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ब्लैकबोर्ड-कुत्ता भौंका तो हमारे आदमी जिंदा जला दिए: गांव को कांड वाला मिर्चपुर कहते हैं लोग, 15 साल बाद भी तंबू में रह रहे


मिर्चपुर कांड के बाद नुकसान तो हमारा ही हुआ है। हमारी आंखों के सामने हमारे आदमी जला दिए गए। हमारे मकान जला दिए गए। हमारा काम भी छूट गया। अब मजदूरी करके घर का चूल्हा जला रहे हैं। हमने मजबूरी में गांव छोड़ दिया। बच्चों की पुश्तैनी संपत्ति पीछे रह गई।

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अपना सबकुछ छोड़कर आए ज्यादातर लोग अब तंबू में रह रहे हैं। हमारे बच्चों को फिर से सबकुछ बनाना होगा। चाहे कुछ भी हो जाए अब हमें वापस मिर्चपुर नहीं जाना। आज भी हम वहां के जाटों से आंख नहीं मिला सकते। मन में डर आज भी है कि जो हुआ था वो फिर न हो जाए।

ये कहते ही वाल्मीकि समुदाय के महेंद्र सिंह की आंखें भर आती हैं।

ब्लैकबोर्ड में आज कहानी हरियाणा के मिर्चपुर गांव की जहां कभी हर घर में एक टीचर होते थे, लेकिन एक घटना के बाद एक समुदाय के लोगों को गांव छोड़ना पड़ा…

देश की राजधानी दिल्ली से 170 किलोमीटर दूर हरियाणा के हिसार जिले का मिर्चपुर गांव। हरे-भरे खेत और तालाबों से घिरे इस गांव के हर दूसरे घर में शिक्षक हैं।

मैं जब गांव पहुंची तो कई जगह लोग हुक्का पीते नजर आए। मिर्चपुर घटना का जिक्र करते ही लोग नांक-भौं सिकोड़ने लगे। बोले-इस घटना से गांव की बहुत बदनामी हुई है।

मिर्चपुर गांव में जाट समुदाय के लोगों से बात करने से पहले मैं वाल्मीकि समाज के लोगों से बात करने उनके मोहल्ले गई। मुझे देखकर हैरानी हुई कि आज भी कई घरों में ताले लगे हैं। अच्छे-खासे घर खंडहर में तब्दील हो गए। ऐसा लग रहा था सालों से कोई देखने तक नहीं आया।

मिर्चपुर में वाल्मीकि समाज के मोहल्ले के कई घर 15 सालों से बंद पड़े हैं।

मोहल्ले में जो लोग रह रहे हैं, उन्होंने बात करने से साफ इनकार कर दिया। बहुत पूछने पर पता चला कि जिन घरों में ताले लगे हैं वो यहां से पलायन कर डिंढूर गांव में बस चुके हैं। बात करने पर हमारे आने की असहजता उनके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी। उन्हें लग रहा था कि कहीं माहौल फिर से न बिगड़ जाए। यहां के लोग किसी भी तरीके से बात करने को राजी नहीं हुए।

मैं डिंढूर गांव के लिए निकल पड़ी। गांव के एक इलाके में बहुत सारे तंबू दिखे। मुझे लगा कि शायद यहां बंजारे रहते हैं। कुछ लोग तंबू के बाहर खाट पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे।

मैंने रुककर उनसे पूछा वाल्मीकि समुदाय का मोहल्ला किधर है तो उन्होंने बताया यही है वाल्मीकि समुदाय का मोहल्ला। मैं हैरान थी ये देखकर कि लोग अपने घरों को छोड़कर तंबू में रह रहे हैं। उन सभी बुजुर्गों के चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था।

मैंने पूछा कि आपलोग यहां कब से रह रहे हैं, उस घटना के बाद क्या-क्या बदल गया?

