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लड़खड़ाई राजनीति को हमेशा साहित्य ने ही मिलकर संभाला: कविता उस युग की ओर लौटने वाली है, जब कवि का काम केवल राजा को खुश करना था – Uttar Pradesh News



हिटलर की तानाशाही का मजाक बनाते हुए चार्ली चैपलिन ने एक फिल्म बनाई थी, जिसका नाम था ‘द ग्रेट डिक्टेटर’। सुना है, इस फिल्म को देखने महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन भी गए थे और फिल्म देखने के बाद आइंस्टाइन ने हिटलर को पत्र लिखा- ‘हिटलर, निश्चिंत रहो, यह फिल्म

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आइंस्टाइन का यह पत्र राजनीति और हास्य के संबंध पर गहरा व्यंग्य था। राजनीति व्यंग्य से बच ही नहीं सकती। राजनीति को व्यंग्य से बचना भी नहीं चाहिए। भारत में एक मशहूर कार्टूनिस्ट थे ‘शंकर’। उनके व्यंग्य-चित्र खूब चर्चित होते थे। एक दिन उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बुलाया और उनसे कहा, ‘शंकर जी, आप मेरे कार्टून क्यों नहीं बनाते?’ नेहरू जी का यह प्रश्न राजनीति के सेंस ऑफ ह्यूमर और सहिष्णुता का आभास कराता है।

कोई लोकतांत्रिक नेता यदि अपनी आलोचना से परहेज करेगा तो वह तानाशाह हो जाएगा। आलोचना राजनीति की हितैषी है। इसलिए अक्सर राजनेताओं ने न तो कभी अपनी आलोचना का बुरा माना न ही कभी अपने ऊपर किए गए मजाक से नाराज हुए।

सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में जब भारत हार गया और भारत की जमीन चीन के कब्जे में चली गई तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में कहा, ‘वह बंजर धरती थी, उस पर कुछ उगता भी नहीं था।’ नेहरू जी के इस बयान पर उसी संसद में नेहरू जी की सरकार में उपमंत्री के पद पर आसीन महावीर त्यागी ने कटाक्ष करते हुए कहा, ‘पंडित जी, आपकी खोपड़ी पर भी कोई बाल नहीं उगता, तो क्या हम इसे भी चीन को दे दें?’

त्यागी की इतनी तीखी टिप्पणी के बाद भी वह नेहरू की सरकार में मंत्री बने रहे। जब नेहरू ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का निर्णय लिया तो महावीर त्यागी ने पत्र लिखकर नेहरू जी के इस निर्णय का विरोध किया।

इस पत्र के जवाब में नेहरू जी ने उन्हें बर्खास्त नहीं किया, बल्कि पत्र लिखकर महावीर त्यागी को स्पष्टीकरण दिया कि उनके इस निर्णय के पीछे क्या सोच थी। विपक्ष और साहित्य तो दूर की बात है, स्वयं अपने साथी ही बड़े लीडरों की आलोचना करने से नहीं घबराते थे। यही आलोचना लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। लेकिन अब कविता क्या करे, अब तो सरकार की आलोचना आफत मोल लेने जैसा निर्णय है।

आजकल कवियों ने भी चरित्र बदल लिया है। कवि, संकट पर कविता लिखने की सोचे तो राजनीति का एक पूरा वर्ग उस पर आक्रोशित हो उठता है। इसलिए कवियों ने कविता के जरिए संकट पैदा करना शुरू कर दिया है। और हद तो यह है कि यदि कोई कवि चुप हो जाए तो भी उसे ट्रोल किया जाता है कि क्या बात है, इस विषय पर बोल क्यों नहीं रहे हो! …बिक गए हो क्या?

इस स्थिति का एक ही समाधान है कि जो भी नेता बने, वह अपने-अपने इलाके के कवियों को खुद ही अपनी आरती लिखकर दे दे। ताकि पब्लिक कितना भी सिर धुन ले, उसे नेताजी में कोई कमी न दिखने पाए। कविता-जनता का कुछ भी हो, पर नेताजी तो झूमते रहेंगे ना। कविता बहुत जल्दी उस युग की ओर लौटने वाली है, जब कवि का काम केवल राजा को खुश करना था। उसकी हार को भी वीरता सिद्ध करना था। उसकी कमी को भी खूबी की तरह पेश करना था।

कवि-सम्मेलनों में एक किस्सा बहुत लोकप्रिय है। लालकिले के कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि जवाहरलाल नेहरू थे। दिनकर उस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। जब वह मंच पर चढ़ने लगे तो उनका पैर लड़खड़ाया। दिनकर नेहरू के पीछे थे, उन्होंने नेहरू को संभाल लिया। नेहरू ने उन्हें धन्यवाद दिया तो दिनकर बोले, ‘धन्यवाद की क्या बात है पंडित जी, राजनीति जब भी लड़खड़ाई है, साहित्य ने ही उसे संभाला है।’

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