Mahabharat Katha: महाभारत सिर्फ युद्ध की कहानी नहीं है, बल्कि यह रिश्तों, भावनाओं और आदर्शों की भी एक गहरी व्याख्या है. इसमें हर किरदार अपने आप में खास है, लेकिन कुछ रिश्ते इतने गहरे और प्रभावशाली हैं कि वे आज भी लोगों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं. ऐसा ही एक रिश्ता था कर्ण और दुर्योधन का. ये दोस्ती सिर्फ साथ निभाने तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें सम्मान, आस्था, निष्ठा और कर्ज की भावना जुड़ी थी. कर्ण के लिए दुर्योधन सिर्फ एक दोस्त नहीं, बल्कि वह इंसान था जिसने उन्हें उस वक्त अपनाया जब पूरा समाज उन्हें तिरस्कृत कर चुका था. कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि जब कर्ण को पता था कि दुर्योधन अधर्म की राह पर है, तो उसने उसका साथ क्यों दिया? इसका जवाब है कि कर्ण की नजर में दोस्ती मतलब किसी स्वार्थ का लेन-देन नहीं, बल्कि वचन और एहसान का आदान-प्रदान था. दुर्योधन ने जो सम्मान कर्ण को दिया था, उसके बदले कर्ण ने जीवन भर उसका साथ निभाया.
कर्ण का जन्म एक राजघराने में हुआ था, लेकिन किस्मत ने उन्हें राजा नहीं, बल्कि एक साधारण रथ चालक के घर पलने को मजबूर किया. कुंती ने विवाह पूर्व उन्हें जन्म दिया और लोकलाज के डर से नदी में छोड़ दिया. बाद में उन्हें अधिरथ और राधा ने पाला. उन्होंने कर्ण को बहुत प्यार दिया. कर्ण बचपन से ही वीरता, दान और धर्म के गुणों से भरे थे. वे एक महान धनुर्धर बनना चाहते थे, लेकिन उनकी जाति उनके रास्ते में बाधा बनी. जब गुरु द्रोण और परशुराम ने उन्हें शिक्षा देने से मना कर दिया, तब भी उन्होंने हार नहीं मानी. कर्ण ने अपने बलबूते पर ज्ञान अर्जित किया और एक श्रेष्ठ योद्धा बने.
कर्ण के जीवन का सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब दुर्योधन ने उन्हें अंग देश का राजा बनाया. यह पहली बार था जब किसी ने उन्हें उनकी योग्यता के आधार पर पहचाना, न कि उनकी जाति के अनुसार. कर्ण के लिए यह सम्मान बहुत बड़ा था. उस दिन उन्होंने दुर्योधन से वादा किया कि वे अंतिम सांस तक उसका साथ नहीं छोड़ेंगे.
महाभारत के युद्ध के दौरान जब भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर पड़े थे, तब कर्ण उनसे मिलने गए. वहां भीष्म ने पहली बार कर्ण को गले से लगाया और स्वीकार किया कि वे जानते हैं कि कर्ण, कुंती का पुत्र है. उन्होंने कर्ण से अनुरोध किया कि वह अपने भाइयों से मिलकर इस युद्ध को टाल दे. लेकिन कर्ण ने साफ कहा कि वे दुर्योधन की दोस्ती और उसके एहसान को नहीं भूल सकते. उन्होंने कहा कि जैसे श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ हैं, वैसे ही वे दुर्योधन के साथ खड़े रहेंगे. यह उनका धर्म है.
धर्म युद्ध में कर्ण का अंतिम समर्पण
भीष्म ने उन्हें युद्ध करने की अनुमति दी और कहा कि यदि युद्ध टालना संभव नहीं है, तो कम से कम धर्म के लिए लड़ो. कर्ण ने भीष्म को प्रणाम किया और युद्धभूमि की ओर निकल पड़े. उन्होंने अंत तक दुर्योधन का साथ दिया और अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए. कर्ण की मृत्यु सिर्फ एक योद्धा का अंत नहीं था, बल्कि वह उस मित्रता की अमर गाथा बन गई, जो आज भी निष्ठा और त्याग की मिसाल मानी जाती है.