66 साल के महेंद्र सिंह कहते हैं कि डिंढूर गांव में वाल्मीकि समाज के 65 परिवार रहते हैं। सभी को सरकार ने 85 गज का प्लॉट दिया। मिर्चपुर में उनकी जितनी भी जमीन रही हो, लेकिन यहां सबको 85 गज ही मिले। सरकार ने हमें जमीन तो दे दी, लेकिन न मकान बनवाया और ना ही मकान बनवाने के लिए मुआवजा दिया।

कुछ लोगों ने अपने पैसे से मकान बनवाए। सीएम साहब ने वादा किया था कि घर बनाकर देंगे, लेकिन जमीन देकर भूल गए। राहुल गांधी ने कहा था कि सोनिया जी को भेजूंगा, लेकिन हमसे मिलने कोई भी नहीं आया। हमारे लोगों को रोजगार भी नहीं मिला। जिस घर के लोग जले थे, बस उनके यहां के बच्चों को ही रोजगार मिला।

महेंद्र सिंह कहते हैं कि मिर्चपुर घटना के बाद वाल्मीकि समुदाय के कई लोग डिंढूर गांव में बस गए।

घटना को याद कर महेंद्र सिंह बताते हैं कि शराब पीकर किसी भी गली में जाओगे तो कुत्ता तो भौंकेगा ही। कुत्ते ने भौंका तो उन्होंने पत्थर फेंक दिया। वो पत्थर कुत्ते को नहीं लगा, लेकिन पास बैठे बच्चों के एकदम करीब से निकल गया। बस इतने में हमारे कुछ लड़के और उन जाटों के बीच झगड़ा हो गया। यहीं से बात बिगड़ी और इसके बाद की बात तो पूरी दुनिया को पता है।

वहीं से कुछ दूरी पर एक महिला घर के बाहर बैठकर कपड़े धो रही थी। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि बाहर कपड़े क्यों धो रही हैं?

मिर्चपुर से डिंढूर गांव में आकर बसी पूनम अपने घर के बाहर कपड़े धो रही हैं।

58 साल की पूनम कहती हैं कि मैं यहीं तंबू में रहती हूं। 15 साल से खुले में रहना पड़ रहा है। सबकुछ खुले में करना होता है। किसी के घर में शौचालय नहीं है। वो मुझे तंबू के अंदर ले जाती हैं और कहती हैं- आप ही देख लो। तंबू सिर्फ सिर ढंकने के लिए है। जब जमीन दे रहे थे तो एक शौचालय ही बनवा दिया होता।

महिलाओं को शौच के लिए घर से बाहर तो नहीं जाना पड़ता। जिंदगी बेकार हो गई है। बच्चों की ढंग से पढ़ाई नहीं हो पा रही है। बच्चे यहीं पास के सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं। बरसात में तंबू से पानी रिसता है और आंधी-तूफान में तंबू फट जाता है। सरकार बस आश्वासन देती रहती है।

तंबू छोड़कर कहीं बाहर नहीं जा सकते। हमारी जिंदगी तंबू में सिमटकर रह गई है। झगड़ा होने से पहले सबकुछ ठीक था, हम लोग आपस में मिलकर रहते थे। झगड़े के बाद सब बदल गया। झगड़े से पहले ही हमने अपना मकान बनाया था, लेकिन सब छोड़ कर आना पड़ा। सारा गांव उजड़ गया।

हमारे लोगों को घर के अंदर ही जला दिया। हमें वापस जाने का दिल नहीं करता। हमें तंबू में रहना मंजूर है, लेकिन वहां जाना नहीं। उनका अब भी कोई भरोसा नहीं है, हमारे मन में आज भी डर है।

मिर्चपुर से डिंढूर गांव में आकर बसे लोग आज भी तंबू में रहते हैं।

डिंढूर गांव में वाल्मीकि समाज के हर घर की स्थिति लगभग एक जैसी ही है। यहां बस चुके लोगों का मिर्चपुर गांव वापस जाने का कोई इरादा नहीं है। यहां के लोगों को अब परेशानी चाहे जितनी भी हो, लेकिन यहां वो खुद को ज्यादा सेफ महसूस करते हैं।

इसके बाद मैं वापस मिर्चपुर गांव गई जहां जाट समुदाय के लोग रहते हैं। एक खाली प्लॉट में कुछ लोग हुक्का पी रहे थे।

मैंने पूछा पहले के मिर्चपुर और आज के मिर्चपुर में क्या फर्क है?

