गंगा के उतरी किनारे स्थित बेगूसराय। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि, तो किसी जमाने में इसे लेनिनग्राद यानी लेनिन का शहर भी कहा गया। एक ऐसा इलाका, जहां कांग्रेस, लेफ्ट और भाजपा तीनों विचारधारा के लिए स्पेस है। विधानसभा में विपक्ष को ताकत मिल
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यहां आज कांग्रेस नेता राहुल गांधी आ रहे हैं। वह पार्टी की पलायन रोको, नौकरी दो यात्रा में कन्हैया कुमार के साथ चलते दिखेंगे। आजकल उनकी राजनीति के केंद्र में दलित और OBC हैं। यात्रा से पहले राहुल गांधी ने वीडियो जारी कर कहा कि मैं आ रहा हूं।
कांग्रेस यहां 1998 के बाद एक भी लोकसभा चुनाव नहीं जीत पाई है। विधानसभा चुनावों में 1990 के बाद बहुत खराब प्रदर्शन रहा है। जबकि, यह इलाका कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था।
बेगूसराय में कांग्रेस पार्टी की इतनी सक्रियता क्या महज संयोग है या राहुल गांधी इसके पीछे कुछ सोच-समझ कर प्लान कर रहे हैं? बिहार के लेनिनग्राद में 3 बार से कैसे भाजपा लोकसभा चुनाव जीत रही है? कांग्रेस कमजोर क्यों हुई? मंडे स्पेशल में पढ़िए और देखिए…
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर सभी पार्टियां सक्रिय हो गई हैं। जनवरी से अब तक राहुल गांधी तीसरी बार बिहार आ रहे हैं। इससे लेकर तरह-तरह की चर्चा है। हालांकि, ‘पलायन रोको- नौकरी दो यात्रा’ में राहुल गांधी के शामिल होने के मामले को पार्टी महज संयोग मान रही है। उसे किसी दूसरे प्लान का हिस्सा नहीं बता रही है।
यात्रा में पहले दिन से कन्हैया कुमार के साथ चल रहे NSUI बिहार के सह प्रभारी मृत्युंजय मौर्या कहते हैं, ‘यह सिर्फ संयोग है कि राहुल गांधी भी तभी आ रहे हैं जब हमारी यात्रा बेगूसराय पहुंची है। उनका कार्यक्रम छह दिन पहले तय हुआ था, जबकि यात्रा का रूट 16 मार्च को ही तय हो गया था। राहुल गांधी ने हमसे वादा किया था कि वो हमारे साथ जरूर चलेंगे।’
बेगूसराय में पोस्टर लगा है। जिस पर लिखा है- जन्म भूमि को कर्म भूमि में बदलना है।
वहीं, सीनियर जर्नलिस्ट और लेखक संतोष सिंह कहते हैं, ‘कांग्रेस 1927-30 के दौर के आइडिया पर काम कर रही है। जवाहर लाल नेहरू उस दौर में कांग्रेस को समाजवादी कहते थे। अब राहुल वही राह पकड़ रहे हैं। बिहार में राहुल गांधी का तीसरा कार्यक्रम पासी समाज के सुशील पासी ने लिया है।’
राहुल गांधी और उनकी नई कांग्रेस बिहार में 60 से ऊपर के नेताओं से किनारा करके नई उम्र की पौध तैयार कर रही है। जिसमें दलित नेता राजेश राम (56), कृष्णा अल्लावरू (51) और कन्हैया कुमार (38) नाम की तिकड़ी सक्रिय है। अखिलेश सिंह को हटाने के बाद सजातीय वोटों को साधने के लिए कन्हैया कुमार के लिए जगह बनाई जा रही है।
राहुल गांधी क्या साधने आ रहे?
