Mahabharat Katha: महाभारत का हर प्रसंग केवल युद्ध और राजनीति की कहानी नहीं है, बल्कि यह मानवीय भावनाओं, धर्म और नैतिकता की गहराइयों को छूता है. इसी महाग्रंथ में एक ऐसा प्रसंग आता है और वह है द्रौपदी चीरहरण और उसके बाद धृतराष्ट्र द्वारा दिए गए वरदानों का. यह सिर्फ स्त्री-अस्मिता से जुड़ी कहानी नहीं, बल्कि धर्म, न्याय और क्षमा की परिभाषा भी है. यह घटना बताती है कि एक महिला का आत्मसम्मान समाज के हर नियम से ऊपर होता है. जिस सभा में भीष्म, द्रोण जैसे महापुरुष मौन खड़े थे, वहां द्रौपदी ने अकेले अपने अपमान के खिलाफ आवाज उठाई. वो सिर्फ पांचाल की राजकुमारी नहीं थीं, बल्कि पूरे स्त्री समाज की प्रतीक बन गईं. उनकी पुकार में जितनी वेदना थी, उतनी ही शक्ति भी थी. यह प्रसंग हमें यह भी सिखाता है कि न्याय पाने के लिए कभी-कभी केवल शस्त्र नहीं, शब्द और धैर्य भी काफी होते हैं. द्रौपदी का यह निर्णय इतिहास में साहस और आत्मबल की अमिट मिसाल बन गया.
जब युधिष्ठिर ने कौरवों से जुए की बाजी खेली, तो वे एक-एक कर अपना सब कुछ हारते गए. राज्य, संपत्ति, भाई और अंत में अपनी पत्नी द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया. यह वो क्षण था जिसने इतिहास की दिशा ही बदल दी. द्रौपदी को जुए की वस्तु बनाना स्त्री सम्मान के साथ सबसे बड़ा अन्याय था.
दुशासन द्रौपदी को घसीटते हुए सभा में लाया. सब राजा, महारथी और गुरु वहां मौजूद थे, लेकिन किसी ने भी विरोध नहीं किया. द्रौपदी की पुकार पर श्रीकृष्ण ने चमत्कार कर उनकी साड़ी को अनंत कर दिया. यह एक संकेत था कि जब सभी दरवाजे बंद हो जाएं, तब भी ईश्वर स्त्री के सम्मान की रक्षा करता है.
भीम और द्रौपदी की प्रतिज्ञाएं
इस घटना से आहत होकर भीम ने प्रतिज्ञा की कि वह दुशासन की छाती चीरकर उसका रक्त पिएंगे और द्रौपदी के बाल उसी रक्त से धोएंगे. वहीं द्रौपदी ने भी यह शपथ ली कि जब तक वह अपमान का बदला नहीं लेती, तब तक अपने बाल नहीं बांधेंगी. यह संकल्प केवल प्रतिशोध नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की आवाज थी.
द्रौपदी ने पहले वरदान में युधिष्ठिर को दासत्व से मुक्ति दिलवाई. दूसरा वरदान उन्होंने अन्य पांडवों के लिए मांगा, ताकि वे अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ स्वतंत्र हो सकें. यह मांग केवल पति की रक्षा नहीं, बल्कि धर्म की स्थापना के लिए थी. द्रौपदी जानती थीं कि ये पांडव ही न्याय की पुनर्स्थापना करेंगे.
