पश्चिम बंगाल में पूर्व बर्धमान जिले के गिधग्राम गांव का गिद्धेश्वर शिव मंदिर। आंगन में गांव की आशा और मालती पूजा की थाली लिए बैठी मिलीं। मंदिर के अंदर का पट बंद था। सुबह करीब 10.45 बजे पुजारी उत्तम मलिक ने पट खोले और उनकी पूजा की थाली ली। पुजारी शिवल
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आशा और मालती दास समुदाय से आती हैं। उनकी जिंदगी में ये पहला मौका था, जब उन्होंने मंदिर के अंदर जाकर पूजा की। गिधग्राम में बीते 300 साल से दास समुदाय को मंदिर में जाने का हक नहीं था। 12 मार्च को प्रशासन और पुलिस की दखल के बाद समाज के 5 लोगों ने पहली बार मंदिर में जाकर पूजा की। नई व्यवस्था के मुताबिक, हर दिन सुबह 10 से 11 के बीच समुदाय के 2 लोग मंदिर में पूजा कर सकते हैं।
गिधग्राम में करीब 1200 परिवार रहते हैं, जिनमें से करीब 150 परिवार दास समुदाय के हैं। हालांकि 300 साल पुरानी परंपरा टूटने से गांव के दूसरे समुदायों में नाराजगी है। उन्होंने मंदिर जाना बंद कर दिया है। उनका कहना है कि दास समुदाय के लोग गोमांस खाते हैं। वे मंदिर जा रहे हैं, इसलिए हम मंदिर नहीं जाएंगे।
दास समुदाय के बहिष्कार और उनकी मंदिर में एंट्री पर विवाद को समझने दैनिक भास्कर गांव के गिद्धेश्वर और पड़ोस के गांव बलेश्वर के शिव मंदिर पहुंचा।
ये तस्वीर पूर्व बर्धमान जिले के गिधग्राम गांव के गिद्धेश्वर शिव मंदिर की है, जहां दास समुदाय से आने वाली आशा और मालती मंदिर में पूजा-अर्चना कर रही हैं।
दास समुदाय के लिए रोज एक घंटे का वक्त, दो लोग कर सकते हैं पूजा हम कोलकाता से करीब 160 किलोमीटर दूर गिधग्राम पहुंचे। यहीं 60 बीघा जमीन में बना गिद्धेश्वर शिव मंदिर है। गांव के लोगों के मुताबिक, इसे यहां के जमींदारों ने बनवाया था।
गांव में घोष, ब्राह्मण, माझी, डोम, बागड़ी और दास समुदाय के लोग रहते हैं। दास, डोम, बागड़ी और माझी जाति दलित वर्ग से है। इनमें से दास समुदाय को मंदिर के अंदर जाने की मनाही थी।
मंदिर के पास हमें अरुनभ सेन मिले। वे बताते हैं, ‘हर समाज की मंदिर की सेवा में हिस्सेदारी है। घोष समाज साल के 365 दिन दूध पहुंचाता है। माली समुदाय फूल पहुंचाता है। मंदिर की सफाई का भी ख्याल रखता है। ब्राह्मण पूजा करते हैं। दास समाज के लोग ढाक और डमरू बजाने का काम करते हैं। सभी को 3 से 4 एकड़ जमीन दी गई है। हम जाति के आधार पर काम की परंपरा बनाए रखते हैं।’
उत्तम चक्रवर्ती मंदिर में पूजा करते हैं। उनके मुताबिक, ये मंदिर 300 साल पुराना है। यहां चैत्र मास में गज का मेला लगता है, जिसमें 100-150 संन्यासी आते हैं। उत्तम कहते हैं, ‘पिछले दिनों जो हुआ, उससे गांव की शांति भंग हो सकती है। अभी तो पुलिस मंदिर के पास बैठी है। देखते हैं कि ये और कितने दिन चलेगा। अभी तो रोज दास समुदाय से दो लोग मंदिर आ रहे हैं। ये लोग बरसों से चमड़े और गोमांस का काम करते थे। इसलिए मंदिर में इनका प्रवेश वर्जित था।’
