व्यक्ति के पास जब कोई अंग-भंग, धन, ज्ञान या शरीर की दुर्बलता आदि होती है, तो वह भगवान से कहता है कि यदि मैं समर्थ होता तो जनकल्याण के कार्य करता। भगवान की सेवा करता। पर जब उसे मिल जाता है तो वह यह सब भूलकर अपने ही कल्याण में लग जाता है। मतलब सामर्थ्य
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एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने प्रवचन में शुक्रवार को यह बात कही।
महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक बार पांच असमर्थ और अपंग लोग इकट्ठे हो गए। कहने लगे भगवान हमें समर्थ बनाते तो हम परोपकार करते। अंधे ने कहा मेरी आंखें होती तो जहां कहीं भी अनुपयुक्त होता मैं उसे देखकर सुधारने में लग जाता। लंगड़े ने कहा पैर होते तो मैं दोड़-दौड़कर लोगों की भलाई करता। निर्बल ने कहा बल होता तो अत्याचारियों का दमन करता। निर्धन ने कहा धन होता तो दीन-दुखियों पर सब लुटा देता। मूर्ख ने कहा विद्वान होता तो संसार में ज्ञान की गंगा बहा देता। वरुण देव उनकी बातें सुन रहे थे, पर उनकी सच्चाई जाने बिना उनकी इच्छा अनुसार पांचों को आशीर्वाद दे दिया। अंधे को आंखें, लंगड़े को पैर, निर्बल को बल, निर्धन को धन, मूर्ख को विद्या दे दी। वे फूले नहीं समाए। परिस्थिति बदलते ही उनके विचार भी बदल गए। अंधा सुंदर वस्तुएं देखने में लग गया। लंगड़ा सैर सपाटे में लग गया। धनी ठाठ-बाट जोड़ने में लग गया। बलवान दूसरों को आतंकित करने में लग गया। विद्वान अपनी चतुरता के बल पर जमाने को उल्लू बनाने में लग गया। जब वरुण देव कुछ दिन बाद वहां लौटे और यह देखने के लिए रुक गए कि उन असमर्थों की प्रतीक्षा निभी या नहीं। पता लगाया और देखा कि वे पांचों अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे थे। वरुण देव बहुत खिन्न हुए और अपने दिए हुए वरदान वापस ले लिए। पांचों अपनी पुरानी स्थिति में आ गए। अब उन्हें अपनी पुरानी प्रतीज्ञा याद आई कि आए हुए सुअवसर को उन्होंने इस प्रमाद में क्यों खो दिया। जब समय निकल गया तो अब पछताने से क्या होगा।