बुलंदशहर जिले का गांव राजघाट। गंगा का ये इलाका डॉल्फिन, कछुओं और मछलियों की मौजूदगी के लिए मशहूर है। अकेले इसी जगह गंगा में 20 से ज्यादा डॉल्फिन हैं। लेकिन, हमें निराश होना पड़ा। दो घंटे मोटरबोट में घूमने के बाद भी हमें डॉल्फिन की एक झलक भी नहीं दिखी।
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‘दैनिक भास्कर’ ने अपनी गंगा यात्रा के दूसरे दिन मेरठ के हस्तिनापुर से संभल तक करीब 175 किलोमीटर का सफर तय किया। यात्रा के इस पड़ाव में हमने देखा गंगा में डॉल्फिन, कछुओं की मौजूदगी कम है। इस एरिया में पिछले चार साल में चार डॉल्फिन की मौत हो चुकी है। वजह गंगा के जल में मिल रहा केमिकल और जीवों का शिकार है। पढ़िए ये रिपोर्ट…
ये तस्वीर हापुड़ जिले में ब्रजघाट गंगा पुल के पास की है। यहां पानी साफ है क्योंकि बहाव तेज है।
दूसरे दिन की गंगा यात्रा की शुरुआत दिल्ली–लखनऊ नेशनल हाईवे पर स्थित हापुड़ जिले के ब्रजघाट से हुई। हमने देखा यहां गंगा स्नान करने वालों की संख्या बढ़ी है। इसकी वजह गर्मी है। यहां 30 साल से नाव चला रहे केवट भोलू हमारे साथी बने। हमने भोलू से पूछा– यहां पानी में रहने वाले जीवों की क्या स्थिति है? वे बताते हैं– कुछ दिनों पहले ब्रजघाट गंगा की एक वीडियो वायरल हुआ था। एक मरा हुआ मगरमच्छ बहता दिख रहा था। हमने दूसरे नाविकों से पता किया तो जानकारी हुई कि ये अमरोहा जिले की तरफ से बहता हुआ आया है।
भोलू कहते हैं– गंगा किनारे के कुछ लोग अपने भोजन के लिए मछलियों का शिकार करते हैं। कई बार उनके जाल में बड़े जलीय जीव भी फंस जाते हैं। जाल में जब मगरमच्छ फंस जाते हैं तो शिकारी उन्हें चाहकर भी जिंदा नहीं छोड़ पाते। शिकारियों को डर रहता है कि अगर हमने मगरमच्छ को जिंदा छोड़ दिया तो अगली बार वो हमारा ही शिकार न कर लें। इसलिए ज्यादातर आशंका यही है कि वो मगरमच्छ भी मछली मारने वाले शिकारियों का शिकार हुआ हो।
हापुड़ में ब्रजघाट पुल के नीचे गंगाजल साफ
‘दैनिक भास्कर’ रिपोर्टर ने ब्रजघाट गंगा पुल के ठीक नीचे से डिस्पोजल ग्लास में गंगाजल भरा। देखने भर से वो एकदम साफ लग रहा है। भोलू केवट बताते हैं कि पुल के नीचे गंगा की गहराई करीब 30 फुट के आसपास है। यहां बहाव तेज है और स्नान घाट भी बगल में है। तेज बहाव की वजह से यहां का पानी लगभग साफ ही रहता है। हां, थोड़ा आगे बढ़ने पर गंगा शांत होने लगती है। ऐसे में पानी का रंग मटमैला होने लगता है। पहाड़ों पर लगातार बारिश हो रही है। एक वजह ये भी है कि फिलहाल गंगा का रंग मटमैला जैसा है।
ये हापुड़ जिले के ब्रजघाट का नजारा है। घाट के किनारे पानी मटमैला है।
बुलंदशहर के अहार में एक कछुआ हैंचरी, वो भी गंगाजल बढ़ने से बंद
ब्रजघाट से हम गंगा किनारे करीब 50 किलोमीटर का सफर करते हुए बुलंदशहर जिले के ऐतिहासिक और पौराणिक स्थल अहार पहुंचे। यहां गंगा पार खादर इलाके में वन विभाग ने एक कछुआ हैंचरी लगाई थी, लेकिन हमें वहां कुछ नहीं मिला। हमने इस बारे में वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (WWF) से जुड़े रामऔतार से फोन पर पूछा।