‘गोमांस खाने वाले मंदिर में कैसे घुस सकते हैं, हम उनसे चंदा तक नहीं लेते’ मंदिर के पीछे ब्राह्मण, बागड़ी, माझी और डोम समाज के लोग रहते हैं। दास समुदाय की बस्ती अलग है, जो मंदिर से उल्टी दिशा में है। मंदिर से हम ब्राह्मणों के इलाके में पहुंचे, जहां उनके करीब 200 घर हैं।
ब्राह्मण पाड़ा में मिले सोमेश चट्टोपाध्याय बताते हैं, ‘गांववालों ने मंदिर की मरम्मत कराई थी, तब दास समुदाय से चंदा तक नहीं लिया गया। ब्राह्मण और बाकी समुदायों ने मिलकर पूरा काम कराया। शिवरात्रि हो या बाकी पूजा, दास समुदाय कभी शामिल नहीं होता। हमने नहीं, प्रशासन ने उन्हें मंदिर जाने की इजाजत दी है।’
‘300 साल पुराना नियम तोड़ना बिल्कुल गलत है। इसके विरोध में गांववालों ने मंदिर जाना बंद कर दिया है। अब सिर्फ दास परिवार ही मंदिर जा रहे हैं। हमने दास समुदाय का भी बायकॉट कर दिया है। वे मंदिर के पास लगने वाले मेले में आएंगे, तो हम वहां भी नहीं जाएंगे। अब ब्राह्मण मंदिर में पूजा करके चले जाते हैं, लेकिन कोई भोग और प्रसाद नहीं लेता।’
सोमेश के पड़ोसी कपिल चक्रवर्ती कहते हैं, ‘हमारे पूर्वजों ने जो बताया वही सही है। दास लोग खराब काम करते हैं। वो गाय का मांस और मरे हुए जानवर खाते थे। हो सकता है कि अब ऐसा न होता हो, लेकिन जो नियम हमारे बड़े-बुजुर्ग बना गए, हम उसी के अनुसार चलेंगे।’
घोष (कश्यप) समुदाय मंदिर में दूध पहुंचाता है। उनकी बस्ती में घुसते ही घरों के बाहर गोबर के उपले दिखने लगे। दूध के कैंटर दिखाई दिए। दरवाजे पर गाय बंधी थीं। यहां मिले विष्णु घोष बताते हैं, ‘यहां हमारे समाज के 400 घर हैं। हर परिवार क्षमता और अपनी बारी के हिसाब से मंदिर में दूध पहुंचाता है।’
‘हम पूजा के लिए 365 दिन दूध भेजते हैं। रोज सुबह हमारे यहां से एक कटोरा दूध मंदिर जाता है। ये हमारे पूर्वजों का आदेश था। सदियों पहले जमींदार ने हमें ये जमीन दी थीं। उन्होंने ही मंदिर बनवाया था।’
दलित भी दास समुदाय के मंदिर जाने से नाराज ब्राह्मण और घोष ही नहीं, गांव के दलित भी मंदिर की परंपरा टूटने से नाराज हैं। हम गांव में बागड़ी, डोम, हरी और माझी समुदाय के बीच पहुंचे। ये मंदिर में प्रवेश से लेकर गांव के हर तीज-त्योहार में शामिल होते हैं।
माझी समुदाय के इलाके में 200 घर हैं। यहां हमें सुकांता माझी मिले। वे बताते हैं, ‘दास समुदाय ने मंदिर के अंदर जाकर सही नहीं किया। हमने उनका बहिष्कार कर दिया है। मेले से भी उनका बहिष्कार करेंगे। ये चमड़ा उतारने का काम करते हैं। उनके मंदिर में जाने के बाद से हम मंदिर नहीं जा रहे। इसका फैसला सर्वसमाज की मीटिंग में होना चाहिए।’
‘हम जिन खेतों में काम करने जाते हैं, वहां दास समुदाय के लोग भी आते हैं। हमें उनके साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन उनका मंदिर में जाना गलत है।’
