरम पर था। यूसुफ ने 1580 में अकबर से आगरा में मुलाकात की।
अकबर ने उसकी मदद के लिए राजा मान सिंह को नियुक्त किया। मुगलों की मदद से यूसुफ लाहौर की तरफ बढ़ा। रास्ते में उसे पुराना वजीर मोहम्मद बट्ट मिला। दोनों ने मिलकर तय किया कि वो मुगल सेना की मदद लिए बिना कश्मीर पर कब्जा करेंगे, क्योंकि इनके साथ कश्मीर की जनता के खिलाफ होने का खतरा है। ये फैसला एक बड़ी गलती साबित हुआ।
यूसुफ शाह ने कश्मीर की गद्दी तो पा ली, लेकिन मुगलों को अंधेरे में रखने की वजह से अकबर नाराज हो गया। उसने यूसुफ को अपने सामने हाजिर होने के फरमान भेजे। न आने पर सैनिक भेजकर बंदी बना लिया और 1586 में अकबर के सामने पेश किया। उसे काफी वक्त तक कैद रखा गया। बाद में मान सिंह के कहने पर रिहा करके बिहार भेज दिया गया। 22 सितंबर 1592 को उसकी मौत हो गई।
यूसुफ के बेटे याकूब शाह को भी देश निकाला मिला। अक्टूबर 1593 में चक वंश का यह आखिरी चिराग भी अपने पिता की कब्र के बगल में हमेशा के लिए सो गया।

चक राजवंश के कश्मीरी सुल्तान यूसुफ शाह और उनके बेटे की कब्र बिहार के नालंदा जिले के बिस्वाक गांव में आज भी है।
यूसुफ की याद में उसकी पत्नी हब्बा खातून जोगन बन गई। वो नंगे पांव यहां वहां भटकती और विरह के गीत गाती। कश्मीर में उसके गीत आज भी गाए जाते हैं।

चक राजवंश को खत्म कर अकबर ने कश्मीर को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। वहां एक सूबेदार नियुक्त कर प्रशासन चलाने लगा। अकबर अपने जीवन में 3 बार कश्मीर की यात्रा पर गया। 1589 की पहली यात्रा में उसने कश्मीरी ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्राएं दीं और मार्तण्ड मंदिर गया। 1592 की दूसरी यात्रा के दौरान दिवाली थी। अकबर ने उसमें भी शिरकत की।
1597 में अकबर तीसरी बार कश्मीर गया तो भयानक अकाल पड़ा था। सूबे में भुखमरी फैली थी। अकबर ने हरि पर्बत में विशाल नागर किला बनवाया, जिससे लोगों को रोजगार मिल सके। अकबर का उत्तराधिकारी जहांगीर तो कश्मीर का दीवाना था। उसने 6 बार कश्मीर की यात्रा की और अपने आखिरी दिन भी कश्मीर में ही गुजारे। शाहजहां का दौर भी कश्मीर के लिए शांतिपूर्ण और खुशहाली भरा था।
आर के परिमू की किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ मुस्लिम रूल इन कश्मीर’ के मुताबिक, मुगल बादशाह औरंगजेब इस मामले में उलट था। वो अपने कार्यकाल में महज एक बार कश्मीर गया। वहां की खूबसूरती की बजाय उसका ध्यान तीन बातों पर गया, जो उसे इस्लाम विरोधी लगीं…
- कश्मीरी औरतें नीचे के अंतः वस्त्र नहीं पहनती थीं।
- कश्मीर में अफीम की खेती और उसका उपयोग सामान्य था।
- कश्मीर में भांड रंगमंच और मूक अभिनय का चलन था।
औरंगजेब ने फौरन इन तीनों पर प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए। इसके बाद मुगलों का पतन शुरू हुआ। आखिरी 45 साल में मुगलों ने कश्मीर में 22 सूबेदार नियुक्त किए। यानी शासन में स्थिरता नहीं बची थी। धीरे-धीरे कश्मीर पर अफगानी पठानों का नियंत्रण हो गया। जिनके बारे में चर्चित है…

सर बुरीदां पेश इन संगीन दिलां गुलचिदान अस
यानी पत्थर दिल अफगानों के लिए सिर काट देना वैसा ही है जैसे बगीचे से फूल तोड़ लेना।

