मैं सीमा समृद्धि कुशवाहा हूं, श्रद्धा वालकर की एडवोकेट। वही श्रद्धा जिसके लिव-इन पार्टनर आफताब ने उसका मर्डर करने के बाद डेडबॉडी के 35 टुकड़े किए और उसे फ्रिज में रख दिया। इस केस ने मेरी रातों की नींद ले ली है।
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श्रद्धा के पिता विकास वालकर की आखिरी इच्छा थी कि नियम कायदों के अनुसार बेटी का अंतिम संस्कार करें, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। केस में सिर्फ श्रद्धा की हड्डियां ही प्रॉपर्टी हैं इसलिए जब तक कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता है हड्डियां रिलीज नहीं हो सकती हैं। ये सब सोचकर मैं कई रात सो नहीं पाती कि कितना मजबूर और बेबस बाप था, जो बेटी का अंतिम संस्कार भी नहीं कर सका।
निर्भया का केस भी मैंने ही लड़ा था। हाथरस केस में भी पीड़िता की वकील मैं ही थी। आज तक मैंने कई ऐसे केस की पैरवी की है, जिन्होंने मेरी नजरों में मानवीय रिश्तों को तार-तार कर दिया है। खासकर निर्भया और श्रद्धा वालकर केस से जूझते हुए अब मेरे लिए मानवीय रिश्तों की परिभाषा बदल चुकी है।
मुझे श्रद्धा के पिता विकास वालकर से किया वादा पूरा करना है। आज भले ही वो इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मैं श्रद्धा के लिए लड़ती रहूंगी। इतना आसान नहीं है यह सब। न दिन का चैन है न रात की नींद है। मुझे जब श्रद्धा के शरीर के 35 टुकड़े याद आते हैं तो यही कहती हूं कि आफताब छोड़ूंगी तो नहीं तुम्हें।
सीमा कहती हैं श्रद्धा के 35 टुकड़े याद आते हैं तो यही कहती हूं कि आफताब छोड़ूंगी तो नहीं तुम्हें।
विकास वालकर मुझसे राखी बंधवाते थे। मुझे याद है एक रोज एक अनजान नंबर से फोन आया। मैंने फोन उठाया तो सामने से एक भारी, लेकिन रूंधे गले से आवाज आई मैडम मैं श्रद्धा का पिता बोल रहा हूं। मैं तुरंत समझ गई थी क्योंकि उन दिनों मीडिया में श्रद्धा का केस छाया हुआ था।
विकास वालकर ने केवल इतना कहा कि क्या आप निर्भया की तरह ही मेरी बेटी श्रद्धा के लिए लड़ेंगीं। उनकी आवाज में इतनी उम्मीद और गला ऐसे भरा हुआ था कि अभी फूटकर रो देंगे, मैं मना नहीं कर सकी, तुरंत हां कह दिया।
वो हमेशा एक ही बात कहते थे कि आफताब को देखता हूं तो बहुत गुस्सा आता है, इसकी आंखों में शर्म नहीं, चेहरे पर पछतावा नहीं। सच में विकास वालकर जब कोर्ट आते थे तो आफताब बेशर्मी से उन्हें देखता था।
श्रद्धा के पिता जब तक जिंदा रहे, उन्हें केवल एक ही बात का अफसोस था कि बेटी को अकेला क्यों छोड़ा, क्यों अपनी बेटी को उस नर्क से निकाल नहीं पाया। विकास वालकर कभी नहीं चाहते थे कि श्रद्धा, आफताब पूनावाला के साथ रहे। कई बार उन्होंने श्रद्धा को समझाया भी था, जब वो नहीं मानी तो पिता ने उससे बात करना ही बंद कर दिया।
कोर्ट में आफताब मुझसे तो नजरें चुराता है, लेकिन उसे रत्ती भर इसका मलाल नहीं है कि जिस लड़की ने उसे पागलों की तरह प्यार किया, उसी के 35 टुकड़े कर दिए। ये सोचकर मैं कांप जाती हूं कि उसने श्रद्धा के कटे टुकड़े फ्रिज में रख दिए। उसी कमरे में किसी दूसरी लड़की को डेट कर रहा था।