62 साल के करसन कहते हैं कि हरियाणा में सबसे ज्यादा मास्टर हमारे गांव में हैं। आज से 137 साल पहले मेरे दादा जी ध्यान सिंह इस गांव के शुरुआती टीचर में से एक थे। मिर्चपुर घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि 2010 में बच्चों के बीच छोटी-मोटी लड़ाई हुई, बात फैलने के बाद दंगे में बदल गई। इस पर घणी राजनीति भी हुई।

करसन कहते हैं कि घटना के बाद पांच साल तक मिर्चपुर में सीआरपीएफ तैनात रही।

गांव की बहुत बदनामी हुई। कितने घर उजड़ गए। गांव बहुत पीछे चला गया, करोड़ों का नुकसान हो गया। गांव का नाम खराब होने के कारण यहां के लड़कों की सगाई नहीं होती। गांव के 103 लड़के गिरफ्तार हुए। उनके घरवाले परेशान हुए और 5 साल तक गांव में सीआरपीएफ रही। पुलिस कभी किसी तो कभी किसी के घर जाती रहती थी।

मैंने पूछा गलती कहां हुई?

इस पर करसन तपाक से बोले- बहुत राजनीति हुई, जाटों की बहुत बदनामी हुई और विदेशों तक बात पहुंच गई। हमारे आने वाली पीढ़ी को बहुत नुकसान हुआ। गांव का भाईचारा खराब हुआ।

गांव के बड़े-बुजुर्गों ने झगड़ा सुलझाने के क्या प्रयास किए?

बुजुर्गों ने खूब प्रयास किए, समझाया-बुझाया, लेकिन राजनेताओं ने सब पर पानी फेर दिया।

क्या आप मानते हैं वाल्मीकि समाज को नुकसान हुआ, उन लोगों को घर छोड़कर जाना पड़ा?

करसन कहते हैं वाल्मीकि आज भी हमारे भाई हैं, बहुत कम लोग यहां से गए हैं। जिनका नुकसान हुआ उन्हें नौकरी मिली, मुआवजा मिला, जमीन मिली और लाइसेंस भी मिला। जाटों को तो सिर्फ धक्के मिले। शुरुआत में हमारे घर के निर्दोष बच्चों को भी उठा लिया गया। किसी सरकार और पार्टी ने हमारा साथ नहीं दिया। खाप पंचायतों से ही हमें उम्मीद थी।

वहीं बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते 43 साल के देवेंद्र कहते हैं कि नादान बालकों की लड़ाई पर राजनीति हुई। ये समझ लो कि ये हमारे लिए काला दिन था। जब इस पर राजनीति हुई तो बात हमारे बड़े-बुजुर्ग के हाथों से निकल गई। जब इस तरह का झगड़ा होता है तो गांव पीछे जाता ही है। 5-6 साल बाद माहौल थोड़ा ठीक हुआ। अगर गांव में ये कांड नहीं होता तो हमारा गांव बहुत आगे होता।

देवेंद्र कहते हैं कि हमारे गांव में सबसे ज्यादा टीचर हुआ करते थे, लेकिन अब हमारा गांव 5-6 साल पीछे चला गया।

देवेंद्र कहते हैं हमारे गांव में सब पढ़े-लिखे हैं, एक समय था जब इस क्षेत्र में 70 किलोमीटर के अंदर हमारे ही गांव में सिर्फ मिडिल स्कूल था। हमारे गांव के लिए कहा जाता है कि आंख मींचकर डला मारोगे तो वो भी एक टीचर के घर गिरेगा। किसी भी भर्ती में हमारे गांव के बच्चों का नाम आता ही है। हमारे गांव में बड़ा अखाड़ा है, यहां के बच्चे मेडल लाते हैं। हमारा गांव, शांत गांव माना जाता है।