ये 1819 के आसपास का दौर था जब महाराजा रणजीत सिंह सिख साम्राज्य का तेजी से विस्तार कर रहे थे। उनके पास उस वक्त देश की सबसे बड़ी सेना थी। रणजीत सिंह के हमले का सुराग लगते ही अफगानी शासक आजम खां ने कश्मीर की सत्ता अपने भाई जब्बार खां को सौंप दी और काबुल भाग गया।
महाराजा रणजीत सिंह ने 30 हजार सैनिकों की सेना कश्मीर पर हमले के लिए भेजी। 20 जून 1819 को जब्बार खां भाग गया और कश्मीर भी सिख साम्राज्य के अधीन आ गया। इससे सटे जम्मू राज्य के डोगरा राजपूतों गुलाब सिंह, ध्यान सिंह और सुचेत सिंह की सेवा से महाराजा रणजीत सिंह इतने खुश हुए कि गुलाब सिंह को जम्मू की गद्दी दी।
ध्यान सिंह को भिम्बर, छिबल और पुंछ की जबकि रामनगर की गद्दी सुचेत सिंह को दे दी। दोनों भाइयों की मौत के बाद पूरी जम्मू रियासत पर गुलाब सिंह का अधिकार हो गया। गुलाब सिंह का राजा के तौर पर राजतिलक महाराजा रणजीत सिंह ने स्वयं किया था। गुलाब सिंह ने अपने राज्य का विस्तार लद्दाख, गिलगित और बाल्टिस्तान तक किया।
1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मौत हो गई, जिसका जिक्र हमने इस आर्टिकल की शुरुआत में किया है। यहीं से घटनाक्रम तेजी से बदले। रणजीत सिंह की मौत के बाद लाहौर में षड्यंत्र रचे जाने लगे। ईस्ट इंडिया कंपनी इसी ताक में बैठी थी। 1846 की जंग में सिख हार गए और उन्होंने संधि की पेशकश की।

खुशवंत सिंह अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास’ में लिखते हैं, ‘10 फरवरी 1846 में सिखों के हारने के दो दिन बाद अंग्रेजी फौज ने सतलज पार कर लाहौर के एक शहर कसूर को अपने कब्जे में ले लिया। सिख दरबार ने गुलाब सिंह डोगरा को दोनों पक्षों से बातचीत करने की जिम्मेदारी दी।’
अंग्रेजों ने युद्ध में हुए खर्च के हर्जाने के तौर पर डेढ़ करोड़ रुपए और पंजाब के एक बड़े हिस्से की मांग रखी। दरबार के पास इतनी रकम नहीं थी, इसलिए व्यास और सिंधु नदी के बीच के पहाड़ी इलाके देने की पेशकश की, जिसमें कश्मीर भी शामिल था।
इस इलाके में अंग्रेजों की उतनी दिलचस्पी नहीं थी। ये इलाका ज्यादातर पहाड़ी था, इसलिए पैदावार कम होती थी। गुलाब सिंह इसे भांप गए। उन्होंने इस इलाके को खरीदने की पेशकश रखी। बात आगे बढ़ी और 16 मार्च 1846 को गुलाब सिंह और अंग्रेजों के बीच अमृतसर की संधि हुई। गुलाब सिंह ने अंग्रेजों की सरपरस्ती स्वीकार की और उन्हें जम्मू-कश्मीर रियासत का राजा घोषित कर दिया गया।
गुलाब सिंह को इसके लिए एकमुश्त 75 लाख रुपए देने पड़े। इसके अलावा उन्हें हर साल अंग्रेज सरकार को एक घोड़ा, बकरी के बालों से बने 12 शॉल और 3 कश्मीरी शॉल देना तय हुआ। बाद में ये करार सिर्फ 2 कश्मीरी शॉल और 3 रूमाल तक रह गया।
अमृतसर संधि के बाद से ही मौजूदा ‘जम्मू कश्मीर’ अस्तित्व में आया और यहीं से डोगरा शासन की शुरुआत होती है। गुलाब सिंह के पास सिन्धु और रावी का पूरा इलाका आया था, जिसमें कश्मीर, जम्मू, लद्दाख और गिलगित भी शामिल था। गुलाब सिंह की मृत्यु 1857 में हुई।
पूर्व राजदूत सुजान आर चिनॉय ने अपने रिसर्च आर्टिकल में लिखा है कि 1865 में हुंजा कश्मीर रियासत का हिस्सा हुआ करता था। जम्मू कश्मीर के राजा ने यहां एक भव्य किला बनवाया था। 1869 में हुंजा के मीर ने कश्मीर के महाराजा की संप्रभुता को मान्यता दी थी।

