संसार असत है, उसमें रहने वाला परमात्म तत्व है। इसलिए संसार में सत और असत के अलावा कुछ भी नहीं है। मानव शरीर भी असत है। इसमें रहना वाला जीव आत्मा सत है। शरीर संसार परिवर्तनशील है। जीवात्मा-परमात्मा अपरिवर्तनशील है, शरीर, संसार नाशवान है। जीवात्मा-परमा
.
एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर नैनोद स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में बुधवार को यह बात कही।
भगवान यत्र-तत्र सब जगह हैं
महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक व्यक्ति गंगाजी के पास खड़ा था और पूछ रहा था गंगाजी कहां है। एक व्यक्ति ने कहा यही तो गंगाजी है, जहां तुम खड़े हो। जब तक उसे मालूम नहीं था, तब तक वह एक नदी ही समझ रहा था। पर जैसे ही व्यक्ति ने बताया बगैर परिश्रम के ही वह जान गया। फिर भगवान को गंगाजी से भी विलक्षण हैं। गंगाजी एक जगह है पर भगवान यत्र-तत्र सब जगह हैं।
परमात्मा तो प्रेम के प्यासे हैं
डॉ. गिरीशानंदजी ने कहा- ‘लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल’…। जब उद्धवजी गोपियों को समझाने गए कि ब्रह्म क्या है, जीव क्या है, जगत क्या है, गोपियां बोलीं- उद्धवजी ये सब कुछ हम नहीं जानतीं, हमें तो केवल ये बताओ कि हमारा कृष्ण कहां नहीं है। जो तुम कह रहे हो मथुरा में, इधर के पेड़-पत्ते, पौधे सब कृष्णमय हैं, जहां कि उसे भजते-भजते हम स्वयं कृष्णमय हो गई हैं। उद्धवजी गोपियों की ऐसी प्रेम लक्षणा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। कि हम पढ़ लिखकर जो नहीं जान पाए ये बिना पढ़ी-लिखी गोपियां जान गईं। परमात्मा तो प्रेम के प्यासे हैं। उन्हें जहां याद करो, वे वहीं आ जाते हैं। पर लोग केवल भगवान को भी अपनी कामना पूर्ति के लिए याद करते हैं। इसलिए भगवान का न तो उन्हें अनुभव हो पाता है और न ही वे जान पाते हैं। गोपियां निष्काम थीं, उनके मन में कोई कामना नहीं थीं। वे तो सबकुछ अपने कृष्ण को ही मानती थीं।