मैंने मिर्चपुर गांव की कुछ महिलाओं से बात की।

60 साल की कांता कहती हैं कि बहुत छोटी सी बात बड़ी बन गई और गांव का नुकसान हो गया। हमारे बच्चे खेतों से आए, उन्हें उठाकर जेल में डाल दिया और हम रोते रह गए। राजनीति हुई, बहुत खाप पंचायतें बैठीं, लेकिन हमारा फैसला नहीं हुआ। कई लोग कर्ज में चले गए।

आज भी हम लोग डरते हैं। पूरे गांव को नुकसान हुआ, बच्चे जेल में चले गए, मुकदमे हुए, पूरा का पूरा कुनबा रोता रह गया। जमींदार बहुत पीछे चले गए। जाटों की कोई नहीं सुनता।

बराबर में पड़ी खाट पर बैठी चंदा देवी कहती हैं- गांव का माहौल बहुत अच्छा था, लेकिन झगड़े के बाद सब बदल गया। हमारे साथ इतना बुरा हुआ कि बच्चे खेतों में जाने से डरते हैं। जाटों का घणा नुकसान हुआ। पढ़ाई-लिखाई, नौकरी हर चीज में हमारे बच्चे पीछे चले गए। हमारे खेतों में कई बार इनके सूअर और बकरियां आ जाती हैं, लेकिन डर के कारण हम कुछ भी नहीं कहते।

मिर्चपुर की चंदा देवी कहती हैं कि आज भी हमारे बच्चों के रिश्ते होने में बहुत दिक्कत होती है।

चंदा देवी कहती हैं- हम बस यही चाहते हैं कि कैसे भी भाईचारा बना रहे। बच्चों की शादी होने में आज भी बहुत दिक्कत आती है। लोग हमारे गांव को कांड वाला मिर्चपुर कहते हैं। उस टाइम को याद कर चंदा देवी कहती हैं कि हमने बच्चों का घर से निकलना बंद कर दिया था। कुछ काम होता था तो हमारे बच्चे छिप-छिप कर घर से निकलते थे।

घटना का जिक्र करते हुए चंदा देवी कहती हैं कि हमारे कुनबे का वो जमाई था जो अपने सालों के साथ घूमने जा रहा था। जब वाल्मीकि की गली से वो निकले तो कुत्ते ने जमाई राजा का पैंट पकड़ लिया। उन्होंने बचने के लिए पत्थर फेंका तो वाल्मीकि ने झगड़ा कर लिया और जमाई की पिटाई कर दी। इसी बात पर लड़ाई हुई और हम आज तक भुगत रहे हैं। हमारे गांव की तरक्की रुक गई। इतना डर था कि बाहर का कोई हमारे गांव में आने से डरता था। जगह-जगह पुलिसवाले खड़े रहते थे।

आज हमारे गांव में तीन जगह पुलिस चौकी है, पहले एक भी नहीं थी। एक टाइम पर गांव का नाम हुआ करता था, धाक चलती थी। पहले धाक थी क्योंकि यहां के लोग सर्विस में थे। हमारे गांव का रिकॉर्ड था कि जितने मास्टर हमारे गांव में थे उतने पूरे हिंदुस्तान के किसी गांव में नहीं थे। अब नौकरी मिलना इतना मुश्किल है कि लोग जमीन बेचकर विदेश जा रहे हैं। थोड़ा उदास होकर वो कहती हैं कि अब अमेरिका वाले भी वापस भेज रहे हैं। एक डर अब ये भी है कि इतना खर्चा करके जिन बच्चों को बाहर भेजा, वो अब वापस आ रहे हैं।

हरियाणा का मिर्चपुर गांव साल 2010 में सुर्खियों में आया था। कुत्ते के भौंकने पर गांव के वाल्मीकि और जाटों के बीच विवाद शुरू हुआ जिसने दंगे का रूप ले लिया। इस दंगे के बाद वाल्मीकि समाज के लोगों को गांव छोड़कर जाना पड़ा जबकि कई जाटों को जेल जाना पड़ा। हाल ही में इस घटना पर एक ओटीटी सीरीज आई है जिसके बाद से ये घटना फिर से सुर्खियों में है।

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