गांव में डोम समुदाय के 40 से 45 घर हैं। इस समुदाय से आने वाले बुधदेव बताते हैं, ‘मैं बचपन से शिव मंदिर जाता रहा हूं। दास समुदाय को कभी मंदिर में नहीं जाने दिया गया। अब कानून और प्रशासन की मदद से वे मंदिर जा रहे हैं। हम उनसे अलग ही रहते हैं।’
बागड़ी समाज से आने वाले रविंद्रनाथ बताते हैं, ‘हमारे समुदाय के यहां 200 परिवार रहते हैं। हम हमेशा से मंदिर जा रहे हैं। सभी समाज को साथ बैठकर मीटिंग करने की जरूरत है, वर्ना मुसीबत हो जाएगी।’
दास समुदाय की बात… ‘हम भी हिंदू हैं, मंदिर जाना हमारा हक है’ सभी समुदायों की बात सुनने के बाद हम दास पाड़ा पहुंचे। समुदाय के लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। हालांकि उनके बच्चे स्कूल जाते हैं। युवा शहर जाकर नौकरी करना चाहते हैं।
यहां मिले दिग्बंधु दास बताते हैं, ‘गांव में हमारे 150 परिवार रहते हैं। हमारे पास कोई प्रॉपर्टी नहीं है। हम हिंदू हैं। हमें भी मंदिर जाने का अधिकार है। 300 साल पुरानी परंपराओं की वजह से हमारा मंदिर में जाना मना था। इसलिए हमने कानून की मदद ली।’
‘हमें भी जमींदार ने जमीन दी थी। हम मंदिर के बाहर डमरू और ढाकी बजाते हैं, लेकिन हमें मंदिर की सीढ़ियां नहीं चढ़ने दी जाती थीं। गांव में सब हमें नफरत से देखते हैं।’
हमारे बच्चे सबके साथ पढ़ते हैं। खेतों में हम साथ काम करते हैं, लेकिन मंदिर नहीं जा सकते। हम लंबे वक्त से आवाज उठा रहे थे, लेकिन उनसे जीत नहीं सके।
देबुदास समुदाय के कुछ पढ़े-लिखे लोगों में से हैं। वे बताते हैं, ‘हम दलित हैं। यहां दलितों की बाकी जातियां भी हैं। हमारे साथ सबका व्यवहार अलग है। हमारे पूर्वजों ने मजबूरी में जो भी किया, हमें उसकी सजा दी जाती है। कई सौ साल पहले उन्होंने भुखमरी और गरीबी के कारण मरे जानवर खाए या चमड़े का काम किया। उनकी वजह से हमें शर्मिंदा किया जाता है।’
वे आगे कहते हैं, ‘मैं बचपन से मंदिर जाना चाहता था। इससे समाज में भेदभाव खत्म होता है, लेकिन हमारे लिए नियम बहुत सख्त हैं। जनवरी में हमारे समाज के कुछ लोगों ने फैसला लिया था कि हम मंदिर में जाना चाहते हैं। दो महीने आंदोलन किया। दूसरे समुदायों के साथ बैठकें कीं, लेकिन वे नहीं माने। इसलिए फरवरी में हमने कलकत्ता हाईकोर्ट में याचिका दायर की।’
‘अब भी प्रशासन ने हम पर कुछ शर्तें रखी हैं। रोज सिर्फ दो लोग ही मंदिर जा सकते हैं। हम सब साथ में मंदिर जाकर गांव का माहौल खराब नहीं करना चाहते। एक साथ ज्यादा लोगों के मंदिर जाने से शायद लड़ाई होने लगे। हम धीरे-धीरे सबका दिल जीतना चाहते हैं।’
अब बलेश्वर गांव की कहानी… आसपास के कई गांवों में दास समुदाय का बायकॉट किया गिधग्राम से 15 किलोमीटर दूर बलेश्वर गांव है। यहां भी दास समुदाय पर प्रतिबंध लगे हैं। हम यहां के बालेश्वर शिव मंदिर पहुंचे, तो कुछ ब्राह्मण मिले। उन्होंने ये मानने से इनकार कर दिया कि गांव में दास समुदाय के साथ भेदभाव होता है। वे हमें दास पाड़ा भी नहीं जाने देना चाहते थे।।