उन्होंने बताया– नवंबर से मई तक कछुआ हैंचरी का संचालन होता है। इसमें कछुओं के अंडों को उचित तापमान पर हैंचरी में रखा जाता है। अंडे जब खुद फूटने लगते हैं तो बच्चे उसमें से निकलकर खुद ही गंगा में चले जाते हैं। जून से गंगा में पानी बढ़ने लगता है। इसलिए हैचरी को बंद कर दिया गया है।
बुलंदशहर के अहार में दूर तक सिर्फ गंगा दिख रही। पानी बढ़ने की वजह से कछुआ हेचरी हटा दी गई है।
अब हैंचरी का दोबारा संचालन नवंबर में होगा। हैंचरी का एरिया चारों तरफ से कवर किया जाता है, ताकि जंगली जानवर वहां न पहुंच सकें। उसकी निगरानी के लिए आसपास के लोग तैनात रहते हैं। हमारी मुलाकात स्थानीय नागरिक उपेंद्र नागर से हुई। उन्होंने बताया– अहार में एक ही कछुआ हैंचरी है। बाढ़ के वक्त में ये बंद रहती है। बाकी दिनों इसकी देखरेख वन विभाग, WWF और स्थानीय एनजीओ करते हैं।
WWF का बेस कैंप बंद, डॉल्फिन निगरानी भी खास नहीं
अहार से गंगा किनारे होते हुए हम 40 किलोमीटर दूर कर्णवास में पीली कोठी पर पहुंचे। ये वो स्थान है, जहां से एक वक्त पूरे रामसर साइट में जलीय जीवों के संरक्षण की गतिविधियां संचालित होती थीं। पीली कोठी पर आज सन्नाटा है। ये एकदम वीरान हो चुकी है। मुख्य बिल्डिंग पर ताला लगा हुआ है। स्थानीय लोग बताते हैं कि ये बिल्डिंग अब एक ट्रस्ट के पास है, जो कभी–कभी यहां भंडारा वितरण करती है।
ये बुलंदशहर के कर्णवास की पीली कोठी है, जहां कभी WWF का बेस कैंप था। अब यहां सन्नाटा है।
स्थानीय नागरिकों ने बताया– वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (WWF) ने साल–2010 से 2016 तक पीली कोठी को अपना बेस कैंप बना रखा था। पीली कोठी के नीचे ही गंगा बहती है। यहां पर WWF, जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी और IIT दिल्ली के वैज्ञानिकों ने गंगा में दो सोनार मशीनें डाली हुई थीं। ये सोनार मशीनें डॉल्फिन की हर गतिविधि को वॉच करती थीं। 2016 के आसपास कुछ आर्थिक अनियमितताओं के आरोप लगे और WWF को अपना कर्णवास बेस कैंप बंद करना पड़ा।
अब डॉल्फिन संरक्षण का कार्य WWF के अधिकारी हस्तिनापुर (मेरठ) ऑफिस से करते हैं। वो अक्सर कर्णवास क्षेत्र की विजिट करते रहते हैं। कर्णवास में करीब 8 साल पहले तक कछुओं की दो हैंचरी संचालित होती थीं, अब वो भी बंद हो गई हैं। गंगा खादर में हैंचरी वाली जगह अब फसल खड़ी हुई है।
स्थानीय लोग बताते हैं– पीली कोठी के पास करीब 7–8 डॉल्फिन मौजूद हैं, जो शाम के वक्त अक्सर दिखाई देती हैं। चूंकि ये पूरा इलाका डॉल्फिन के लिए जाना जाता है, इसलिए यहां बोट भी न के बराबर चलती हैं।
मल्लाह बोले– डॉल्फिन दिखना या न दिखना किस्मत की बात
