‘एम्स भोपाल में पिछले दिनों ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित एक महिला का हमने इलाज किया। हमें उसकी जान बचाने के लिए उसका ब्रेस्ट शरीर से अलग करना पड़ा। जब वह ठीक हो गई तो इस बात से परेशान थी कि उसके शरीर का एक हिस्सा कम हो गया है। वह मानसिक रूप से खुद को समझा
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ये कहना है एम्स के कैंसर विभाग के एचओडी डॉ. सकैत दास का। दरअसल, ये समस्या केवल एक मरीज की नहीं होती बल्कि सर्जरी के बाद हर मरीज किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझता है। दुनिया के दूसरे देशों में मरीजों को इस स्थिति से उबारने के लिए सर्वाइवल क्लिनिक होते हैं, हमारे देश में ये कॉन्सेप्ट नहीं है।
अब भारत सरकार इस दिशा में काम कर रही है। देश का पहला सर्वाइवल क्लिनिक जल्द ही भोपाल एम्स में शुरू होने वाला है। इसमें एआई टूल्स की मदद से मरीज की परेशानियों को दूर किया जाएगा। सर्वाइवल क्लिनिक कैसे मरीजों की मदद करेगा? एआई टूल्स का किस तरह से इस्तेमाल होगा? ये क्यों जरूरी है, पढ़िए ये रिपोर्ट…
जानिए, क्यों जरूरत है सर्वाइवल क्लिनिक की एम्स के कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. सकैत दास कहते हैं कि कैंसर के मरीज भले ही पूरी तरह ठीक हो जाएं लेकिन समाज, परिवार, बच्चे मरीज को पूरी तरह स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। वे दो केस का जिक्र करते हैं…
केस1: सर्जरी के बाद चेहरा बिगड़ा तो परिवार दूरी बनाने लगा डॉ. दास कहते हैं- एक पेशेंट के मुंह में कैंसर था। उसका ऑपरेशन किया तो चेहरे का शेप बिगड़ गया। वह रिकवर होकर अस्पताल से डिस्चार्ज भी हो गया था। रूटीन चेकअप के लिए कुछ महीने बाद मेरे पास आया। उसने जो बताया, उसे सुनकर मैं चौंक गया।
वो बोला- तकलीफ तो कुछ नहीं है, लेकिन चेहरे का शेप बिगड़ने के बाद बच्चे और आस-पड़ोस के लोग बड़े आश्चर्य के साथ देखते हैं। उसने बताया कि उसे सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा रहा है। उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी।
केस2: ब्रेस्ट कैंसर की सर्जरी के बाद महिला खुद को स्वीकार नहीं कर पाई डॉ. दास एक और पेशेंट का उदाहरण देते हुए बताते हैं- एक महिला के ब्रेस्ट कैंसर का ऑपरेशन हुआ। हमें उसका ब्रेस्ट रिमूव करना पड़ा। इसके अलावा कोई चारा नहीं था। इसके बाद महिला अपने घर चली गई। कुछ दिनों बाद चेकअप के लिए वो वापस आई तो उसके परिजन ने बताया कि वो अपने में खोई रहती है।
मैंने उससे पूछा कि क्या समस्या है तो वह खुलकर कुछ बता नहीं सकी। उसकी मनोदशा को समझते हुए मैंने महिला डॉक्टर को उससे बात करने के लिए कहा। महिला ने बताया कि वह खुद में कमी महसूस कर रही है। ऐसा लग रहा है कि उसके शरीर का एक हिस्सा हमेशा के लिए उससे दूर हो गया। वह इससे उबर नहीं पा रही है।
कैसे काम करेगा सर्वाइवल क्लिनिक डॉ. दास कहते हैं कि सर्वाइवल क्लिनिक का कॉन्सेप्ट अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के देशों में है। भारत में यह कॉन्सेप्ट कहीं भी नहीं है। सर्वाइवल क्लिनिक के जरिए ऑपरेशन या इलाज के बाद मरीज को मानसिक और शारीरिक दिक्कतों से उबारना होता है।
इसमें बीमारी का पता लगने के बाद से उसके इलाज करने तक मरीज की मॉनिटरिंग की जाती है। उसकी साइकोलॉजी, डाइट, प्रोफेशन सभी को शामिल किया जाता है। हम मरीज को उस बीमारी से छुटकारा तो दिला देते हैं, लेकिन इसके बाद उसकी क्वालिटी ऑफ लाइफ क्या होगी, इस पर कोई बात नहीं करता।
भारत सरकार का ट्रायल प्रोजेक्ट डॉ. सैकत के मुताबिक डिजिटल इंडिया, भारत सरकार का एक बहुत बड़ा मिशन है। इस मिशन में हेल्थ केयर को टॉप प्रायोरिटी पर रखा गया है। सर्वाइवल क्लिनिक में इंसान से ज्यादा मशीनों का इस्तेमाल होगा। भारत सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए 20 लाख रुपए की सहायता दी है।
एआई टूल्स डेवलप करने के लिए आईआईटी इंदौर और भोपाल एम्स में करार हो चुका है। एम्स भोपाल ने इनोवेशन एंड इन्क्यूबेशन सेंटर शुरू किया है। जो इस लक्ष्य के साथ काम कर रहा है कि ऐसी सस्ती और प्रभावशाली तकनीक विकसित करना है, जो मरीज को सीधा फायदा दे सके। आईआईटी इंदौर एक ऐसा एआई बेस्ड डिजिटल टूल तैयार करेगा, जिससे मरीजों की जरूरत का पता लगाया जा सकेगा।
भारत के मरीजों के हिसाब से तैयार होगी डिवाइस डॉ. दास के मुताबिक, क्वालिटी ऑफ लाइफ रिलेटेड डेटा भारत में बहुत कम है। मरीज की क्वालिटी ऑफ लाइफ पता करने के बहुत सारे टूल्स हैं, लेकिन ज्यादातर टूल्स पश्चिमी देशों के हैं। जो वहां के मरीजों के डेटा को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। आईआईटी इंदौर की कोशिश होगी कि डिवाइस भारतीय मरीजों के सोशल, साइकोलॉजिकल बिहेवियर का पता कर सके।
इस डिवाइस की मदद से मरीजों का डेटा कलेक्ट किया जाएगा। इसके आधार पर ही पैरामीटर तय किए जाएंगे। हम पहले से पैरामीटर तय नहीं कर रहे हैं। पेशेंट की समस्याओं का एनालिसिस करेंगे, उसके बाद मरीजों को उस हिसाब से ट्रीटमेंट देंगे। अभी यह रिसर्च मोड में है।
इसके बाद वेलिडेशन की प्रक्रिया शुरू होगी। डिवाइस के डेटा के आधार पर किया गया ट्रीटमेंट यदि कारगर रहा तो समझेंगे कि डिवाइस ठीक तरीके से काम कर रही है। इसके बाद इसे पूरी तरह से डेवलप किया जाएगा। ये प्रयोग कामयाब होता है तो इसे दूसरे एम्स और मेडिकल संस्थानों को भी दिया जाएगा।