64 साल बाद देश में होली और रमजान का जुमा साथ पड़ रहा है। प्रशासन को हिंदू-मुस्लिमों में तनाव की फिक्र है। हालांकि भारत में होली सिर्फ हिंदुओं का त्योहार नहीं रहा। मुगलों के जमाने में सबसे गरीब शख्स भी बादशाह पर रंग डाल सकता था। होली पर नवाब बड़े शौक
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आज के एक्सप्लेनर में जानेंगे मुगल बादशाहों और नवाबों के दौर में कैसे मनाई जाती थी होली…
सवाल-1: भारत में होली मनाने वाले शुरुआती मुस्लिम शासक कौन थे?
जवाबः जाने-माने इतिहासकार सतीश चंद्र अपनी किताब ‘मध्यकालीन भारत’ में लिखते हैं कि 1192 में आखिरी स्वतंत्र हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को मोहम्मद गोरी ने तराइन के युद्ध में हरा दिया। इसके बाद मोहम्मद गोरी अपने सरदारों के हवाले दिल्ली छोड़कर अफगानिस्तान लौट गया। इस तरह दिल्ली की गद्दी पर पहली बार मुस्लिमों का शासन शुरू हुआ।
मुस्लिम शासकों ने इस्लाम को बढ़ावा दिया और हिंदुओं के त्योहार फीके पड़ते गए। हालांकि गांवों में होली खेली जाती रही। 1325 ईस्वी में दिल्ली की गद्दी पर बैठे मोहम्मद बिन तुगलक पहले मुस्लिम सुल्तान थे, जो होली के सार्वजनिक जश्न में शामिल हुए। 13वीं सदी में अमीर खुसरो (1253-1325) ने होली पर एक मशहूर गीत लिखा-
खेलूंगी होली, खाजा घर आये, धन धन भाग हमारे सजनी, खाजा आये आंगन मेरे।
1526 में पहले मुगल बादशाह बाबर ने आगरा को अपनी राजधानी बनाया। उनके दौर में आगरा के किले में होली मनाई जाने लगी। इतिहासकार मुंशी जकीउल्ला ने अपनी किताब ‘तारीख-ए-हिंदुस्तान’ में लिखते हैं,
बाबर ने देखा कि हिंदू एक-दूसरे को रंगों से भरे बड़े-बड़े हौदों में पटक रहे थे। वह हैरान थे कि लोग न जाने कौन सा खेल खेल रहे हैं। उन्हें बताया गया कि यह हिंदुओं का एक-दूसरे को रंग लगाकर मनाया जाने वाला त्योहार होली है। बाबर को होली का माहौल पसंद आया। उन्होंने होली के दिन अपने नहाने के पूरे कुंड को शराब से भरवाया और उसमें नहाए।
16वीं सदी के मशहूर सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने लिखा है कि गांवों में होली मनाने से खेत लाल हो जाते थे। बाबर के बाद उनके बेटे हुमायूं के दौर में भी होली खेली गई, लेकिन इसमें खुद हुमायूं के शरीक होने का ज्यादा जिक्र नहीं मिलता।
सवाल-2: बादशाह अकबर के दौर में होली कैसे मनाई जाती थी?
जवाबः अकबर के शासन यानी 1556 से 1605 में हिंदुओं को सभी त्योहार मनाने की छूट थी। मुगलों के समय में दो तरह के दरबार लगते थे: दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास। दीवान-ए-खास में शहंशाह के दरबार के मंत्री और मनसबदार, अमीर और बाकी दरबारी लोग जुटते थे, जबकि दीवान-ए-आम में आम लोग जुटते थे।
इतिहासकार आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने अपनी किताब, ‘अकबर द ग्रेट’ में लिखा है, ‘दीवान-ए-आम में टेसू के फूल से बने गुलाल, गुलाबजल और इत्र से होली खेली जाती थी। होली के दिन अकबर किले से बाहर भी आते थे और आम लोगों से मिलते थे।’
मुगल बादशाहों के हरम में होली खेलने का दृश्य (Photo: wikimedia commons)
अबुल फजल की किताब ‘आईन-ए-अकबरी’ के हवाले से इतिहासकार के. के. मुहम्मद बताते हैं,
मुगल बादशाह होली का बेसब्री से इंतजार करते और रंग खेलने के लिए साल भर पिचकारी जैसी चीजें इकट्ठा करते थे। अकबर को भी ऐसी पिचकारियां इकट्ठी करने का शौक था, जिनसे रंग दूर तक जाए। वह हरम में हरखा बाई और बाकी बेगमों के साथ रंग खेलते थे।
कुछ इतिहासकार यह भी कहते हैं कि अकबर के हरम में हरखा बाई और उनकी साथी महिलाएं दीवाली और शिवरात्रि भी मनातीं तो अकबर भी इसमें शरीक होते थे। अकबर के समय के मशहूर कृष्ण भक्त कवि रसखान (1548-1603) ने लिखा है,
‘आज होरी रे मोहन होरी काल हमारे आंगन गारी दई आयो, सो कोरी अब के दूर बैठे मैया ढिंग, निकासो कुंज बिहारी’
सवाल-3: मुगल बादशाह जहांगीर के दौर में होली कैसे मनाई जाती थी?