कर्णवास से मोटरबोट में सफर करते हुए हम 10 किलोमीटर दूर गांव राजघाट में पहुंचे। ऐसा कहते हैं कि रामसर साइट में सबसे ज्यादा डॉल्फिन अगर कहीं मौजूद हैं तो वो जगह रामघाट है। उसकी वजह है कि यहां कई जगह पानी की गहराई अधिक है, जो डॉल्फिन को पसंद होती है। यहां के नाविक डॉल्फिन दिखाने के लिए टूरिस्ट को गंगा में अंदर तक ले जाते हैं। हम भी एक मोटरबोट पर सवार हो गए। राजघाट गंगा में हमारी बोट करीब 4 किलोमीटर क्षेत्र में घूम रही है। करीब दो घंटे तक गंगा में रहने के बावजूद हमें एक भी डॉल्फिन नहीं दिखी है।
बुलंदशहर जिले के राजघाट इलाके में ही 20 से ज्यादा गंगेय डॉल्फिन हैं। लेकिन हमारी गंगा यात्रा के दौरान डॉल्फिन नहीं दिखीं।
इस यात्रा में नाव चला रहे मल्लाह मोनू ने बताया– बहुत बार यहां अधिकारी डॉल्फिन देखने के लिए आते हैं। ये किस्मत की बात है कि उन अधिकारियों को भी डॉल्फिन नहीं दिखती। जबकि कई बार ऐसा होता है कि डॉल्फिन हमारी नाव के साथ–साथ तैरती हैं।
हमें गंगा में रेतीले टापू पर बैठे कुछ पक्षी जरूर दिखाई दे रहे हैं। मल्लाह बताते हैं कि मछलियों का शिकार करने के लिए ये पक्षी यहीं बैठे रहते हैं। ठंड के दिनों में इस क्षेत्र में साइबेरियन पक्षियों का बड़ी संख्या में जमावड़ा रहता है, जो इस क्षेत्र के बेहतर ईको सिस्टम को दर्शाता है।
राजघाट में नदी किनारे कुछ कुछए जरूर दिखाई दिए।
चार साल में चार डॉल्फिन की मौत
भारतीय वन्यजीव संस्थान (WWI) ने भारत की नदियों में डॉल्फिन की संख्या जानने के लिए साल–2024 में सर्वे किया। 3 मार्च 2025 को केंद्र सरकार ने इसके आंकड़े जारी किए। गंगा नदी में डॉल्फिन की संख्या 6324 पाई गई। जबकि बिजनौर से नरौरा बैराज तक इनकी संख्या 52 दर्ज की गई। 2023 में ये संख्या 50 थी। यानि बीते एक साल में दो डाल्फिन बढ़ी हैं। साल–2020 से 2024 तक मेरठ और बुलंदशहर जिले में चार डॉल्फिन की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो चुकी है। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में इनकी मौत का कारण आज तक स्पष्ट नहीं हुआ है।
मेरठ और बुलंदशहर जिले में चार डॉल्फिन की मौत हो चुकी है।
नरौरा में कछुओं के दो पुनर्वास केंद्र
बुलंदशहर के कर्णवास से गंगा का भ्रमण करते हुए हम यहां से करीब 7 किलोमीटर दूर नरौरा पहुंचे। यहां नरौरा एटॉमिक पॉवर स्टेशन (NAPP) की अणुविहार कॉलोनी है। इस कॉलोनी के अंदर नमामि गंगे प्रोजेक्ट का ऑफिस है। यहां पर दो गंगा जलीय जीव बचाव और पुनर्वास केंद्र हैं। इन पुनर्वास केंद्र के अंदर पानी की हौंद बनी हुई हैं। जिनके अंदर कुछ बड़े कछुए तैरते हुए मिले। इन केंद्रों की देखरेख कर रहे वन विभाग के अलावा भारतीय वन्य जीव संस्थान करता है। हालांकि हमें मौके पर कोई मौजूद नहीं मिला।
हमने भारतीय वन्य जीव संस्थान के आफताब से फोन पर बात की। वो बताते हैं– उत्तर प्रदेश में इस तरह के दो रेस्क्यू सेंटर खोले गए थे। एक वाराणसी और दूसरा नरौरा में था। दोनों ही गंगा के किनारे पर बने हुए हैं। शिकारियों से ज्यादातर कछुए ही पकड़े जाते हैं। जब वन विभाग उन्हें बरामद करता है तो कई बार कछुए उस स्थिति में नहीं होते कि उन्हें तुरंत पानी में छोड़ दिया जाए। ऐसी स्थिति के लिए ये पुनर्वास सेंटर बनाए गए हैं।
