सही बात तो यह है कि सभी वस्तुएं भगवान की हैं, भगवत् स्वरूप ही है, लेकिन हमने भूल से इन्हें अपना मान लिया है। इसी भूल को तो मिटाना है। यदि इस भूल को मिटा दोगे तो शुभ-अशुभ कर्मों का बंधन मिट जाएगा और समस्त चराचर में व्याप्त भगवान का अनुभव हो जाएगा।
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एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर नैनोद स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में रविवार को यह बात कही।
हमने जो कर्म किए वह क्रिया शक्ति ही हमारी नहीं
महाराजश्री ने बताया- बहुत से लोग कहते हैं कि कर्मों के फलस्वरूप जो हमें मिला है, वह हमारा है। फिर हम उसे अपना क्यों न मानें? पर वे यह नहीं जानते कि जिससे हमने कर्म किए वह क्रिया शक्ति ही हमारी नहीं है। फिर किए हुए कर्मों से मिलने वाली वस्तु हमारी कैसे हो सकती है। कारण यह है कि क्रिया शक्ति और वस्तु दोनों भगवान से प्राप्त हुई है और हमसे अलग भी हो जाएंगी। यदि शरीर कमजोर हो जाए, अपंग हो जाए तो हम क्या कर सकते हैं। इसलिए कर्म फल भी अपना नहीं है। अत: उसका भोग बंधन में बांधने वाला है।
परमात्मा की वस्तुओं का अपना मानना बेईमानी
डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने बताया- श्रीमद् भगवद् गीता में लिखा है- फले सक्तो निबध्यते… कर्म, कर्म-सामग्री की योग्यता, बल आदि भी अपना नहीं है। कर्म करने का विवेक भी अपना नहीं है वरन् यह सब परमात्मा से मिला हुआ है। जो चीजें हमारे साथ नहीं रह सकतीं, सदा हम उनके साथ नहीं रह सकते, इस पर हमारा कोई अधिकार ही नहीं है। जो मिलता है और बिछुड़ जाता है, वह अपना कभी नहीं हो सकता। तो हम उसे त्यागने का अभिमान क्यों करें? परमात्मा की वस्तुओं का अपना मानना बेईमानी है। हमने परमात्मा की दी हुई वस्तुओं का त्याग नहीं किया बल्कि बेईमानी का त्याग किया है और उसी का नाम मुक्ति है। जो वस्तु निरंतर हमारा त्याग कर रही है, उसका भी त्याग यदि कठिन है तो तुम-हम क्या हैं? उसे अपना मानकर अपने पास रखने में कठिनता मालूम पड़ती है तो त्यागने में क्या कठिनता है। यदि हम सोचें कि त्याग करना कठिन है, तो अपने पास रखना संभव ही नहीं है।
सारे दु:ख बेईमानी के फल
महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- एक लड़का था, उसके सामने रहने वाली लड़की ने उसे कई बार कुदृष्टि से देखा, पर वह विचलित नहीं हुआ। जब एक साधु को यह बात पता चली, तो साधु ने लड़के से कहा तुम जितेंद्रिय हो। वह लड़का बोला मैं जितेंद्रिय नहीं हूं, मैं तो इस बात से विचलित नहीं हुआ कि जब उस लड़की पर मेरा अधिकार ही नहीं है तो हम उसे क्यों स्वीकारें। उसे अपने लिए स्वीकार करना बेईमानी है। सारे दु:ख, कष्ट, नरक, जन्म, मरण आदि इसी बेईमानी के फल हैं। इसी कारण व्यक्ति को संसार दु:खदायी लगता है। जो भगवत स्वरूप की है, उसे हम अपना न मानें, और जो बेईमानी के कारण हम अपना मानते हैं, उसे त्याग दें और भगवान के सिवाय अन्य किसी को अपना न मानें तो हमें सर्वत्र, सारा जगत परमात्मा का स्वरूप नजर आएगा।