जवाबः अकबर के बाद 1605 से 1627 तक मुगल साम्राज्य उनके बेटे जहांगीर के हाथों में रहा। जहांगीर भी अपने महल में होली खेलते थे।
जहांगीर अपने हरम में नूरजहां और बाकी औरतों के साथ होली खेलते हुए। ये मशहूर पेंटिंग ऑस्ट्रेलिया कैनबरा स्थित नेशनल म्यूजियम में रखी हुई है। इस पेंटिंग को उनके समय के मशहूर चित्रकार गोवर्धन ने बनाया था।
संगीत में रुचि रखने वाले बादशाह जहांगीर होली पर महफिल लगाते थे। इतिहासकारों के मुताबिक, जहांगीर आम लोगों के साथ होली नहीं खेलते थे, लेकिन उनके समय बादशाह का लाल किले की खिड़कियों से झांककर आम लोगों से बातचीत करने का चलन था।
जहांगीर इन्हीं झरोखे से लोगों को रंगों में सराबोर होते हुए देखते थे। उनके ही दौर में होली को ‘ईद-ए-गुलाबी’ और ‘आब-ए-पाशी’ कहा गया। आब-पाशी का मतलब है- रंगीन पानी की बौछार करना।
ईद की तरह ही लाल किले या किला-ए-मोअल्ला (शाही महल) में होली मनाई जाती थी। लाल टेसू के फूलों को उबालकर बने लाल रंग के पानी को हौदों में भरा जाता था।
अपनी किताब ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ में जहांगीर ने होली के बारे में लिखा है, ‘माना जाता है कि होली साल का आखिरी दिन है, जब सूरज मीन राशि में होता है। एक दिन पहले लोग गलियों में आग जलाते हैं और एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। यह एक अद्भुत वक्त होता है। उसके बाद वे रंग छुड़ाकर साफ कपड़े पहनते हैं और बगीचों और खेतों में जाते हैं।’
सवाल-4: क्या मुगल बादशाह औरंगजेब होली नहीं मनाता था?
जवाबः जहांगीर के बेटे शाहजहां के दौर में भी होली खेली जाती रही। शाहजहां को कैद में डाल उनके छोटे बेटे औरंगजेब मुगल बादशाह बने। ये ‘कट्टर इस्लामी शासक’ हिंदुओं के त्योहार मनाने के खिलाफ था।
इसका जिक्र औरंगजेब के दरबार से जुड़े लेखक साकी मुस्तैद खान ने अपनी किताब ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ के चैप्टर 12 में किया है, ‘9 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने अपने शासन वाले सभी 21 सूबों में हिंदुओं के मंदिर गिराने का आदेश दिया था। इस आदेश के बाद ही सोमनाथ, काशी विश्वनाथ समेत दर्जनों मंदिर गिराए गए। हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं और त्योहारों पर भी रोक लगा दी गई। सभी 21 सूबों में होली नहीं मनाई गई, क्योंकि ये शाही हुक्म के खिलाफ था।’
सवाल-5: औरंगजेब के बाद के मुगल बादशाह होली कैसे मनाते थे?