जब वह लड़की आफताब के घर आती थी तो उसी फ्रिज में से निकालकर पानी पीती थी। उस लड़की के आने पर आफताब श्रद्धा के टुकड़े स्टडी टेबल के ड्रॉअर में रख देता था। पूरे केस में यह बात मुझे डरा देती है, हिला देती है।
आफताब अक्सर श्रद्धा को मारने की धमकी देता था, लेकिन वो इस हद तक उससे प्यार करती थी कि छोड़ नहीं सकी। वो आफताब से शादी करना चाहती थी। मुझे समझ नहीं आता कि बेइंतहा प्यार के बदले कोई किसी को मार कैसे सकता है। प्रेम मारता नहीं है, भागता नहीं है, रुलाता नहीं है। आफताब प्रेमी तो था ही नहीं। मैं अगर एक वकील न होती तो आफताब को मार देती।
मैं जब भी इस केस की फाइल पलटती हूं तो यही सोचती हूं कि श्रद्धा को छोड़ भी तो सकता था आफताब, उसे मारने की क्या जरूरत थी। दरिंदे ने श्रद्धा को उस घर में मारा जिसे वो अपना सेफ जोन समझती थी।। पिता का घर छोड़ने के बाद उसने अपना सबकुछ इसी घर को माना था।
अगर लोग प्यार के बदले जान लेने लगें, फिर किसी पर भरोसा करना ही मुश्किल है। आखिर ये कैसा प्यार था, जिसने जान ही ले ली। ये सब बातें सोचकर मैं परेशान रहती हूं। अब जल्दी किसी पर भरोसा नहीं कर पाती क्योंकि मैं भी तो एक लड़की हूं।
निर्भया केस के वक्त भी मेरा यही हाल था। तब तो शायद मैं हर रात रोती थी। मुझे याद है कि कोर्ट में निर्भया की मां, दोषियों को देखकर मुझसे कहती थी कि सीमा किसी भी कीमत पर इन्हें छोड़ना नहीं है। मैं कहती थी कि भरोसा रखें, इन्हें फांसी जरूर होगी। बस उस भरोसे को नतीजों में बदलने के लिए दिन-रात एक कर दिए थे।
मुझे याद है कि जिस रोज निर्भया के दोषियों को फांसी हुई, उस दिन मैं द्वारका उसके घर पहुंची। निर्भया की तस्वीर के सामने खड़े होकर उसे एकटक देखती रही। आंखों से आंसू नहीं रुक रहे थे। उस दिन निर्भया की मां ने मुझे उसके हाथ का पहना हुआ कंगन दिया था। इसके अलावा उसकी पसंदीदा गुलाबी रंग की चुन्नी भी दी।

निर्भया के परिवार के साथ सीमा समृद्धि कुशवाहा।
मैं अदालत की अहम बहस के वक्त वो कंगन पहनकर कोर्ट रूम जाती हूं। निर्भया केस के बाद एक रोज मैं ट्विटर पर ट्रेंड कर रही थी। उसके बाद मुझे लगा कि मेरे ऊपर अब जिम्मेदारी और बढ़ गई है। उसके बाद तो ऐसे केसों की बाढ़ आ गई है। हर कोई बहुत उम्मीद से फोन करता है।
आज तक मैंने कई ऐसे केस पर काम किया जिन्होंने मुझे ये सोचने पर मजबूर किया कि क्या वाकई इंसान ऐसा कर सकता है। ललितपुर केस जिसमें एक बाहुबली ने पड़ोस की 15 साल की बेटी के साथ रेप किया और उसे पैट्रोल डालकर जिंदा जला दिया। कानपुर के एसीपी ने कैसे एक आईआईटीएन स्कॉलर का शोषण किया। हाथरस रेप केस, नोएडा का एक केस जिसमें तीन साल की बच्ची और पांच साल के उसके भाई के साथ उनके सगे चाचा ने घिनौनी हरकत की।
कहीं बाप, कहीं भाई, कहीं पड़ोसी, कहीं प्रेमी, कहीं चाचा, फूफा, मामा… ऐसे केसों की लंबी फेहरिस्त है, जिनकी वजह से मेरी नजरों में ये रिश्ते अपना वजूद खो चुके हैं। लगता है क्या कर दूं इन बेटियों के माता-पिता के लिए जो इनकी सूनी आंखों में चमक लौट सके। ये लोग जब मेरे पास आते हैं, तो इनकी पूरी दुनिया ही लुट चुकी होती है। मैं उनकी किसी भी कीमत पर मदद करना चाहती हूं।