राजा गुलाब सिंह की मौत के बाद 26 साल के बेटे युवराज रणवीर सिंह राजा बने। 12 सितंबर, 1885 को रणवीर सिंह की मौत हो गई। रणवीर सिंह की मौत के बाद उनके बड़े बेटे प्रताप सिंह का राजतिलक हुआ। प्रताप सिंह ने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना शुरू कर दिया।
1891 में प्रताप सिंह की सेना ने गिलगित की हुंजा वैली, नागर और यासीन वैली को भी अपने राज्य में मिला लिया। अब प्रताप के राज्य की सीमाएं उत्तर में रूस तक मिलने लगी थीं।

महाराजा प्रताप सिंह के दौर में जम्मू-कश्मीर रियासत का मैप, जिसकी सीमाएं सोवियत यूनियन को छूती थीं।
1914 में ब्रिटिश अधिकारी हेनरी मैकमोहन ने भारत और चीन की सीमा तय करने के लिए एक मैकमोहन रेखा खींची थी। तिब्बत ने इसे मान लिया, लेकिन चीन ने इसे नहीं माना। चीन ने कश्मीर रियासत के हुंजा समेत बड़े हिस्से पर दावा किया। अंग्रेज अधिकारियों ने इस दावे का विरोध किए बिना चीन की बात मान ली।
सुजान अपने रिसर्च आर्टिकल में बताते हैं कि वायसराय लॉर्ड लैंसडाउन ने अपने एक पत्र में लिखा था-

हम चीन को जितना मजबूत बना सकेंगे और जितना अधिक हम उसे पूरे काश्गर-यारकंद क्षेत्र पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए प्रेरित कर सकेंगे, उतना ही वह इस क्षेत्र में रूसी सेनाओं को आगे बढ़ने से रोकने में ब्रिटेन के लिए ताकतवर साबित होगा।
प्रताप सिंह के बाद 1925 में उनके भतीजे हरि सिंह गद्दी पर बैठे। हरि सिंह के राजतिलक से 4 साल पहले की बात है। 1921 में 26 साल के हरि सिंह पेरिस के एक होटल में ठहरे थे। उनके सुइट में एक महिला घुस आई। थोड़ी देर बाद एक शख्स महिला को अपनी पत्नी बताते हुए कमरे में घुस आया। उसने रुपयों की डिमांड की।
लेखक कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री अपनी किताब ‘महाराजा हरि सिंह’ में लिखते हैं कि युवराज ने बदनामी से बचने के लिए इंग्लैंड की मिडलैंड बैंक के दो ब्लैंक चेक महिला को दिए। जिसमें से एक चेक से पैसा ले लिया गया। कहा जाता है कि दूसरा चेक बैंक में फोन कर हरि सिंह ने रुकवा दिया।
दरअसल, इस पूरे मामले का सरगना ब्रिटेन का बड़ा वकील हॉब्स था। उसने महाराज के ADC कैप्टन ऑथर से साठगांठ की और एक साजिश रची। इस साजिश में रॉबिंसन नाम की महिला का इस्तेमाल किया। हालांकि मामला दबा दिया गया।
हरि सिंह जम्मू-कश्मीर रियासत के आखिरी राजा साबित हुए। उनके कार्यकाल में 1937 तक चीन ने शक्सगाम घाटी पर भी अपना दावा ठोंक दिया। इस तरह कश्मीर रियासत का बड़ा हिस्सा देश की आजादी के पहले ही चीन के साथ मिल गया।
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मैं कश्मीर हूं सीरीज के तीसरे एपिसोड में कल यानी 1 मई को पढ़िए- कैसे जम्मू-कश्मीर रियासत भारत में शामिल हुई और आजादी के बाद कश्मीर पर लड़ी गई जंग के किस्से…
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मैं कश्मीर हूं सीरीज के अन्य एपिसोड
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References and further reading…
- सर्बप्रीत सिंह की किताब ‘द केमेल मर्चेंट ऑफ फिलाडेल्फिया’
- A History of Kashmir by Prithvinath Kaul Bamzai
- आर के परिमू की किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ मुस्लिम रूल इन कश्मीर’
- Kashmir: Glimpses of History and the Story of Struggle by Saifuddin Soz
- कश्मीर नामा by अशोक कुमार पांडेय
- कश्मीर और कश्मीरी पंडित by अशोक कुमार पांडेय
- खुशवंत सिंह की किताब ‘सिखों का इतिहास’
- Kashmir: A Journey through history by Garry weare
- कुलदीप सिंह अग्निहोत्री की किताब महाराजा हरि सिंह