हमने पूछा– इन पुनर्वास केंद्र में फिलहाल कितने कछुए हैं। इस पर आफताब कहते हैं– इन सेंटर में कछुए होना उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य है कि अगर कोई ऐसी स्थिति आए तो उससे बचाव के लिए हम पूरी तरह तैयार हैं। लोअर गंगा कैनाल की साफ–सफाई के दौरान हमने कुछ कछुए रेस्क्यू किए थे, जो इन पुनर्वास सेंटरों में मौजूद हैं। हमारा ये प्रोजेक्ट गंगा के जीवों के संरक्षण के लिए है। इसके तहत हम ये पता लगाते हैं कि पानी में रहने वाले जीवों की संख्या कहां पर ज्यादा है। फिर हम उनके संरक्षण पर काम करते हैं।
आफताब बताते हैं कि रामसर साइट में फिलहाल 70 से 80 तरह के जीव पाए जाते हैं। इसमें प्रमुख रूप से डॉल्फिन, मगरमच्छ, घड़ियाल और कछुओं की संख्या ज्यादा है। गंगा का पानी स्वच्छ हुआ है, इसलिए जीव बढ़े हैं।
कछुओं वाला गांव, IPS ऑफिसर ने दिलाई पहचान
नरौरा गंगा बैराज क्रॉस करने के बाद जिला बदायूं शुरू हो जाता है। हम यहां से होते हुए संभल जिले के गांव किशनपुर पहुंचे। ये गांव गंगा किनारे से करीब 9–10 किलोमीटर पड़ता है, जो एक तरह से गंगा खादर का इलाका है। इस गांव में एक तालाब है। तालाब में बड़ी तादात में कछुए हैं। वो भी इतने बड़े कि गंगा में शायद ही दिखें। इस वजह से किशनपुर को कछुओं वाला गांव भी कहते हैं। गूगल मैप पर कछुओं वाला गांव से इसे सर्च भी किया जा सकता है। इस तालाब को नई जिंदगी देने वाली हैं IPS ऑफिसर अनुकृति शर्मा।
संभल जिले के किशनपुर गांव में बड़ी संख्या में कछुए हैं। इसे कछुओं वाला गांव भी कहा जाता है।
अनुकृति वाइल्ड लाइफ से भी जुड़ी हुई हैं अक्सर गंगा किनारे गतिविधियों को अपने खास कैमरे में रिकॉर्ड करती हैं। वे बताती हैं कि गंगा किनारे संभल जिले में करीब 260 प्रकार के जीव–जंतु, पक्षी पाए गए हैं। ये इलाका पक्षियों के लिए बेहद खास है। यहां हिरण, मगरमच्छ, डॉल्फिन, कछुओं के अलावा सैकड़ों प्रकार के पक्षी देखने को मिलते हैं।
खतरनाक केमिकल से डॉल्फिन पर संकट
गंगा में जीवों पर संकट की कई वजह दिखाई देती हैं। भारतीय वन्य जीव संस्थान के एक हालिया सर्वे में पता चला है कि गंगेय डॉल्फिन जिन छोटी मछलियों का शिकार करती हैं, वो मछलियां खतरनाक केमिकल के संपर्क में हैं। इस तरह ये केमिकल डॉल्फिन के पेट में पहुंच रहा है। बीते चार साल में मेरठ और बुलंदशहर में चार डॉल्फिन की संदिग्ध हालात में मौत हो चुकी है। आज तक इनकी मौत की सही वजह पता नहीं चल सकी।
इसके अलावा बिजनौर से लेकर मेरठ, बुलंदशहर और आगे तक गंगा के खादर इलाके में जो फसल उगती है, उसमें केमिकल का प्रयोग होता है। ये केमिकल पानी के सहारे बहकर गंगा में पहुंच जाते हैं। इससे भी जलीय जीवों को खतरा रहता है।
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