अगर मैं अपनी बात करूं तो मेरे लिए भी यहां तक पहुंचना आसान नहीं था। मैं भी मिडिल क्लास फैमिली से हूं, इसलिए सफर बेहद मुश्किल था। शायद इसलिए मैं समझती हूं कि किसी भी मिडिल क्लास फैमिली की लड़की के लिए सफर आसान नहीं होता। ऐसे में अगर वो शोषण का शिकार हो जाती है तो उसका संघर्ष नासूर बन जाता है।
मैं उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के एक छोटे से गांव उग्रपुर की रहने वाली हूं। आज भी मेरा गांव गूगल मैप पर नहीं मिलता। मैं पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। दो बहनें सिर्फ आठवीं तक ही पढ़ी हैं, लेकिन दोनों बड़े भाई खूब पढ़ते थे। मैं घर में रखी उनकी किताबें पढ़ने लगी और मुझे पढ़ने की लत लग गई।
जब मैंने महात्मा गांधी और अंबेडकर के बारे में पढ़ा, तभी ठान लिया था कि वकील बनूंगी। शुरुआती पढ़ाई तो गांव में ही हुई। फिर ग्रेजुएशन औरैय्या से हुआ। हालांकि आठवीं के बाद मुझे भी आगे न पढ़ाने का ऐलान हुआ, लेकिन मैं भूख हड़ताल पर बैठ गई। जिद्दी थी, आखिरकार पापा मान ही गए।
पापा गांव में प्रधान थे और मैं उनकी सबसे प्यारी बेटी थी। पापा के आसपास ही मेरी दुनिया थी। जब औरैय्या से ग्रेजुएशन कर रही थी, पहला साल ही था। तभी एक दिन मुझे बुलाने के लिए घर से फोन आया। जितना जल्दी हो सका मैं गांव पहुंची।
घर के बाहर भीड़ देखते ही मेरे हाथ-पैर कांपने लगे। अंदर पहुंची तो पता चला पापा हमेशा के लिए हमें छोड़कर चले गए। मेरी दुनिया ही खत्म हो गई। अब कॉलेज की फीस भरने वाला कोई नहीं था। चांदी की पायल और सोने की बालियां बेचकर ग्रेजुएशन की फीस भरी।

सीमा कहती हैं अपनी चांदी की पायल और सोने की बाली बेचकर ग्रेजुएशन की फीस भरी।
जब कानपुर से लॉ करने के बारे में सोचा तो हर कोई कहता था, वकालत तो मर्दों की नहीं चलती है तुम्हारी क्या चलेगी। मैंने किसी की नहीं सुनी। एलएलबी के पहले साल की फीस सगी बहन और जीजा ने भरी। उसके बाद एक मैगजीन में मेरी नौकरी लग गई। आगे की पूरी फीस अपनी कमाई से भरी।
फिर दिल्ली आ गई। सिविल जज के पेपर की तैयारी की, प्राथमिक एग्जाम क्लियर भी कर लिया था। आगे फिर पेपरों कि तैयारी कर रही थी और खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाती थी।
फिर एक दिन निर्भया केस के बारे में पढ़ा। इससे जुड़े आंदोलनों में जाने लगी और इस तरह से इस केस से जुड़ गई। मैंने ठान लिया है कि हमेशा उन मिडिल क्लास लड़कियों का साथ दूंगी जो अपने बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष कर रही हैं।
निर्भया पढ़ती थी और बीपीओ में नौकरी भी करती थी। श्रद्धा भी एक मध्यम वर्गीय मेहनतकश परिवार से थी। एसीपी मोहसिन ने जिसका शोषण किया है वह लड़की आईआईटी स्कॉलर है जो ओडिशा के गरीब परिवार से है।
सीमा समृद्धि कुशवाहा ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से शेयर कीं ———————————–
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