जवाबः औरंगजेब के बाद मुगल शासन कमजोर होता चला गया। दक्षिण में मुस्लिम शासकों की सल्तनतें काबिज थीं। 1627 में बीजापुर के सुल्तान बने इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय कला और संगीत में रुचि रखने वाले थे और धार्मिक सहिष्णु शासक थे। वह होली पर रंग खेलते और मिठाई बांटते थे।
औरंगजेब के बाद के मुगल बादशाह- मोहम्मद शाह, अहमद शाह और आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने भी होली खेली।
जहांगीर के बाद सबसे धमाकेदार होली 1719 से 1748 तक बादशाह रहे मोहम्मद शाह खेलते थे। उनके होली खेलते हुए जो चित्र हैं, उनमें उनको महल में दौड़ते हुए दिखाया गया है। पीछे उनकी बीवी बादशाह बेगम पिचकारी लेकर चलती दिखाई दे रही हैं। (Photo- Bodleian Library, University of Oxford)
बादशाह बहादुर शाह जफर के जमाने में होली किले और दरबार से बाहर सड़कों तक पर मनाई गई। उन्होंने अपने हिंदू मंत्रियों को सिर और गाल पर गुलाल लगाने की इजाजत दी थी। होली हिंदू महीने फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस मौके पर उत्तर भारत में फाग कहे जाने वाले लोकगीतों का प्रचलन था। इतिहासकारों के मुताबिक, बहादुर शाह जफर ने होली पर कई फाग लिखे। इनमें से एक मशहूर हुआ-
‘क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी।’
एक उर्दू अखबार ‘जाम-ए-जहांनुमा’ ने 1844 में लिखा था, ‘जफर के शासन में होली के लिए खास इंतजाम किए जाते थे। टेसू के फूलों से बने रंग से बादशाह परिवार और आम लोगों के साथ होली खेलते थे।’
19वीं सदी की शुरुआत में ‘जनता का कवि’ कहे जाने वाले नजीर अकबराबादी का होली पर मशहूर गीत है-
‘जब फागुन रंग झमकते हो, तब देख बहारें होली की, जब डफ के शोर खड़के हों, अब देख बहारें होली की परियों के रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।’
होली के दौरान लाल किले के पीछे यमुना नदी के किनारे मेले लगते थे। किले से राजघाट तक भीड़ होती थी। ढफली, झांझ और तुरही बजाई जाती थी। संगीतकार और कलाकार लाल किले के नीचे इकट्ठा होकर अपना हुनर दिखाते। नकलची, बादशाहों और बेगमों की नकल उतारते। हरम की महिलाएं, महल के झरोखों से ये नजारे देखतीं। बादशाह कलाकारों को इनाम देते थे।
जफर के शासन के आखिरी दौर तक अंग्रेज भारत की सत्ता पर काबिज हो गए थे। उन्होंने जफर को रंगून (अब म्यांमार) भेज दिया था, जहां 1862 में उनकी मौत हो गई।
सवाल-6: मुगलों के अलावा नवाबों के दौर में होली कैसे मनाई जाती थी?
जवाबः मुगलों के अलावा नवाबों के महल में भी होली खेली जाती थी। कहा जाता है कि लखनऊ के नवाब सआदत अली खान और आसफुद्दौला होली की तैयारियों में करोड़ों रुपए लगा देते थे।
महिलाओं के साथ होली खेलते नवाब आसफुद्दौला (Photo: sothebys)
मशहूर शायर मीर तकी मीर ने 1748 -1797 तक अवध के चौथे नवाब रहे आसफुद्दौला के होली खेलने पर होरी गीत लिखा-
‘होरी खेले आसफुद्दौला वजीर। रंग सोहबत से अजब हैं खुर्द-ओ-पीर।’
माना जाता है कि नवाब सआदत होली पर तवायफों की महफिलें सजाते और उन पर सोने के सिक्कों और कीमती रत्नों की बौछार करते थे। 1856 तक अवध के आखिरी नवाब रहे वाजिद अली शाह कला प्रेमी थे। उन्होंने गायन की ठुमरी शैली को लोकप्रिय बनाया। होली पर उनकी लिखी ‘जब छिड़ी रंग की झड़ी’ जैसी ठुमरी आज भी मशहूर है। उन्होंने एक ठुमरी में लिखा है-
‘मोरे कान्हा जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूंगी डट के।’
कहा जाता है कि होली पर वाजिद अली शाह मिठाई और ठंडई बंटवाते थे, खुद भी ठंडई पीते और सबके साथ होली खेलते थे।
इतिहासकार महेश्वर दयाल ने अपनी किताब ‘आलम में इंतिखाब दिल्ली’ में लिखा, ‘होली हिंदुस्तानी त्योहार था, बिना भेदभाव के सभी होली मनाते थे। भारत आने के बाद, मुसलमानों ने भी धूमधाम से होली मनाई, चाहे वो बादशाह हों या फकीर।’
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