मंदिर में मिले नरेंद्रनाथ देवासी बताते हैं, ‘यहां महादेव शिव को बिलेनाथ कहा जाता है। ये एक पीठस्थान है। यहां दूर-दूर से लोग आते हैं। दास समुदाय खुद को दलित मानता है, इसलिए वे खुद ही मंदिर में दाखिल नहीं होते। पहले तो उनके बच्चे स्कूल भी नहीं जाते थे। अब वे नौकरी कर रहे हैं।’
‘यहां करीब 30 साल पहले से दास समुदाय के लोग मंदिर जाने लगे थे। हमें इससे कोई आपत्ति भी नहीं है। सुबह-शाम की आरती में वे ढोलक और ढाकी बजाते हैं। दूसरे गांवों में दास समुदाय को मंदिर में नहीं घुसने देते, ये सुनकर हमें तकलीफ होती है। हमने 30 साल पहले जानवरों की बलि देना भी बंद कर दिया है। इसके लिए जानवर दास समुदाय के लोग ही देते थे।’
बलेश्वर गांव के बालेश्वर शिव मंदिर की तस्वीर है, यहां भी दास समुदाय के लोगों को अंदर दाखिल होने की मनाही है।
दास बोले- चंदा लिया, लेकिन हमारी महिलाओं का अपमान किया इसके बाद हम गांव के दास पाड़ा पहुंचे। यहां भी दास समुदाय की बस्ती बाकियों से अलग बसी है। यहां मिले शुब्रोतो दास बताते हैं, ‘हमारे गांव में मां काली, दुर्गा और मनसा देवी की पूजा होती है। हमें उसमें शामिल नहीं किया जाता। हम अपनी मूर्ति बस्ती के मंदिर में बिठाते हैं।’
हमने इसके पीछे की वजह पूछी तो जवाब मिला, ‘मंदिर के पुरोहित कहते हैं कि हमारे पूर्वज गोमांस का काम करते थे, इसलिए मंदिर में हमारी एंट्री पर रोक है। मैंने इस बारे में अपने बाबा से पूछा तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। पहले क्या होता था, मुझे नहीं पता, लेकिन ये कहना गलत है कि हम अब भी गोमांस खाते हैं।‘
‘दूसरे गांवों से आने वाले दास मंदिर भी जाते हैं और शिवलिंग को जल भी चढ़ाते हैं। उन्हें कोई पहचानता नहीं है, इसलिए किसी को दिक्कत नहीं होती।’
डोम, माझी या किसी भी जाति के लोगों ने हमारे लिए आवाज नहीं उठाई। वे भी हमारे खिलाफ ही रहते हैं। वे मंदिर जा सकते हैं। अगर प्रशासन सपोर्ट करे, तो हम भी मंदिर जाना चाहते हैं।’
इस समुदाय की दिपाली दास बताती हैं, ‘दो साल पहले सावन में बालेश्वर मंदिर में पूजा थी। दास पाड़ा में हम सभी से 20 रुपए चंदा लिया। हमें लगा कि हम चंदा दे रहे हैं तो हमें पूजा करने का अधिकार भी है। हमने फैसला लिया कि हम पूजा करने जाएंगे।’
‘पुजारी ने हमारा जल बाल्टी में डलवा दिया और कहा कि पुजारी शिवलिंग पर चढ़ा देंगे। हम वहां से रोते हुए चले आए। इसके बाद हमने कभी कोशिश नहीं की।’
दास पाड़ा के ही सुभाष चंद्र कहते हैं, ‘किसी त्योहार पर गांव में मेला लगता है, तो हम दुकान नहीं लगा सकते। सावन में महादेव पूरे गांव में घुमाए जाते हैं, लेकिन दास पाड़ा नहीं लाए जाते। हम बलि के लिए जानवर दिया करते थे, लेकिन 30 साल पहले ये प्रथा बंद कर दी गई।’
‘मंदिर के लोग कहते हैं कि तुम्हारे पूर्वज गोमांस खाते थे। इसलिए अब तुम भी मंदिर नहीं आ सकते। दुर्गा और काली पूजा पर हम अपना चंदा जमा कर मूर्ति लाते हैं, लेकिन किसी धार्मिक आयोजन में शामिल नहीं होते।’ ………………………….
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