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10 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर
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चुनाव दर चुनाव। उम्रें ख़त्म होने लगीं, पर माथे की शिकन जाती नहीं। रूखी रोटी, सूखी चूरी पीछा ही नहीं छोड़ती। पैसा- पैसा बड़े होने में लगे रहता है आम आदमी। दस या सौ का नोट होने के लिए नहीं, बल्कि एक रूपया होने के लिए। लेकिन इन नेताओं ने, इस राजनीति ने आम आदमी को बांध दिया मजबूरी की एक गाँठ में। बांधे रखा। … और फिर तुड़ाने लगे आदमी को, छोटी- छोटी रेजगारी में। काश! कि ये समग्र राजनीति बहरी हो जाए, आदमी की खामोशी सुनने से पहले। उसकी चीख सुनने से पहले।
बहरहाल, जम्मू- कश्मीर और हरियाणा चुनाव के बाद अब महाराष्ट्र और झारखण्ड के चुनाव की बारी आ गई है। झारखण्ड में तो मुक़ाबला सीधा ही है। ज़्यादा चक्कर नहीं है। घुमाव भी नहीं है। लेकिन महाराष्ट्र में पहली बार छह राजनीतिक दल चुनाव में एक तरह से बराबरी के साथ उतरेंगे।
पिछले विधानसभा चुनाव में शिवसेना एक थी। वो भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी और यह साथ वर्षों पुराना था। चुनाव बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर झमेला हुआ और वर्षों पुराना यह साथ टूट गया। इस बार एक नहीं बल्कि दो शिवसेना हैं। इनमें से एक भाजपा के साथ है और दूसरी भाजपा के खिलाफ।
इसी तरह पिछले चुनाव में महाराष्ट्र की लोकल पार्टी राकांपा एक थी और दमदार भी। इस बार राकांपा के भी दो फाड़ हो चुके। भतीजे ने चाचा से अलग होकर अलग राकांपा बना ली बल्कि कहना यह चाहिए कि पार्टी छीन ली और भाजपा से जा मिले। शिवसेना की तरह ही इस बार के चुनाव में राकांपा का भी एक धड़ा भाजपा के खिलाफ होगा और दूसरा भाजपा के साथ।
हालाँकि महाराष्ट्र और देश की राजनीति में यह चर्चा अक्सर होती रहती है कि अजीत पवार का धड़ा भाजपा के साथ कब तक रहेगा, इस बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। चाचा से जा मिलने का मुहूर्त हो सकता है दिवाली से पहले आ जाए या दिवाली के बाद!
वैसे महाराष्ट्र में पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टियों की यह टूट भाजपा के लिए नुक़सानदायक साबित हुई थी। शरद पवार और उद्धव ठाकरे को बेचारा समझकर लोगों ने उन्हें ज़्यादा वोट या सीटें दे दी थीं। एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना को तो फिर भी ठीक – ठीक सीटें मिल गईं थीं लेकिन राकांपा के अजीत दादा वाले धड़े का बेड़ा गर्क हो गया था। हालांकि विधानसभा चुनाव का गणित कुछ अलग ही होता है।
लोकसभा वाले समीकरण कितने चलेंगे, कहा नहीं जा सकता। वैसे भी लोकसभा चुनाव के बाद गोदावरी में बहुत पानी बह चुका है। निश्चित रूप से हवा का रुख़ भी बदला होगा। यह हवा दूसरे खेमे की तरफ़ बहने लगेगी, या फिर पहले ख़ेमे की तरफ़ प्रचण्ड रूप से बहेगी, कहा नहीं जा सकता। जिस तरह समन्दर करवटें लेता है तो पानी के पेट में बल पड़ते हैं, वैसे ही चुनावी हवा का पेट भी सांय- सांय कुछ कहता रहता है। क्या कहता रहता है, किसी की समझ में नहीं आता।
पिछले लोकसभा चुनाव और हाल के हरियाणा चुनाव के परिणामों को देखने के बाद तो यह साफ़ कहा जा सकता है कि कम से कम हवा का यह रुख़ एग्जिट पोल को तो बिलकुल समझ में नहीं आता।
बेचारे एग्जिट पोल पहली बार ग़लत होकर माथा पीटते रहते हैं। दूसरी बार दूसरे पक्ष को जिताने में जुट जाते हैं तो वहाँ भी माथा पीटने के सिवाय कोई चारा नहीं रह जाता। हो सकता है महाराष्ट्र और झारखण्ड चुनाव में एग्जिट पोल की खोई हुई प्रतिष्ठा वापस लौट आए। वर्ना गुमनामी में जाने के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं बचेगा।