राहुल गांधी के बेगूसराय दौरे को लेकर सीनियर जर्नलिस्ट अभिरंजन कुमार कहते हैं, ‘बेगूसराय को सिर्फ लेनिनग्राद मत कहिए, यह राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि भी है। यहां की धरती में राष्ट्रवाद की लौ धधकती रहती है। यही कारण है कि यहां से सत्ता की आलोचना भी मुखरता से होती रही है।’
कन्हैया कुमार के असर पर अभिरंजन कुमार कहते हैं, ‘बेगूसराय ने कन्हैया कुमार को ना पूरी तरह रिजेक्ट किया है और ना पूरी तरह एक्सेप्ट किया है। 2016 के केस की तरह उनकी स्थिति बनी हुई है। उस केस का डिसिजन ही कन्हैया कुमार का भविष्य तय करेगा। अगर केस उनके पक्ष में रहा तो कन्हैया के लिए राजनीतिक रूप से बेगूसराय सबसे बेहतर साबित होगा। राहुल गांधी का एक मकसद कन्हैया कुमार को यहां स्थापित करना भी हो सकता है।’
बेगूसराय और आसपास के इलाके में क्यों कमजोर हुई कांग्रेस
एक्सपर्ट के मुताबिक,
- इस इलाके में कांग्रेस की राजनीति का आधार भूमिहार और मुस्लिम थे। 1989 के भागलपुर दंगे के बाद मुस्लिमों ने साथ छोड़ा।
- लालू के शासनकाल में कांग्रेस के ढुलमुल रवैये के कारण भूमिहारों का झुकाव कांग्रेस से कम होना शुरू हुआ। जिसे बाद में भाजपा ने भुनाया।
- बेगूसराय में आजादी के बाद से ही इंडस्ट्री आने लगी। इस कारण वहां मजदूर यूनियन भी सक्रिय हुए। मजबूत मजदूर यूनियन के कारण ये इलाका धीरे-धीरे लेफ्ट की तरफ झुकता गया।
- राहुल गांधी कन्हैया के सहारे भूमिहारों को साधने का प्रयास कर सकते हैं, लेकिन इसमें कितनी सफलता मिलती है, ये बाद में पता चलेगा।
बेगूसराय में कांग्रेस उतनी भी कमजोर नहीं
आजादी के बाद अब तक 18 लोकसभा चुनाव हुए हैं। इसमें से 8 बार कांग्रेस पार्टी यहां से चुनाव जीत चुकी है। जबकि, 3 बार भाजपा, दो बार JDU, दो बार जनता दल/पार्टी, एक-एक बार राजद, कम्युनिस्ट और निर्दलीय चुनाव जीते हैं। इस तरह से देखा जाए तो यह जमीन कांग्रेस पार्टी के लिए भी उपजाऊ रही है।
वहीं, विधानसभा चुनाव की बात करें तो यहां महागठबंधन की स्थिति मजबूत रही है। 2020 विधानसभा चुनाव में 7 विधानसभा सीटों में से 4 पर महागठबंधन के प्रत्याशी की जीत हुई थी। 3 पर NDA जीता था।
दरअसल, बेगूसराय की राजनीति जाति पर आधारित रही है। बछवाड़ा, तेघड़ा, बेगूसराय, मटिहानी, बलिया, बखरी, चेरिया बरियारपुर – 7 विधानसभा क्षेत्र हैं। इसमें देखा जाए तो आंकड़ों के मुताबिक, 19-21 फीसदी भूमिहार, 15-16 फीसदी मुस्लिम, 11-13 फीसदी यादव, 8 फीसदी पासवान और 7 फीसदी कुर्मी वोटर हैं।
अब कहानी, बेगूसराय के ‘लेनिनग्राद’ बनने की…
आजादी के ठीक बाद बिहार कांग्रेस के सबसे बड़े नेताओं में से एक रामचरित्र सिंह बेगूसराय से विधानसभा का चुनाव लड़े और जीते। इनके बेटे चंद्रशेखर बेगूसराय और बिहार के कद्दावर कम्युनिस्ट नेता हुए।
यह वह दौर था जब आम आदमी को सिर्फ कांग्रेस ही समझ आती थी और बाकी दल अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद में थे। बेगूसराय को वामपंथियों का गढ़ बनाने में चंद्रशेखर की भूमिका अहम मानी जाती है।
CPI बेगूसराय के संगठन मंत्री राजेंद्र चौधरी बताते हैं, ‘चंद्रशेखर ने पढ़ाई के दौरान ही बेगूसराय के नौजवानों के बीच काम करना शुरू कर दिया। इस दौरान वो नौजवानों और किसानों को संगठित करके उन्हें कांग्रेस का सदस्य बनाते थे। आगे चलकर चंद्रशेखर के प्रभाव से बेगूसराय कांग्रेस में एक उग्रपंथी दल बन गया।’
आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी में वैचारिकी और वंचितों की लड़ाई की जगह नहीं बन सकी। फिर चंद्रशेखर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए, लेकिन उनके पिता कांग्रेस में ही रहे।
CPI नेता अवधेश राय बताते हैं, ‘रामचरित्र बाबू कभी भी चंद्रशेखर के काम में बाधा नहीं बनते थे। एक बार तो उनका टिकट भी इसलिए कटा कि चंद्रशेखर बड़े नेता बनकर उभर गए थे। मंत्री रहते हुए रामचरित्र बाबू के कमरे में महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की तस्वीर होती थी तो चंद्रशेखर के कमरे में मार्क्स और लेनिन की।’
अखबार ने लिखा- बिहार का लाल सितारा
चंद्रशेखर की उभार पर कलकत्ता के स्टेट्समैन ने एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था- बिहार में लाल सितारा। राजेंद्र चौधरी बताते हैं, ‘1952 से 1956 के साल कम्युनिस्ट पार्टी के पुनर्गठन और जन आंदोलन के साल थे। चंद्रशेखर पूर्णिया में बेदखली-विरोधी आंदोलन का संचालन कर रहे थे। उन दिनों कामरेड चंद्रशेखर के पिता बिहार सरकार में सिंचाई मंत्री थे। वो अपने पिता के खिलाफ ही मोर्चा खोले रहे।’
‘चंद्रशेखर को 1952 में ही कम्युनिस्ट पार्टी ने बेगूसराय से उम्मीदवार बनाया, लेकिन वह चुनाव हार गए। 1956 में कांग्रेस विधायक के निधन के बाद उप चुनाव हुआ, जिसमें चंद्रशेखर पहली बार जीत कर विधानसभा पहुंचे।
कम्युनिस्टों के लिए भी यह पहली जीत थी। इसके बाद यह इलाका कम्युनिस्टों का गढ़ बना रहा। धीरे-धीरे तेघड़ा और बछवारा विधानसभा सीटें वामपंथ का गढ़ बनती गईं। तेघड़ा विधानसभा सीट को एक जमाने में ‘छोटा मॉस्को’ कहा जाता था। यही वजह थी कि यहां पर 1962 से लेकर 2010 तक वामपंथियों का ही कब्जा रहा।’
90 की दशक के बाद लेफ्ट एक ताकत, लेकिन गढ़ नहीं
बेगूसराय में तेघड़ा और बखरी जैसी कुछ विधानसभाएं हैं, जहां कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव अभी तक बरकरार है। मगर लोकसभा के समीकरणों में वामपंथ का पक्ष कमजोर ही रहा है। लोकसभा में अब तक बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से 1967 से 1971 तक सिर्फ एक बार कम्युनिस्ट पार्टी के योगेंद्र शर्मा चुनाव जीते। तब से विधानसभाओं में स्थिति बेहतर रही, मगर लोकसभा में कम्युनिस्ट पार्टी जीत नहीं सकी।
इसका कारण बताते हुए CPI से जुड़े अनीस अंकुर कहते हैं, ‘इसका सीधा कारण है कि परिसीमन में बदलाव। चाहें 1996 में लोकसभा परिसीमन का बदलाव हो या 2008 का। बेगूसराय बल्कि वामपंथ की मजबूत सीटों के साथ ये किया गया। 1996 में ही हमारी मजबूत विधानसभाओं को 2008 परिसीमन के बदलाव करके दूसरी लोकसभा के साथ जोड़ दिया गया।’
बेगूसराय को मिनी मुंबई बनाना चाहते थे श्रीकृष्ण सिंह
कहा जाता है कि बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह बेगूसराय को मिनी मुंबई बनाना चाहते थे। उन्होंने बरौनी में थर्मल कारखाना खुलवाया। सिमरिया में गंगा पुल बनवाया।
असम से पाइप द्वारा तेल लाकर बरौनी रिफाइनरी खुलवाई। बरौनी में खाद का कारखाना भी खोला गया। बरौनी डेयरी खोला गई, जो अब सुधा डेयरी है। लगभग 300 स्मॉल इंडस्ट्री बिहार वित्त निगम ने खुलवाए। इसमें से कई बंद हो गए थे।
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